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गीता प्रेस, गोरखपुर >> आध्यात्मिक प्रवचन

आध्यात्मिक प्रवचन

जयदयाल गोयन्दका

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :156
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1007
आईएसबीएन :81-293-0838-x

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इस पुस्तिका में संग्रहीत स्वामीजी महाराज के प्रवचन आध्यात्म,भक्ति एवं सेवा-मार्ग के लिए दशा-निर्देशन और पाथेय का काम करेंगे।


१३७. मेरे मनमें यह रहता है कि मैं सबको भगवान्की तरफ लगा दूँ। कम-से-कम मेरे सामने जो आये उनका तो यह भाव जरूर ही हो जाय, जैसे लड़ाईके बिगुलसे कायर भी जूझकर प्राणोंकी बाजी लगा देते हैं।
१३८. मेरे मनमें यह बात उठती है कि लोगोंके ऐसा जोश उत्पन्न हो जाय, भगवत्प्रातिके लिये प्रेरणा करनेके साथ तैयार हो जायें, यदि आगमें पड़नेके लिये कहा जाय तो आगमें पड़नेके लिये तैयार हो जायँ। १३९. अपने लोगोंमें प्रेम कहाँ है। प्रेम होनेके बाद तो रोमांच और अश्रुपातकी धारा चल जाती है।
१४०. दूसरोंको लाभ पहुँचाना अपने आपको ही लाभ पहुँचाना है। जैसे-अपने हाथकी अंगुलियोंमें किसी अंगुलीके लाभ पहुँचानेसे अपने ही लाभ है। समझमें नहीं आये तो भी उस एक अंशमें आपको लाभ
होता ही है। किसी एक अंशमें कहनेका तो यह तात्पर्य है कि वास्तव में तो भगवान्के सिवाय दूसरा कोई है ही नहीं। तब किसके फायदा किसके नुकसान हुआ। व्यवहारकी दृष्टिमें भी दूसरोंको फायदा होता है वह हमें ही होता है। यदि यह बात समझमें न आये तो निष्कामभावसे दूसरोंको लाभ पहुँचाना हमें भगवत्प्रातिके नजदीक पहुँचानेवाला है। यदि यह भावना हो जाये कि सबको लाभ पहुँचानेसे अपना ही लाभ है तो सबके ज्ञान होनेसे ही ज्ञान होगा उसकी दृष्टिमें तो किसीके अज्ञान रहता नहीं, मूर्खोंकी दृष्टिमें रहे तो उसके कोई हानि नहीं।
१४१. यदि कोई किसीको आजीविका करा दे तो मुझे इतना आनन्द होता है जैसे मेरे भाईको काम पर लगा दिया। मेरे भतीजा होनेकी खबर सुनकर इतनी प्रसन्नता नहीं होती जितनी इससे होती है।

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    अनुक्रम

  1. सत्संग की अमूल्य बातें

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