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भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित

अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित

सुबोधचन्द्र पंत

प्रकाशक : मोतीलाल बनारसीदास पब्लिशर्स प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :141
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 11183
आईएसबीएन :8120821548

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पंचम अंक

[राजा आसन पर विराजमान हैं और साथ ही विदूषक बैठा हुआ है।]

विदूषक : (कान लगाकर) वयस्क! सुनो तो, संगीतशाला की ओर कान लगाकर सुनो तो। कोई  बड़े ही मधुर स्वर में लय और तान सहित सुन्दर गीत गा रहा है। ऐसा प्रतीत हो रहा है  मानो साक्षात् महारानी हंसपदिका स्वर-सन्धान कर रही हों।

राजा : तुम चुप रहो तो मैं सुनूं।

[नेपथ्य में गीत]

मधु के लोभी ओ मधह्नकर।
नये-नये मधु के लोभ में,
एक ही बार में
मधुर मंजरी रसाल की
चूम गये तुम।
कमल कोश में निवास करने
वाले ओ मधुकर!
क्यों तुमने मुझको
बिसार दिया।

राजा : वाह! इस राग में भी किस प्रकार प्रेम की धारा बहती लगती है।

विदूषक : किन्तु इस गीत-में जो व्यंग्य निहित है उसको भी समझने का प्रयास किया है  आपने?

राजा : (मुस्कुराते हुए) हां, मैं समझ गया हूं। महारानी से मैंने केवल एक बार ही प्रणय निवेदन किया है। क्योंकि आजकल मैं देवी वसुमती से प्रेम करने लगा हूं, उसी को आधार बनाकर यह गीत गाया जा रहा है। सखे माढव्य! तुम हंसपदिका के पास जाकर मेरी ओर से कहना कि आज तो तुमने बहुत ही मीठी चुटकी ली
है। उपालम्भ में बहुत निपुण हो।

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