उपन्यास >> राग दरबारी राग दरबारीश्रीलाल शुक्ल
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वे अपने बाप के सामने प्रायः अदब से बोलते थे। यह बात भी उन्होंने इस तरह से
कही जैसे छोटे और उनके बीच की बात का यही निष्कर्ष था और उसे बताना उनका
कर्त्तव्य था।
वैद्यजी ने कहा, “चोरी ! डकैती ! सर्वत्र यही सुन पड़ता है। देश रसातल को जा
रहा है।"
बद्री पहलवान ने इसे अनसुना करके, जैसे कोई हेल्थ-इंस्पेक्टर हैजे से बचाव के
उपाय बता रहा हो, जनसाधारण से कहा, “पूरे गाँव में चोरी की चर्चा है। जागते
हुए सोना चाहिए।"
सनीचर ने उछलकर अपना आसन बदला और पूछा, , “जागते हुए कैसे सोया जाता है,
पहलवान ?”
बद्री ने सीधी आवाज में कहा, “टिपिर-टिपिर मत करो। मुझे आज मजाक अच्छा नहीं
लग रहा है।" चबूतरे पर जाकर अँधेरे में छोटे पहलवान के पास खड़े हो गए।
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छंगामल विद्यालय इंटर कॉलिज की स्थापना 'देश के नव-नागरिकों को महान्
आदर्शों की ओर प्रेरित करने एवं उन्हें उत्तम शिक्षा देकर राष्ट्र का उत्थान
करने हेतु' हुई थी। कॉलिज का चमकीले नारंगी कागज पर छपा हुआ 'संविधान एवं
नियमावली' पढ़कर यथार्थ की गन्दगी में लिपटा हुआ मन कुछ वैसा ही निर्मल और
पवित्र हो जाता था जैसे भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों का अध्याय पढ़कर ।
क्योंकि इस कॉलिज की स्थापना राष्ट्र के हित में हुई थी, इसलिए उसमें और कुछ
हो या नहीं, गुटबन्दी काफ़ी थी। वैसे गुटबन्दी जिस मात्रा में थी, उसे बहुत
बढ़िया नहीं कहा जा सकता था; पर जितने कम समय में वह विकसित हुई, उसे देखकर
लगता था, काफ़ी अच्छा काम हुआ है। वह दो-तीन साल ही में पड़ोस के कॉलिजों की
गुटबन्दी की अपेक्षा ज्यादा ठोस दिखने लगी थी। वल्कि कुछ मामलों में तो वह
अखिल भारतीय संस्थाओं तक का मुक़ाबला करने लगी थी।
प्रबन्ध-समिति में वैद्यजी का दवदबा था, पर रामाधीन भीखमखेड़वी अब तक उसमें
अपना गुट बना चुके थे। इसके लिए उन्हें बड़ी साधना करनी पड़ी। काफ़ी दिनों तक
वे अकेले ही अपने गुट बने रहे, बाद में एकाध मेम्वर भी उनकी ओर खिंचे। अब
वड़ी मेहनत के बाद कॉलिज के नौकरों में दो गुट बन पाए थे, पर उनमें अभी बहुत
काम होना था। प्रिंसिपल साहब तो वैद्यजी पर पूरी तरह आश्रित थे, पर खन्ना
मास्टर अभी उसी तरह रामाधीन के गुट पर आश्रित नहीं हो पाए थे। उन्हें खींचना
वाक़ी था। लड़कों में भी अभी दोनों गुटों की हमदर्दी के आधार पर अलग-अलग गुट
नहीं बने थे। उनमें आपसी गाली-गलौज और मारपीट होती तो थी, पर इन कार्यक्रमों
को अभी तक उचित दिशा नहीं मिल पाती थी। गुटबन्दी के उद्देश्य से न होकर ये
काम व्यक्तिगत कारणों से होते थे और इस तरह लड़कों की गुण्डागर्दी की शक्ति
व्यक्तिगत स्वार्थों पर नष्ट होती जाती थी, उसका उपयोग राष्ट्र के सामूहिक
हित में नहीं होता रहा था। गुटबन्दों को अभी इस दिशा में भी बहुत काम करना
था।
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