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गीता प्रेस, गोरखपुर >> आध्यात्मिक प्रवचन

आध्यात्मिक प्रवचन

जयदयाल गोयन्दका

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :156
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1007
आईएसबीएन :81-293-0838-x

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इस पुस्तिका में संग्रहीत स्वामीजी महाराज के प्रवचन आध्यात्म,भक्ति एवं सेवा-मार्ग के लिए दशा-निर्देशन और पाथेय का काम करेंगे।



प्रश्न-भीष्म और बुद्धके त्यागका तारतम्य बतायें।
उत्तर-आपका प्रश्न गम्भीर है। मैं उत्तर देनेमें असमर्थ हूँ। भगवान् ही जानते हैं। मैं दोनोंमें किसी प्रकारका त्यागी नहीं हूँ। त्यागी ही बता सकते हैं। भीष्मने ग्रहण ही नहीं किया, आजीवन ब्रह्मचर्यका पालन किया। बुद्धने ग्रहण करके त्याग दिया। शास्त्रमें दोनोंकी ही महिमा है। परन्तु जब दोनोंका मुकाबला करके उत्तर देना है तो भीष्मका त्याग ही अधिक श्रेष्ठ है। नैष्ठिक ब्रह्मचर्यक्री बड़ी भारी महिमा है। भीष्मने महान् कार्य किया, इसलिये देवताओंने उनको देवव्रतसे भीष्म बना दिया।

भगवान् अधिकारीको ही प्राप्त होते हैं, परन्तु एक ऐसा नियम है कि जो वास्तव में अपनेको हृदयसे अनधिकारी, अयोग्य मानता है तो इस यथार्थ मान्यताका फल भी भगवत्प्राप्ति है, सत्यका फल भगवत्प्राप्ति है। भगवान् उससे छिप नहीं सकते, परन्तु कहता रहे और माने नहीं तो भगवान् कहते हैं कि कपटी है। निष्कपटभाव हृदयकी सच्चाई भगवान्को मिला देती है। ऐसा नहीं होना चाहिये कि मुखसे तो अयोग्य, नीच, अनधिकारी कहता है, परन्तु व्यवहारमें अपनेको बड़ा मानता है। यह तो केवल कहनामात्र हुआ। जो वास्तव में अपनेको वैसा समझता है, वह तो बर्ताव भी वैसा ही करता है। यह अनन्यभक्ति है। कहना सहज है पर बनना कठिन है। दूसरे उसकी प्रशंसा करते हैं तो वह रो देता है, समझता है बेचारे भूलसे कह रहे हैं। हमलोग अपनी अयोग्यताको हृदयसे स्वीकार कर लें तो अयोग्य होते हुए भी योग्य बन जाते हैं। स्वीकार करनेपर यदि भविष्यमें अपराध न करनेकी बात कही जाय तो सरकार भी छोड़ देती है। भगवान् तो निष्कपटभाव, सरलता, सत्यताको देखते हैं। जब वास्तव में सत्यता, न्याय आ गया तो परमात्मा मिल जाते हैं, सत्यता भगवान्का स्वरूप है। हमलोगोंके हृदयमें एक बात और बाहरमें दूसरी बात है, इसीलिये विलम्ब हो रहा है।

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    अनुक्रम

  1. सत्संग की अमूल्य बातें

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