भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
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कण्व : स्नेह में तो इस प्रकार हुआ ही करता है।
(कुछ विचार करते हुए घूमकर) ओह! शकुन्तला को उसके पति के घर भेजकर अब मेरा
मन कुछ स्वस्थ-सा हुआ है।
क्योंकि-
कन्या तो सचमुच में ही पराई सम्पत्ति होती है। आज उसको भेजकर मैं कृतकार्य
हुआ। उसे इस प्रकार भेजकर आज मेरा मन वैसे ही निश्चिन्त-सा हो गया है जैसे
किसी की धरोहर लौटा देने पर होता है।
[इस प्रकार सब जाते हैं।]
[परदा गिरता है।]
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