उपन्यास >> राग दरबारी राग दरबारीश्रीलाल शुक्ल
|
221 पाठक हैं |
यह सही है कि वैद्यजी को छोड़कर कॉलिज के गुटबन्दों में अभी अनुभव की कमी थी।
उनमें परिपक्वता नहीं थी, पर प्रतिभा थी। उसका चमत्कार साल में एकाध बार जब
फूटता, तो उसकी लहर शहर तक पहुँचती। वहाँ कभी-कभी ऐसे दाँव भी चले जाते जो
बड़े-बड़े पैदायशी गुटबन्दों को भी हैरानी में डाल देते। पिछले साल रामाधीन
ने वैद्यजी पर एक ऐसा ही दाँव फेंका था। वह खाली गया, पर उसकी चर्चा दूर-दूर
तक हुई। अखबारों में जिक्र आ गया। उससे एक गुटबन्द इतना प्रभावित हुआ कि वह
शहर से कॉलिज तक सिर्फ दोनों गुटों की पीठ ठोंकने को दौड़ा चला आया। वह एक
सीनियर गुटबन्द था और अक्सर राजधानी में रहता था। पिछले चालीस साल से वह अपने
चौबीसों घण्टे केवल गुटवन्दी के नाम अर्पित किये हुए था। उसकी जिन्दगी ही
गुटबन्दी का चलता-फिरता छोत बन गई थी। वह अखिल भारतीय स्तर का आदमी था और
उसके वयान रोज अखवार में पहले पन्नों पर छपते थे, जिनमें देश-भक्ति और
गुटबन्दी का अनोखा संगम होता था। उसके एक बार कॉलिज में आ चुकने के बाद लोगों
को इत्मीनान हो गया था कि यहाँ अब कॉलिज भले ही खत्म हो जाय, गुटबन्दी खत्म
नहीं होगी। सवाल है : गुटबन्दी क्यों थी ?
यह पूछना वैसा ही है जैसे पानी क्यों बरसता है ? सत्य क्यों बोलना चाहिए ?
वस्तु क्या है और ईश्वर क्या है ? वास्तव में यह एक सामाजिक मनोवैज्ञानिक
यानी लगभग दार्शनिक सवाल है। इसका जवाब जानने के लिए दर्शन-शास्त्र जानने की
जरूरत है और दर्शन-शास्त्र जानने के लिए हिन्दी का कवि या कहानीकार होने की
जरूरत है।
सभी जानते हैं कि हमारे कवि और कहानीकार वास्तव में दार्शनिक हैं और कविता या
कथा-साहित्य तो वे सिर्फ़ यूँ ही लिखते हैं। किसी भी सुबुक-सुबुकवादी उपन्यास
में पढ़ा जा सकता है कि नायक ने नायिका के जलते हुए होंठों पर होंठ रखे और
कहा, "नहीं-नहीं निशी, मैं उसे नहीं स्वीकार कर सकता। वह मेरा सत्य नहीं है।
वह तुम्हारा अपना सत्य है।"
निशी का ब्लाउज जिस्म से चूकर जमीन पर गिर जाता है। वह अस्फुट स्वर में कहती
है, “निक्कू, क्या तुम्हारा सत्य मेरे सत्य से अलग है ?"
|