भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
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राजा : (प्रतिहारी से) वेत्रवती! मेरा चित्त बड़ा व्याकुल-सा होने लगा है।
मैं विश्राम करना चाहता हूं।
प्रतिहारी : आइये, महाराज! इधर से आइये।
[आगे-आगे चलती है।]
राजा : सोचता हुआ यद्यपि विवाह की सुधि न होने से मैंने उसका अत्यन्त
तिरस्कार कर दिया है फिर भी मेरा हृदय न जाने क्यों रह-रहकर उसकी बातों पर
विश्वास करने का हो उठता है। मेरे हृदय में यह कसक-सी क्यों होने
लगी है?
[सब चले जाते हैं।]
[पटाक्षेप]
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