गीता प्रेस, गोरखपुर >> आध्यात्मिक प्रवचन आध्यात्मिक प्रवचनजयदयाल गोयन्दका
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इस पुस्तिका में संग्रहीत स्वामीजी महाराज के प्रवचन आध्यात्म,भक्ति एवं सेवा-मार्ग के लिए दशा-निर्देशन और पाथेय का काम करेंगे।
जितना-जितना वह आगे बढ़ता है, लोकदृष्टिमें उसे मान-बड़ाई-प्रतिष्ठा अधिक
मिलती है। उस समय उस दोषका पता लगता है। पहले तो वह दोष ढका हुआ था, ये चीजें
प्राप्त नहीं थीं। पहले यह दोष अन्य दोषोंके साथ ढका था। जैसे ग्वारका पौधा
चारों तरफ घाससे ढका हो, परन्तु जब घास अलग कर ली जाती है, तब वह पौधा सबको
दीखता है। लोग कहते हैं और दोष तो नहीं है, मान-बड़ाईका दोष है। भगवान्के
मिलनेपर तो अहंकारका ही नाश हो जाता है, तब यह किसके आधारपर रहे।
किसी-किसीमें अहंकार रहते हुए भी मान-बड़ाईके दोषका नाश हो जाता है। अधिक
विनययुक्त आदमी मान-बड़ाईको इतना बुरा समझने लगता है कि मिलनेपर रोने लग जाता
है। मान-बड़ाई तो नहीं चाहता पर अहंकार रहता है। मान-बड़ाई-प्रतिष्ठामें
जितना सुख मनुष्यको मालूम देता है, उतना खाने-पीने किसी चीजमें नहीं मालूम
देता। मान-बड़ाई चाहनेकी श्रेणियाँ बतायी जाती हैं-
(१) पहले वह दूसरोंसे मान-बड़ाई करवाता है, स्वयं अपनी प्रशंसा करता है।
निन्दनीय कार्योंसे निन्दाके भयसे बचता है, पापके भयसे नहीं।
(२) चेष्टा करके तो नहीं कहलाता, स्वयं नहीं कहता, परन्तु मनमें चाहता है कि
दूसरा करे।
(३) मनमें यह तो नहीं चाहता कि दूसरे करें, पर कोई कर देता है तो अच्छा मालूम
देता है। विचारके द्वारा तो अच्छा नहीं समझता, पर प्राप्त होनेपर प्रसन्नता
होती है।
(४) प्राप्त होनेपर संकोच होता है। यह चाहता है कि न हो तो अच्छा है लज्जा
होती है।
(५) प्राप्त होनेपर दु:ख होने लगता है। एकदम उलटा भाव हो जाता है। वह
निन्दाका कार्य नहीं करता, परन्तु निन्दाका कार्य न होनेपर भी उसकी निन्दा
होनेपर उसे बड़ी प्रसन्नता होती है। जैसे-कोई साधक अपना साधन बनाये रखनेके
लिये छिपाना चाहता है, अपनेको छिपाकर विचरता है, लोगोंद्वारा दुत्कारमें उसे
विशेष प्रसन्नता होती है। उपरामता, वैराग्य, बेपरवाही जिस साधुमें अधिक होती
है, वह सच्चा साधु है। मान-बड़ाई-प्रतिष्ठासे वह दूर भागता है। पहली श्रेणीसे
बिलकुल उलटी बात है। यह दोष दूर होनेपर भगवान्की प्राप्ति हो ही जाती है।
पहले भी हो सकती है। यह दोष रहते हुए भी जब कभी प्रेमका भाव जाग्रत् हो जाता
है, तब भगवान् प्रकट हो सकते हैं। अपने धनको गुप्त रखना हो तो मोहरोंपर
घास-फूस-कूड़ा डालकर उसे ढक दो, यह चोर डाकुओंसे बचनेका रास्ता है। जल्दी
आत्माका कल्याण चाहनेवालेके लिये यह सबसे बढ़िया उपाय है। अपमान-निन्दा-यह
कूड़ा कचरा है, अपने धनको बचानेवाला है, इसलिये इनको आदर देना चाहिये। यह
खयाल रखे कि सत्यका बचाव रहे, अनुचित चेष्टा न करे, अपमान अपने-आप आकर
प्राप्त हो जाय तो प्रसन्न रहे। सत्य है वही न्याय है, न्याय ही धर्म है,
धर्म ही परमात्मा है। सत्य परमात्माका स्वरूप है।
ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च।।
(गीता १४।२७)
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- सत्संग की अमूल्य बातें