भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
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कण्व : सुनो-
चारों ओर फैली इस पृथ्वी की जब तुम बहुत दिन तक सौत बनकर रह लोगी और
राजा दुष्यन्त को जब उनके समान ही अद्वितीय वीर पुत्र प्रदान कर,
उसको राज्य और कुटुम्ब का भार सौंपकर
जब तुम अपने पति के साथ भ्रमण के लिए राजभवन से बाहर निकलोगी तो उस समय इस
शान्त आश्रम में आकर सुख से निवास करना।
गौतमी : वत्से! विदा की घड़ी बीतती जा रही है। अब पिताजी को वापस जाने दो।
(महर्षि कण्व से) आप अब लौट जाइए, अन्यथा यहां रहने पर तो यह यों ही
कुछ-न-कुछ पूछती ही रहेगी।
कण्व : वत्से! जाओ। अब हमें भी अपनी तपस्या में लगना है, उसके लिए विलम्ब
हो रहा है।
शकुन्तला : (एक बार फिर पिता से भेंट करके) आप तो यों ही तप के कारण बहुत
दुबले हो गए हैं, इसलिए आप मेरी किसी प्रकार की चिन्ता मत करियेगा।
कण्व : (निःश्वास छोड़कर) वत्से! वलि के लिए तुमने जो नीवारकण बोये थे,
कुटी के द्वार पर जब तक उनके अंकुर दिखाई देते रहेंगे, तब तक मेरा शोक
किसी प्रकार भी कम नहीं हो सकता। जाओ, तुम्हारा मार्ग मंगलमय हो।
[साथियों के साथ शकुन्तला का प्रस्थान।]
दोनों सखियां : (शकुन्तला को देखकर) हाय, हाय! शकुन्लता तो अब वृक्षों की
ओट में ओझल हो गई है।
कण्व : (लम्बी सांस लेकर) अनसूया! तुम्हारी सखी तो अब चली गई है। तुम अब
यह रोना-धोना छोड़कर मेरे साथ आश्रम को लौट चलो।
दोनों सखियां : तात! शकुन्तला के बिना शून्य के समान इस तपोवन में हम किस
प्रकार प्रविष्ट हो पायेंगी?
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