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गीता प्रेस, गोरखपुर >> आध्यात्मिक प्रवचन

आध्यात्मिक प्रवचन

जयदयाल गोयन्दका

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :156
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1007
आईएसबीएन :81-293-0838-x

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इस पुस्तिका में संग्रहीत स्वामीजी महाराज के प्रवचन आध्यात्म,भक्ति एवं सेवा-मार्ग के लिए दशा-निर्देशन और पाथेय का काम करेंगे।



रागद्वेषवियुतैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।
आत्मवशयैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति॥
प्रसादे सर्वदु:खानां हानिरस्योपजायते।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते॥
(गीता २। ६४-६५)

अपने अधीन किये हुए अन्त:करणवाला साधक अपने वशमें की हुई राग-द्वेषसे रहित इन्द्रियोंद्वारा विषयोंमें विचरण करता हुआ अन्त:करणकी प्रसन्नताको प्राप्त होता है। अन्त:करणकी प्रसन्नता होनेपर इसके सम्पूर्ण दु:खोंका अभाव हो जाता है और उस प्रसन्न चित्तवाले कर्मयोगीकी बुद्धि शीघ्र ही सब ओरसे हटकर एक परमात्मामें ही भलीभाँति स्थिर हो जाती है।

सारे दु:खोंका नाश हो जाता है। बुद्धि परमात्माके स्वरूपमें स्थिर हो जाती है। परमशान्ति मिल जाती है। सच्चा वैराग्य हो जानेपर परमात्माकी प्राप्तिमें विलम्ब नहीं होता। यह आसक्ति मन, बुद्धि विषयोंसे हटकर परमात्मामें हो जाय तो परमात्माकी प्राप्ति हो जाय। भगवान् अनन्य प्रेम चाहते हैं, हमारा प्रेम संसारमें बँटा है। जबतक संसारका रस आता है तबतक भगवान्में असली प्रेम कैसे हो सकता है। संसारमें रस आनेसे सीढ़ी-दर-सीढ़ी गिरता-गिरता धमसे रसातलमें चला जाता है।

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    अनुक्रम

  1. सत्संग की अमूल्य बातें

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