| उपन्यास >> राग दरबारी राग दरबारीश्रीलाल शुक्ल
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    इसके बाद सरकारी नौकरों की बातचीत का वही अकेला मजमून खुल गया कि पहले के
    सरकारी नौकर कैसे होते थे और आज के कैसे हैं। वख्तावरसिंह की बात छिड़ गई।
    दारोगा वख्तावरसिंह एक दिन शाम के वक्त अकेले लौट रहे थे। उन्हें झगरू और मँगरू
    नाम के दो बदमाशों ने बाग में घेरकर पीट दिया। बात फैल गई, इसलिए उन्होंने थाने
    पर अपने पीटे जाने की रिपोर्ट दर्ज करा दी।
    
    दूसरे दिन दोनों बदमाशों ने जाकर उनके पैर पकड़ लिये। कहा, “हुजूर माई-बाप हैं।
    गुस्से में औलाद माँ-बाप से नालायक़ी कर बैठे तो माफ़ किया जाता है।"
    
    बख्तावरसिंह ने माँ-बाप का कर्तव्य पूरा करके उन्हें माफ़ कर दिया। उन्होंने
    औलाद का कर्त्तव्य पूरा करके वख्तावरसिंह के बुढ़ाप के लिए अच्छा-खासा इन्तजाम
    कर दिया। बात आई-गई हो गई।
    
    पर कप्तान ने इस पर एतराज किया कि, “टुम अपने ही मुकद्दमे की जाँच कामयावी से
    नहीं करा सका टो डूसरे को कैसे बचायेगा ? अँढेरा ठा टो क्या हुआ ? टुम किसी को
    पहचान नहीं पाया, टो टुमको किसी पर शक करने से कौन रोकने सकटा !"
    
    तब बख्तावरसिंह ने तीन आदमियों पर शक किया। उन तीनों की झगरू और मँगरू से
    पुश्तैनी दुश्मनी थी। उन पर मुक़दमा चला। झगरू और मँगरू ने बख्तावरसिंह की ओर
    से गवाही दी, क्योंकि मारपीट के वक्त वे दोनों बाग में एक बड़े ही स्वाभाविक
    कारण से, यानी पाखाने की नीयत से, आ गए थे। तीनों को सजा हुई। झगरू-मँगरू के
    दुश्मनों का यह हाल देखकर इलाके की कई औलादें बख्तावरसिंह के पास आकर रोज
    प्रार्थना करने लगीं कि माई-बाप, इस बार हमें भी पीटने का मौक़ा दिया जाए। पर
    बुढ़ापे का निबाह करने के लिए झगरू और मँगरू काफ़ी थे। उन्होंने औलादें बढ़ाने
    से इन्कार कर दिया।
    
    रुप्पन बाबू काफ़ी देर हसते रहे। दारोगाजी खुश होते रहे कि रुप्पन बाबू एक
    क़िस्से में ही खुश होकर हँसने लगे हैं, दूसरे की जरूरत नहीं पड़ी। दूसरा
    क़िस्सा किसी दूसरे लीडर को हँसाने के काम आएगा। हँसना बन्द करके रुप्पन बाबू
    ने कहा, "तो आप उन्हीं बख्तावरसिंह के चेले हैं।"
    
    "था। आजादी मिलने के पहले था। पर अब तो हमें जनता की सेवा करनी है। गरीबों का
    दुख-दर्द बँटाना है। नागरिकों के लिए...।"
    
    रुप्पन बाबू उनकी बाँह छूकर वोले, “छोड़िए, यहाँ मुझे और आपको छोड़कर तीसरा कोई
    भी सुननेवाला नहीं है।"
    
    पर वे ठण्डे नहीं पड़े। कहने लगे, “मैं तो यही कहने जा रहा था कि मैं आजादी
    मिलने के पहले बख्तावरसिंह का चेला था, अब इस जमाने में आपके पिताजी का चेला
    हूँ।"
    
    रुप्पन बाबू विनम्रता से बोले, “यह तो आपकी कृपा है, वरना मेरे पिताजी किस लायक
    हैं ?"
    
    वे उठ खड़े हुए। सड़क की ओर देखते हुए, उन्होंने कहा, “लगता है, रामाधीन आ रहा
    है। मैं जाता हूँ। इस डकैतीवाली चिट्ठी को जरा ठीक से देख लीजिएगा।"
    
    रुप्पन बाबू अठारह साल के थे। वे स्थानीय कॉलिज की दसवीं कक्षा में पढ़ते थे।
    पढ़ने से, और खासतौर से दसवीं कक्षा में पढ़ने से, उन्हें बहुत प्रेम था; इसलिए
    वे उसमें पिछले तीन साल से पढ़ रहे थे।
    
    रुप्पन बाबू स्थानीय नेता थे। उनका व्यक्तित्व इस आरोप को काट देता था कि
    इण्डिया में नेता होने के लिए पहले धूप में बाल सफ़ेद करने पड़ते हैं। उनके
    नेता होने का सबसे बड़ा आधार यह था कि वे सबको एक निगाह से देखते थे। थाने में
    दारोगा और हवालात में बैठा हुआ चोर-दोनों उनकी निगाह में एक थे। उसी तरह
    इम्तहान में नक़ल करनेवाला विद्यार्थी और कॉलिज के प्रिंसिपल उनकी निगाह में एक
    थे। वे सबको दयनीय समझते थे, सबका काम करते थे, सबसे काम लेते थे। उनकी इज्जत
    थी कि पूँजीवाद के प्रतीक दुकानदार उनके हाथ सामान बेचते नहीं, अर्पित करते थे
    और शोषण के प्रतीक इक्केवाले उन्हें शहर तक पहँचाकर किराया नहीं, आशीर्वाद
    माँगते थे। उनकी नेतागिरी का प्रारम्भिक और अन्तिम क्षेत्र वहाँ का कॉलिज था,
    जहाँ उनका इशारा पाकर सैकड़ों विद्यार्थी तिल का ताड़ बना सकते थे और जरूरत
    पड़े तो उस पर चढ़ भी सकते थे।
    
    वे दुबले-पतले थे, पर लोग उनके मुँह नहीं लगते थे। वे लम्बी गरदन, लम्बे हाथ और
    लम्बे पैरवाले आदमी थे। जननायकों के लिए ऊल-जलूल और नये ढंग की पोशाक अनिवार्य
    समझकर वे सफेद धोती और रंगीन बुश्शर्ट पहनते थे और गले में रेशम का वे रूमाल
    लपेटते थे। धोती का कोंछ उनके कन्धे पर पड़ा रहता था। वैसे देखने में उनकी शक्ल
    एक घबराए हुए मरियल बछड़े की-सी थी, पर उनका रोब पिछले पैरों पर खड़े हुए एक
    हिनहिनाते घोड़े का-सा जान पड़ता था।
    
    वे पैदायशी नेता थे क्योंकि उनके बाप भी नेता थे। उनके बाप का नाम वैद्यजी था।
    			
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