भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
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[दृश्य-परिवर्तन]
श्यामल : सूचक! मैं महाराज के पास उनको अंगूठी मिलने का समाचार देने के
लिए जा रहा हूं। उनको समाचार सुनाकर उनकी आज्ञा लेकर जब तक मैं लौटकर नहीं
आ जाता, तब तक तुम दोनों नगर के द्वार पर रहकर इसकी रक्षा करना।
दोनों : हां, हां, आप जाइये, आप स्वामी के महल की ओर जाइये।
[श्यामल चला जाता है।]
[ रक्षक देर तक प्रतीक्षा करते हैं।]
पहला रक्षक : जानुक! उन्होंने बड़ी देर लगा दी है लौटने में?
दूसरा : भाई! राजा के पास तो अवसर देखकर पहुंचा जाता है, और अवसर देखकर ही
बात की जा सकती है।
पहला : जानुक! इसे मारने के पुरस्कार में लाल फूलों की माला पहनने को मेरे
हाथों में बड़ी खुजली-सी मच रही है।
[यों कहकर मछुआरे की ओर संकेत करता है।]
पुरुष : भाई! बिना किसी अपराध के ही मुझे क्यों मारने को इतने उतावले
हो रहे हो?
दूसरा : (दूर देखकर) वह देखो, हमारे स्वामी अपने हाथ में महाराज का
आज्ञापत्र लिये इधर ही चले आ रहे हैं।
अब तेरी खैर नहीं। अब या तो तू गिद्धों का भोजन बनेगा या फिर कुत्तों
द्वारा नोचा जायेगा।
[श्यामल का प्रवेश]
श्यामल : सूचक! इस मछुआरे को छोड़ दो।
रक्षक : क्यों स्वामिन्!
श्यामल : अंगूठी का जो विवरण इसने दिया है, वह ठीक है।
रक्षक : जैसी स्वामी की आज्ञा।
जानुक : अरे, यह तो यमराज के घर तक पहुंचकर भी लौट आया है।
[बन्दी के बन्धन खोल दिये जाते हैं।]
बब्दी : (श्यामल को प्रणाम करके) कहिये स्वामिन! मेरी बात का प्रमाण किस
प्रकार मिला?
श्यामल : ले, महाराज ने इस अंगूठी के मोल का धन तुझे प्रसाद रूप में
प्रदान किया है।
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