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गीता प्रेस, गोरखपुर >> आध्यात्मिक प्रवचन

आध्यात्मिक प्रवचन

जयदयाल गोयन्दका

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :156
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1007
आईएसबीएन :81-293-0838-x

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इस पुस्तिका में संग्रहीत स्वामीजी महाराज के प्रवचन आध्यात्म,भक्ति एवं सेवा-मार्ग के लिए दशा-निर्देशन और पाथेय का काम करेंगे।


इसी प्रकार साकारकी उपासना करनेवालेको ब्रह्मकी प्राप्ति होती है।

मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते।
स गुणान्समतीत्यैतान्व्रह्मभूयाय कल्पते॥
(गीता १४।२६)

जो पुरुष अव्यभिचारी भक्तियोगके द्वारा मुझको निरन्तर भजता है, वह भी इन तीनों गुणोंको भलीभाँति लाँघकर सच्चिदानन्दघन ब्रह्मको प्राप्त होनेके लिये योग्य बन जाता है।

सबका नतीजा आखिर एक है, यही एकता है। पहले जो स्थिति होती है वह अपनी धारणाके अनुसार होती है। उसके बाद फलरूप स्थिति होती है वह सब एक है। हमारा सबका लक्ष्य सर्वोपरि स्थितिकी प्राप्तिका है, मार्ग भिन्न-भिन्न हैं। श्रीकृष्णके हजारों, लाखों उपासकोंमें भी उनका अलग-अलग लक्ष्य है। चाहे जिस रूपका ध्यान करें, है तो श्रीकृष्णका ही। मध्व सम्प्रदायवाले, वल्लभमतानुयायी, गौड़ी सब श्रीकृष्णकी अलग-अलग भावोंसे उपासना करते हैं प्राप्तव्य वस्तु तो एक ही है।

विधि मुखसे इयंता करके इदं बुद्धिसे उस वस्तुका वर्णन हो ही नहीं सकता। जो जिस प्रकार अपने मार्गमें चल रहा है वह ठीक ही है। जो आचार्य जो बात बतलाते हैं उसीके अनुसार मानकर साधन करना चाहिये। साधककी साधनाको, श्रद्धाको स्वयं भगवान् पूर्ण करेंगे। सबकी पूर्ति करनेका काम भगवान्का है। यह विश्वास रखना चाहिये। विषयी, प्रमादी, नास्तिक, ठग इनका संग नहीं करना चाहिये, इससे तो मरना ही अच्छा है। प्रमादी और नास्तिकसे जितनी हानि है उतनी विषयी, भोगीसे नहीं है। भोगी राजसी हैं। आसुरीमें अधिकांश तमोगुणी हैं। साधक सात्विक पुरुष है उसका संग लाभदायक है, सिद्धकी तो बात ही क्या, साधक भी उसी तीर्थका यात्री है, उसके सङ्गसे लाभ है। प्रमादी, नास्तिक तो ठग हैं, वे तो वनमें लूट लेंगे।

पारसको हमने कभी नहीं देखा। पारसकी आकृति पत्थरकी-सी सुनी है। हमारे यहाँ ठीकरोंमें पड़ा है। कीमत जाननेवाले पुरुषोंने कहा इस पारसके रहते हुए क्यों दरिद्रता भोग रहे हो, यदि हमें विश्वास हो जाय और वह पारस हो तो दरिद्रता तो तुरन्त ही मिट गयी। हमलोग ऐसे ही दरिद्र हैं। महात्मा लोग पारसको जाननेवाले हैं बस बता दिया और हमें विश्वास हो गया तो दरिद्रता खतम। एक दरिद्र पारस पत्थर द्वारा चटनी पीसनेका काम लेता था। महात्माने कहा यह पारस है। वह बोला नहीं ऐसी बात नहीं है चाहे आप हजार आदमीसे पूछ लें। महात्मा बोला लाख कहें तो भी मैं नहीं मानता। लोहा छुआकर देखो, बस लोहा छूते ही दृष्टि बदल गयी। हमलोग भी कहनेसे मानते नहीं हैं कोई उपरोक्त तरहसे करे तब मानें। पांडेजी पहले पहल स्वर्गाश्रममें मुझसे मिलने आये थे। पहले उन्होंने मुझसे ही बातचीत की बादमें मालूम पड़ा कि ये ही जयदयालजी हैं तो स्थिति बदल गयी। भगवान्में और उनके भक्तों में श्रद्धा करने के लिये भजन और सत्संग ही करना चाहिये, उसी से उनका प्रभाव जाना जाता है। भजनसे अन्त:करण शुद्ध होनेसे और सत्संग द्वारा गुण, प्रभाव और प्रेमकी बातें सुननेसे श्रद्धा होती है। परमात्मामें श्रद्धाके लिये तथा भक्तों और महात्माओंमें श्रद्धा करनेके लिये महात्माओंके भक्तोंका सङ्ग करना चाहिये। उन्हींके द्वारा गुण, प्रभाव, रहस्य आदिकी बातें श्रवण करनी और कीर्तन-भजन करना चाहिये। सत्संग और भजन इन दो बातोंसे ही ईश्वरकी दयासे श्रद्धा और प्रेम होता है। श्रद्धा और प्रेमसे ही उनकी प्राप्ति होती है। सत्संग-भजनसे श्रद्धा और प्रेम होता है। जो कुछ भी भगवान्में प्रेम हो, थोड़ा बहुत जो देखनेमें आता है, वह इसीसे हुआ है। इसीको बढ़ाया जाय। प्रश्न-एकान्तमें भजन करना बड़ा है या सत्संग।

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    अनुक्रम

  1. सत्संग की अमूल्य बातें

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