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उपन्यास >> राग दरबारी

राग दरबारी

श्रीलाल शुक्ल

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :335
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9648
आईएसबीएन :9788126713967

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कोई मकान के पिछवाड़े चिल्लाया, “मार डाला !"
और शोर। किसी ने चीखकर कहा, “अरे, नहीं छोटे ! यह तो भगौती है।"
"छोड़ो। इसे छोड़ो। उधर ! उधर ! चोर उधर गए हैं।"
कोई रो रहा था। किसी ने सान्त्वना दी, "अरे, क्यों राँड़-जैसा रो रहा है ? एक डण्डा पड़ गया, उसी से फाँय-फाँय कर रहा है।"
रोते-रोते उसने जवाब दिया, “हम भी कसर निकालेंगे। देख लेंगे।"
फिर कुहराम, “उधर ! उधर! जाने न पाए ! दे दायें से एक लाठी ! मार उछल के ! क्या साला बाप लगता है ?"
रंगनाथ को उत्साह और उत्सुकता के साथ-ही-साथ मजा भी आने लगा। यह भी कैसा नियम है ! यहाँ लाठी चलाते समय बाप ही को अपवाद-रूप में छोड़ दिया जाता है। धन्य है भारत, तेरी पितृ-भक्ति !

रुप्पन बाबू वोले, “भगौती और छोटे की चल रही थी। लगता है, इसी धमाचौकड़ी में छोटे ने कुछ कर दिया।"

रंगनाथ ने कहा, “यह तो बड़ी गड़बड़ बात है।"
रुप्पन बाबू उपेक्षा के साथ बोले, “गड़बड़ क्या है ? दाँव लग जाने की बात है।
छोटे देखने में भोंदू लगता है, पर बड़ा घाघ है।"
दोनों फिर चारों ओर की भगदड़ और शोर की ओर कान लगाए रहे। रंगनाथ ने कहा, “शायद चोर निकल गए।"
"वह तो यहाँ हमेशा ही होता है।"

रंगनाथ ने रुप्पन बाबू के ग्राम-प्रेम की चापलूसी करनी चाही। बोले, “शिवपालगंज में चोर आकर निकल जाएँ, यह तो सम्भव नहीं। बद्री दादा बाहर निकले हैं तो एक-दो पकड़े ही जाएँगे।"

किसी पुरानी पीढ़ी के नेता की तरह अतीत की ओर हसरत के साथ देखते हुए रुप्पन बाबू ने ठण्डी साँस भरी। कहने लगे, “नहीं रंगनाथ दादा, अब वह पहलेवाले दिन गए। वह ठाकुर दुरबीनसिंह का जमाना था। बड़े-बड़े चोर शिवपालगंज के नाम से थर्राते थे।"

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