उपन्यास >> राग दरबारी राग दरबारीश्रीलाल शुक्ल
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आखिर में रंगनाथ को अफ़सर की मिमियाती आवाज सुन पड़ी, “क्यों मियाँ अशफ़ाक,
क्या राय है ? माफ़ किया जाए ?"
चपरासी ने कहा, “और कर ही क्या सकते हैं हुजूर ? कहाँ तक चालान कीजिएगा। एकाध
गड़बड़ी हो तो चालान भी करें।"
एक सिपाही ने कहा, “चार्ज-शीट भरते-भरते सुवह हो जाएगी।"
इधर-उधर की बातों के बाद अफ़सर ने कहा, “अच्छा जाओ जी बण्टासिंह, तुम्हें माफ़
किया।"
ड्राइवर ने खुशामद के साथ कहा, “ऐसा काम शिरिमानजी ही कर सकते हैं।"
अफ़सर काफ़ी देर से दूसरे पेड़ के नीचे खड़े हुए रंगनाथ की ओर देख रहा था।
सिगरेट सुलगाता हुआ वह उसकी ओर आया। पास आकर पूछा, “आप भी इसी ट्रक पर जा रहे
हैं ?"
“जी हाँ।"
“आपसे इसने कुछ किराया तो नहीं लिया है ?"
“जी, नहीं।"
अफ़सर बोला, "वह तो मैं आपकी पोशाक ही देखकर समझ गया था, पर जाँच करना मेरा
फ़र्ज था।"
रंगनाथ ने उसे चिढ़ाने के लिए कहा, “यह असली खादी थोड़े ही है। यह मिल की खादी
है।"
उसने इज्जत के साथ कहा, “अरे साहब, खादी तो खादी ! उसमें असली-नकली का क्या
फ़र्क ?"
अफ़सर के चले जाने के वाद ड्राइवर और चपरासी रंगनाथ के पास आए। ड्राइवर ने कहा,
“जरा दो रुपये तो निकालना जी !"
उसने मुँह फेरकर कड़ाई से जवाब दिया, “क्या मतलब है ? मैं रुपया क्यों दूँ ?"
ड्राइवर ने चपरासी का हाथ पकड़कर कहा, “आइए शिरिमानजी, मेरे साथ आइए।"
जाते-जाते वह रंगनाथ से कहने लगा, “तुम्हारी ही वजह से मेरी चेकिंग हुई और
तुम्हीं मुसीबत में मुझसे इस तरह बात करते हो ? तुम्हारी यही तालीम है ?"
वर्तमान शिक्षा-पद्धति रास्ते में पड़ी हुई कुतिया है, जिसे कोई भी लात मार
सकता है। ड्राइवर भी उस पर रास्ता चलते-चलते एक जुम्ला मारकर चपरासी के साथ
ट्रक की ओर चल दिया। रंगनाथ ने देखा, शाम घिर रही है, उसका अटैची ट्रक में रखा
है, शिवपालगंज अभी पाँच मील दूर है और उसे लोगों की सद्भावना की जरूरत है। वह
धीरे-धीरे ट्रक की ओर आया। उधर स्टेशन-वैगन का ड्राइवर हॉर्न वजा-बजाकर चपरासी
को वापस बुला रहा था। रंगनाथ ने दो रुपये ड्राइवर को देने चाहे। उसने कहा, “अब
दे ही रहे हो तो अरदली साहब को दो। मैं तुम्हारे रुपयों का क्या करूँगा ?"
कहते-कहते उसकी आवाज में उन संन्यासियों की खनक आ गई जो पैसा हाथ से नहीं छूते,
सिर्फ दूसरों को यह बताते हैं कि तुम्हारा पैसा हाथ का मैल है। चपरासी रुपयों
को जेब में रखकर, वीड़ी का आखिरी कश खींचकर, उसका अधजला टुकड़ा लगभग रंगनाथ के
पैजामे पर फेंककर स्टेशन-वैगन की ओर चला गया। उसके रवाना हो जाने पर ड्राइवर ने
भी ट्रक चलाया और पहले की तरह गियर को 'टॉप' में लेकर रंगनाथ को पकड़ा दिया।
फिर अचानक, बिना किसी वजह के, वह मुँह को गोल-गोल बनाकर सीटी पर सिनेमा की एक
धुन निकालने लगा। रंगनाथ चुपचाप सुनता रहा।
थोड़ी देर में ही धुंधलके में सड़क की पटरी पर दोनों ओर कुछ गठरियाँ-सी रखी हुई
नजर आईं। ये औरतें थीं, जो कतार बाँधकर बैठी हुई थीं। वे इत्मीनान से बातचीत
करती हुई वायु-सेवन कर रही थीं और लगे-हाथ मल-मूत्र का विसर्जन भी। सड़क के
नीचे घूरे पटे पड़े थे और उनकी बदबू के बोझ से शाम की हवा किसी गर्भवती की तरह
अलसायी हुई-सी चल रही थी। कुछ दूरी पर कुत्तों के भूँकने की आवाजें हुईं। आँखों
के आगे धुएँ के जाले उड़ते हुए नजर आए। इससे इन्कार नहीं हो सकता था कि वे किसी
गाँव के पास आ गए थे। यही शिवपालगंज था।
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