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गीता प्रेस, गोरखपुर >> आध्यात्मिक प्रवचन

आध्यात्मिक प्रवचन

जयदयाल गोयन्दका

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :156
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1007
आईएसबीएन :81-293-0838-x

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इस पुस्तिका में संग्रहीत स्वामीजी महाराज के प्रवचन आध्यात्म,भक्ति एवं सेवा-मार्ग के लिए दशा-निर्देशन और पाथेय का काम करेंगे।


१२१. श्रीमंगलनाथजी महाराजने गोरखपुरमें कहा था निष्कपट,
निरभिमान, नि:स्वार्थभावसे श्रीभगवान्का भजन-ध्यान करनेसे बहुत जल्दी लाभ हो सकता है।
१२२. मान, बड़ाईसे बहुत बचना चाहिये। मानसे भी बड़ाई बहुत सूक्ष्म है, इसका बहुत खयाल रखना चाहिये।
१२३. आश्रय, प्रेरणा, आज्ञा, शिक्षा, अनुशासन, उपदेश, इनमें भाव ही प्रधान है, यदि भाव हो तो आश्रय ही पर्यात है।
१२४. विश्वासी और मेहनती होना चाहिये। इस तरह होनेसे सांसारिक काममें जैसे बहुत लाभ होता है, उसी तरह पारमार्थिक काममें भी बहुत लाभ होता है।
१२५. खूब उत्कण्ठा रखते हुए ही सत्संगका त्याग यानी स्वयं न जाकर दूसरोंको सत्संगमें लगानेकी चेष्टा उत्तम है। जैसे रुपयोंका लोभी आदमी रुपयोंमें उत्कण्ठा रहते हुए भी पात्र प्राप्त होनेपर दान देता है।
१२६. मनमें खूब जोश रखना चाहिये कि एक भी अवगुण क्यों रहे, दैवी सम्पदाके सब-के-सब २६ गुण हमारे आचरणमें आने चाहिये। श्रीभगवान्का निष्काम प्रेमभावसे निरन्तर ध्यानसहित जप होनेसे स्वत: ही दैवी सम्पतिकी प्राप्ति हो जाती है।
१२७. यदि आवश्यक कार्यवश सत्संगमें जाना न हो सके तो उत्कट इच्छा रखते हुए सत्संग के त्याग में त्याग में हर्ज नहीं है, जैसे कुन्ती देवीने ब्राह्मण परिवारकी रक्षाके लिये भीमसेनको राक्षसके पास भेजा दिया। सत्संगमें दूसरोंको भेजकर स्वयं सत्संगकी टान छोड़ दे तथा साधन ढीला कर दे तो हानि है तथा दूसरेको जिसे भेजे उसे उतना फायदा नहीं समझो तो स्वयं जाना ही ठीक है।
१२८. अपनी बड़ाईसे बहुत डरते रहना चाहिये। अपनी बड़ाई करनेसे महाराज त्रिशंकुको स्वर्गसे गिर जाना पड़ा।

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    अनुक्रम

  1. सत्संग की अमूल्य बातें

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