उपन्यास >> राग दरबारी राग दरबारीश्रीलाल शुक्ल
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लड़का वैसे ही खड़ा रहा। कुछ दिन पहले इस देश में यह शोर मचा था कि अपढ़ आदमी
बिना सींग-पूँछ का जानवर होता है। उस हल्ले में अपढ़ आदमियों के बहुत-से लड़कों
ने देहात में हल और कुदालें छोड़ दी और स्कूलों पर हमला बोल दिया। हजारों की
तादाद में आए हुए ये लड़के स्कूलों, कॉलिजों, यूनिवर्सिटियों को बुरी तरह से
घेरे हुए थे। शिक्षा के मैदान में भम्भड़ मचा हुआ था। अब कोई यह प्रचार करता
हुआ नहीं दीख पड़ता था कि अपढ़ आदमी जानवर की तरह है। बल्कि दबी जबान से यह कहा
जाने लगा था कि ऊँची तालीम उन्हीं को लेनी चाहिए जो उसके लायक हों, इसके लिए
‘स्क्रीनिंग' होनी चाहिए। इस तरह से घुमा-फिराकर इन देहाती लड़कों को फिर से हल
की मूठ पकड़ाकर खेत में छोड़ देने की राय दी जा रही थी। पर हर साल फेल होकर,
दर्जे में सब तरह की डाँट-फटकार झेलकर और खेती की महिमा पर नेताओं के
निर्झरपंथी व्याख्यान सुनकर भी वे लड़के हल और कुदाल की दुनिया में वापस जाने
को तैयार न थे। वे कनखजूरे की तरह स्कूल से चिपके हुए थे और किसी भी कीमत पर
उससे चिपके रहना चाहते थे।
घोड़े के मुँहवाला यह लड़का भी इसी भीड़ का एक अंग था; दर्जे में उसे घुमा-
फिराकर रोज-रोज बताया जाता था कि जाओ बेटा, जाकर अपनी भैंस दुहो और बैलों की
पूँछ उमेठो; शेली और कीट्स तुम्हारे लिए नहीं हैं। पर बेटा अपने बाप से कई
शताब्दी आगे निकल चुका था और इन इशारों को समझने के लिए तैयार नहीं था। उसका
बाप आज भी अपने बैलों के लिए बारहवीं शताब्दी में प्रचलित गँडासे से चारा काटता
था। उस वक्त लड़का एक मटमैली किताब में अपना घोड़े-जैसा मुँह छिपाकर बीसवीं
शताब्दी के कलकत्ते की रंगीन रातों पर गौर करता रहता था। इस हालत में वह कोई
परिवर्तन झेलने को तैयार न था। इसलिए वह मेटाफ़र का मतलब नहीं बता सकता था और न
अपने मुँह की बनावट पर बहस करना चाहता था।
कॉलिज के हर औसत विद्यार्थी की तरह यह लड़का भी पोशाक के मामले में वेतकल्लुफ़
था। इस वक्त वह नंगे पाँव, एक ऐसे धारीदार कपड़े का मैला पायजामा पहने हुए खड़ा
था जिसे शहरवाले प्रायः स्लीपिंग सूट के लिए इस्तेमाल करते हैं। वह गहरे कत्थई
रंग की मोटी कमीज पहने था जिसके बटन टूटे थे। सिर पर रूखे और कड़े वाल थे।
चेहरा बिना धुला हुआ और आँखें गिचपिची थीं। देखते ही लगता था, वह किसी
प्रोपेगेंडा के चक्कर में फंसकर कॉलिज की ओर भाग आया है।
लड़के ने पिछले साल किसी सस्ती पत्रिका से एक प्रेम-कथा नकल करके अपने नाम से
कॉलिज की पत्रिका में छपा दी थी। खन्ना मास्टर उसकी इसी ख्याति पर कीचड़ उछाल
रहे थे। उन्होंने आवाज बदलकर कहा, “कहानीकारजी, कुछ बोलिए तो, मेटाफ़र क्या चीज
होती है ?'
लड़के ने अपनी जाँघे खुजलानी शुरू कर दी। मुँह को कई बार टेढ़ा-मेढ़ा करके वह
आखिर में बोला, “जैसे महादेवीजी की कविता में वेदना का मेटाफ़र आता है...।"
खन्ना मास्टर ने कड़ककर कहा, "शट-अप ! यह अंग्रेजी का क्लास है।" लड़के ने
जाँघे खुजलानी बन्द कर दीं।
वे खाकी पतलून और नीले रंग का बुश्शर्ट पहने थे और आँखों पर सिर्फ चुस्त दिखने
के लिए काला चश्मा लगाए थे। कुर्सी के पास से निकलकर वे मेज के आगे आ गए। अपने
कूल्हे का एक संक्षिप्त भाग उन्होंने मेज से टिका लिया। लड़के को वे कुछ और
कहने जा रहे थे, तभी उन्होंने क्लास के पिछले दरवाजे पर प्रिंसिपल साहब को
घूरते हुए पाया। उन्हें बरामदे में खड़े हुए क्लर्क का कन्धा-भर दीख पड़ा।
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