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गीता प्रेस, गोरखपुर >> आध्यात्मिक प्रवचन

आध्यात्मिक प्रवचन

जयदयाल गोयन्दका

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :156
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1007
आईएसबीएन :81-293-0838-x

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इस पुस्तिका में संग्रहीत स्वामीजी महाराज के प्रवचन आध्यात्म,भक्ति एवं सेवा-मार्ग के लिए दशा-निर्देशन और पाथेय का काम करेंगे।



सो अनन्य जाकें असि मति न टरइ हनुमन्त।
में सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवंत।।

आगे जाकर सेवकका अहंकार नाश होता है। कहता है मैं तो कुछ भी नहीं हूँ और आगे जाकर यह भी नाश हो जाता है।
ज्ञानीके लिये भगवान् बताते हैं-
नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति।
गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति।।
(अध्याय १४।१९)

जिस समय दृष्टा तीनों गुणों के अतिरिक्त अन्य किसी को कर्त्ता नहीं देखता और तीनों गुणोंसे अत्यन्त परे सच्चिदानन्दघनस्वरूप मुझ परमात्माको तत्वसे जानता है, उस समय वह मेरे स्वरूपको प्राप्त होता है।

सब गुणोंका ही कार्य है उसका मान-अपमानसे कोई सम्बन्ध ही नहीं है। न तो वर्तमानमें मान-बड़ाई चाहता है, न मरनेके बाद ही चाहता है। बिना चाहे मान आदि प्राप्त होनेपर भी यदि मनमें प्रसन्नता होती है तो समझना चाहिये कि अभी भगवान्की प्राप्तिसे दूर है। वास्तवमें यह अवस्था स्वसंवेद्य है। दूसरा अनुमान करता है वह गलत भी हो सकता है।

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    अनुक्रम

  1. सत्संग की अमूल्य बातें

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