उपन्यास >> राग दरबारी राग दरबारीश्रीलाल शुक्ल
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रुप्पन बाबू जोर से ठठाकर हँसे । वोले, “दादा, ये गँजहा लोगों की बातें हैं,
मुश्किल से समझोगे। मैं तो, जो अखबार में छपनेवाला है, उसका हाल आपको बता रहा
हूँ।"
एक सीटी मकान के बिलकुल नीचे सड़क पर बजी। रुप्पन बोले, “तुमने मास्टर
मोतीराम को देखा है कि नहीं ? पुराने आदमी हैं। दारोगाजी उनकी बड़ी इज्जत
करते हैं। वे दारोगाजी की इज्जत करते हैं। दोनों की इज्जत प्रिंसिपल साहब
करते हैं। कोई साला काम तो करता नहीं है, सब एक-दूसरे की इज्जत करते हैं।
“यही मास्टर मोतीराम शहर के अखबार के संवाददाता हैं। उन्होंने चोरों को डाकू
भी न बताया तो मास्टर मोतीराम होने से फ़ायदा ही क्या ?"
रंगनाथ हँसने लगा। सीटियाँ और 'जागते रहो' की आवाजें दूर-दूर तक बिखरने लगीं।
इधर-उधर के मकानों पर लोगों ने दरवाजे खुलवाने के लिए चीखना-चिल्लाना शुरू कर
दिया। ‘दरवाजा खोल दो मुन्ना' से लेकर ‘मर गए ससुरे,' 'अरे हम पुकार रहे हैं,
तुम्हारे बाप' तक की शैलियाँ दरवाजा खुलवाने के लिए प्रयोग में आने लगीं।
वैद्यजी के मकान पर भी किसी ने सदर दरवाजे की साँकल खटखटायी। बाहर लेटनेवाला
एक हलवाहा जोर से खाँसा । साँकल दोबारा खटकी। रंगनाथ ने कहा, “बद्री दादा
होंगे। चलो, ताला खोल दें।
वे लोग नीचे आ गए। ताला खोलते-खोलते रुप्पन ने पूछा, बद्री ने दहाड़कर कहा,
“खोलते हो कि नहीं ? कौन-कौन लगाए हो ?'
रुप्पन ने ताला खोलना बन्द कर दिया। बोले, “क्या नाम है ?"
उधर से गला-फाड़ आवाज आयी, “रुप्पन, कहे देता हूँ, चुपचाप दरवाजा खोल दो.."
"कौन ? बद्री दादा ?"
"हाँ-हाँ, बद्री दादा ही बोल रहा हूँ। खोलो जल्दी।"
रुप्पन ने ढीले-ढाले हाथों से ताला खोलते हुए कहा, “बद्री दादा, अपने बाप का
नाम भी बता दो।"
बद्री दादा ने कोसते हुए वैद्यजी का नाम बताया। रुप्पन ने फिर पूछा, “दादा,
जरा अपने बाबा का भी नाम बताओ।"
उन्होंने उसी तरह कोसते हुए बाबा का नाम बताया। फिर पूछा गया, “परबाबा का नाम
?"
बद्री ने दरवाजे पर मुक्का मारा। कहा, “अच्छा न खोलो, जाते हैं।"
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