उपन्यास >> राग दरबारी राग दरबारीश्रीलाल शुक्ल
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रुप्पन बाबू ने कहा, “दादा, जमाना जोखिम का है। बाहर चोर लोग घूम रहे हैं,
इसीलिए पूछ रहा हूँ। परबाबा का नाम भूल गए हो तो न बताओ, पर गुस्सा दिखाने से
कोई फायदा नहीं। गुस्से का काम बुरा है।"
बद्री पहलवान की असलियत की परीक्षा ले चुकने और क्रोध की निस्सारता पर अपनी
राय देने के बाद रुप्पन बाबू ने दरवाजा खोला। बद्री पहलवान बिच्छू के डंक की
तरह तिलमिलाते अन्दर आए। रुप्पन बाबू ने पूछा, “क्या हुआ दादा? सभी चोर भाग
गए?"
बद्री पहलवान ने कोई जवाब नहीं दिया। चुपचाप जीना चढ़कर ऊपर आ गए। रुप्पन
बाबू नीचे ही अन्दर चले गए। ऊपर के कमरे में रंगनाथ और बद्री पहलवान जैसे ही
अपनी-अपनी चारपाइयों पर लेटे, तभी नीचे गली से किसी ने पुकारा, “वस्ताद,
नीचे. आओ। मामला बड़ा गिचपिच हो गया है।"
बद्री ने कमरे के दरवाजे से ही पुकारकर कहा, “क्या हुआ छोटे ? सोने दोगे कि
रात-भर यही जोते रहोगे ?"
छोटे ने वहीं से जवाब दिया, “वस्ताद, सोने-वोने की बात छोड़ो। अब तो रपट की
बात हो रही है। इधर तो साले गली-गली में 'चोर-चोर' करते रहे, उधर इसी
चिल्लपों में किसी ने हाथ मार दिया। गयादीन के यहाँ चोरी हो गई ! उतर जाओ।"
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