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उपन्यास >> राग दरबारी

राग दरबारी

श्रीलाल शुक्ल

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :335
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9648
आईएसबीएन :9788126713967

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सुना ?"

गाँव के बाहर बद्री पहलवान का किसी ने रिक्शा रोका। कुछ अँधेरा हो गया था और रोकनेवाले का चेहरा दूर से साफ़ नहीं दिख रहा था । बद्री पहलवान ने कहा, “कौन है बे ?" “अबे-तवे न करो पहलवान ! मैं रामाधीन हूँ।” कहता हुआ एक आदमी रिक्शे के पास आकर खड़ा हो गया। रिक्शेवाले ने एकदम से वीच सड़क पर रिक्शा रोक दिया। आदमी धोती-कुरता पहने था। पर धुंधलके में दूसरे आदमियों के मुक़ाबले उसे पहचानना हो तो धोती-कुरते से नहीं, उसके घुटे हुए सिर से पहचाना जाता। रिक्शे का हैंडिल पकड़कर वह बोला, “मेरे घर में डाका पड़ने जा रहा है, पहलवान ने रिक्शेवाले की पीठ में एक उँगली कोंचकर उसे आगे बढ़ने का इशारा किया और कहा, "तो अभी से क्यों टिलौं-टिलों लगाए हो ? जब डाका पड़ने लगे तब मुझे बुला लेना।"

रिक्शेवाले ने पैडिल पर जोर दिया, पर रामाधीन ने उसका हैंडिल इस तरह पकड़ रखा था कि उनके इस जोर ने उस जोर को काट दिया। रिक्शा अपनी जगह रहा। बद्री पहलवान ने भुनभुनाकर कहा, “मैं सोच रहा था कि कौन आफ़त आ गई जो सड़क पर रिक्शा पकड़कर राँड की तरह रोने लगे।"

रामाधीन बोले, “रो नहीं रहा हूँ। शिकायत कर रहा हूँ। वैद्यजी के घर में तुम्हीं एक आदमी हो, वाकी तो सब पन्साखा हैं। इसीलिए तुमसे कह रहा हूँ। एक चिट्ठी आयी है, जिसमें डकैतों ने मुझसे पाँच हजार रुपया माँगा है। कहा है कि अमावस की रात को दक्खिनवाले टीले पर दे जाओ..."

बद्री पहलवान ने अपनी जाँघ पर हाथ मारकर कहा, "मन हो तो दे आओ, म मन हो तो एक कौड़ी भी देने की जरूरत नहीं। इससे ज्यादा क्या कहें ! चलो रिक्शेवाले !" घर नजदीक है, बाहर पिसी हुई भंग तैयार होगी, पीकर, नहा-धोकर, कमर पर बढ़िया लँगोट कसकर, ऊपर से एक कुरता झाड़कर, बैठक में हुमसकर बैठा जाएगा।

लोग पूछेगे, पहलवान, क्या कर आए ? वे आँखें बन्द करके दूसरों के सवाल सुनेंगे, दूसरों को ही जवाब देने देंगे। देह की ताक़त और भंग के घुमाव में सारे संसार की आवाजें मच्छरों की भन्नाहट-सी जान पड़ेंगी।

सपनों में डूबते-उतराते हुए बद्री को इस वक़्त सड़क पर रोका जाना बहुत खला।
उन्होंने रिक्शेवाले को डपटकर दोबारा कहा, “तुमसे कह रहा हूँ, चलो।"

पर वह चलता कैसे ? रामाधीन का हाथ अब भी रिक्शे के हैंडिल पर था। उन्होंने कहा, “रुपये की बात नहीं। मुझसे कोई क्या खाकर रुपया लेगा ? मैं तो तुमसे बस इतना कहना चाहता था कि रुप्पन को हटक दो। अपने को कुछ ज्यादा समझने लगे हैं। नीचे-नीचे चलें, आसमान की...।"

बद्री पहलवान अपनी जाँघों पर जोर लगाकर रिक्शे से नीचे उतर पड़े। रामाधीन को पकड़कर रिक्शेवाले से कुछ दूर ले गए और बोले, “क्यों अपनी जवानी खराब करने जा रहे हो ? क्या किया रुप्पन ने ?"

रामाधीन ने कहा, “मेरे घर यह डाकेवाली चिट्ठी रुप्पन ने ही भिजवायी है। मेरे पास इसका सबूत है।"

पहलवान भुनभुनाए, “दो-चार दिन के लिए बाहर निकलना मुश्किल है। उधर में गया, इधर यह चोंचला खड़ा हो गया।' कुछ सोचकर वोले, "तुम्हारे पास सबूत है तो फिर घबराने की क्या बात ?' रामाधीन को अभय-दान देते हुए उन्होंने जोर से कहा, “तो फिर तुम्हारे यहाँ डाका-वाका न पड़ेगा। जाओ, चैन से सोओ। रुप्पन डाका नहीं डालते, लौण्डे हैं, मसखरी की होगी।"

रामाधीन कुछ तीखेपन से वोले, “सो तो में भी जानता हूँ-रुप्पन ने मसखरी की है। पर यह मसखरी भी कोई मसखरी है।"

बद्री पहलवान ने सहमति प्रकट की। कहा, “तुम ठीक कहते हो। टुकाची ढंग की मसखरी है।"

सड़क पर एक ट्रक तेजी से आ रहा था। उसकी रोशनी में आँख झिलमिलाते हुए
बद्री ने रिक्शेवाले से कहा, "रिक्शा किनारे करो। सड़क तुम्हारे बाप की नहीं है।"
रामाधीन बद्री के स्वभाव को जानते थे। इस तरह की बात सुनकर बोले, "नाराज होने की बात नहीं है पहलवान ! पर सोचो, यह भी कोई बात हुई !"

वे रिक्शे की तरफ़ बढ़ आए थे। वैठते हुए बोले, “जब डाका ही नहीं पड़ना है तो क्या बहस ! चलो रिक्शेवाले !" चलते-चलते उन्होंने कहा, “रुप्पन को समझा दूंगा। यह बात ठीक नहीं है।"

रामाधीन ने पीछे से आवाज ऊँची करके कहा, “उसने मेरे यहाँ डाका पड़ने की चिट्ठी भेजी है। इस पर उसे सिर्फ समझाओगे ? यह समझाने की नहीं, जुतिआने की बात है।"

रिक्शा चल दिया था। पहलवान ने बिना सिर घुमाए जवाब दिया, “बहुत बुरा लगा हो तो तुम भी मेरे यहाँ वैसी ही चिट्ठी भिजवा देना !"

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