लोगों की राय

उपन्यास >> राग दरबारी

राग दरबारी

श्रीलाल शुक्ल

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :335
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9648
आईएसबीएन :9788126713967

Like this Hindi book 2 पाठकों को प्रिय

221 पाठक हैं


ठहाका सुनते ही सनीचर ने अधिकार-भरी आवाज में कहा, “यहाँ खड़े-खड़े क्या उखाड़ रहे हो ? जाओ, रास्ता नापो।"

नौजवान अपनी हँसी के पॉकेट बुक-संस्करण प्रकाशित करते हुए अपना रास्ता नापने लगे। तब तक अँधेरे से एक औरत छम-छम करती हुई निकली और लालटेन की धीमी रोशनी में लपलपाती हुई परछाईं छोड़ती दूसरी ओर निकल गई। वह बड़बड़ाती जा रही थी, जिसका तात्पर्य था कि कल के छोकरे जो उसके सामने नंगे-नंगे घूमा करते थे, आज उससे इश्कबाजी करने चले हैं। सारे मुहल्ले को यह समाचार देकर कि लड़के उसे छेड़ते हैं और वह अब भी छेड़ने लायक है, वह औरत वहीं अँधेरे में गायब हो गई। ।

सनीचर ने रंगनाथ से कहा, “न जाने वह काना इस कुतिया को कहाँ से घसीट लाया है ! जब निकलती है, तो कोई-न-कोई इसे छेड़ ही देता है।"

'काना' से पं. राधेलाल का अभिप्राय था। उनकी एक आँख दूसरी से छोटी थी और इसी से गँजहे उनको काना कहने लगे थे।

यह हमारी प्राचीन परम्परा है, वैसे तो हमारी हर बात प्राचीन परम्परा है, कि लोग बाहर जाते हैं और जरा-जरा-सी बात पर शादी कर बैठते हैं। अर्जुन के साथ चित्रांगदा आदि को लेकर यही हुआ था। यही भारतवर्ष के प्रवर्तक भरत के पिता दुष्यन्त के साथ हुआ था, यही ट्रिनिडाड और टोबैगो, बरमा और बैंकाक जानेवालों के साथ होता था, यही अमरीका और यूरोप जानेवालों के साथ हो रहा है और यही पण्डित राधेलाल के साथ हुआ। अर्थात् अपने मुहल्ले में रहते हुए जो बिरादरी के एक इंच भी बाहर जाकर शादी करने की कल्पना-मात्र से बेहोश हो जाते हैं वे भी अपने क्षेत्र से बाहर निकलते ही शादी के मामले में शेर हो जाते हैं। अपने मुहल्ले में देवदास पार्वती से शादी नहीं कर सका और एक समूची पीढ़ी को कई वर्षों तक रोने का मसाला दे गया था। उसे विलायत भेज दिया जाता तो वह निश्चय ही बिना हिचक किसी गोरी औरत से शादी कर लेता। बाहर निकलते ही हम लोग प्रायः पहला काम यह करते हैं कि किसी से शादी कर डालते हैं और फिर सोचना शुरू करते हैं कि हम यहाँ क्या करने आए थे। तो पं. राधेलाल ने भी, सुना जाता है, एक बार पूरव जाकर कुछ करना चाहा था, पर एक महीने में ही वे इस 'कुतिया' से शादी करके शिवपालगंज वापस लौट आए।

किसी पूर्वी जिले की एक शकर-मिल में एक बार पं. राधेलाल को नौकरी मिलने की सम्भावना नजर आयी। नौकरी चौकीदारी की थी। वे वहाँ जाकर एक दूसरे चौकीदार के साथ रुक गए। तब पं. राधेलाल की शादी नहीं हुई थी और उनके जीवन की सबसे बड़ी समस्या यह थी कि औरत के हाथ का खाना नहीं मिलता। उनके साथी चौकीदार की बीवी ने कुछ दिनों के लिए इस समस्या को सुलझा दिया। वहाँ रहते हुए वह उसका ने बनाया हुआ खाना खाने लगे। और जैसी कि एक जगत्-प्रसिद्ध कहावत है, स्त्री पेट के रास्ते आदमी के हृदय पर क़ब्जा करती है, उसने पं. राधेलाल के पेट में सुरंग लगा दी और हृदय की ओर बढ़ने लगी। उन्हें उसका बनाया हुआ खाना कुछ ऐसा पसन्द आया और वह खुद अपनी बनायी हुई सुरंग में इस तरह फंस गई कि महीने-भर के भीतर ही वे उसे अपना खाना बनाने के लिए शिवपालगंज ले आए। चलते-चलते उसके घर से ही उन्होंने साल-दो साल के लिए खाने का इन्तजाम भी साथ में ले लिया। इस घटना के बाद मिल के क्षेत्र में लोगों ने सोचा कि पं. राधेलाल का साथी चौकीदार उल्लू है। शिवपालगंज में गँजहों ने सोचा कि राधेलाल मर्द का बच्चा हैं। अब तक उस क्षेत्र में पं. राधेलाल की प्रतिष्ठा 'कभी न उखड़नेवाले गवाह' के रूप में थी, अब वे 'कभी न चूकनेवाले मर्द' के रूप में भी विख्यात हो गए।

वैसे, 'कभी न उखड़नेवाले गवाह' की ख्याति ही पं. राधेलाल की जीविका का साधन थी। वे निरक्षरता और साक्षरता की सीमा पर रहते थे और जरूरत पड़ने पर अदालतों में 'दस्तखत कर लेता हूँ,' 'मैं पढ़ा-लिखा नहीं हूँ' इनमें से कोई भी बयान दे सकते थे। पर दीवानी और फ़ौजदारी क़ानूनों का उन्हें इतना ज्ञान सहज रूप में मिल गया था कि वे किसी भी मुक़दमे में गवाह की हैसियत से बयान दे सकते थे और जिरह में अब तक उन्हें कोई भी वकील उखाड़ नहीं पाया था। जिस तरह कोई भी जज अपने सामने के किसी भी मुक़दमे का फ़ैसला दे सकता है, कोई भी वकील किसी भी मुक़दमे की वकालत कर सकता है, वैसे ही पं. राधेलाल किसी भी मामले के चश्मदीद गवाह बन सकते थे। संक्षेप में, मुक़दमेबाजी की जंजीर में वे भी जज, वकील, पेशकार आदि की तरह एक अनिवार्य कड़ी थे और जिस अंग्रेजी क़ानून की मोटर पर चढ़कर हम बड़े गौरव के साथ 'रूल ऑफ़ लॉ' की घोषणा करते हुए निकलते हैं, उसके पहियों में वे टाइराड की तरह बँधे हुए उसे मनमाने ढंग से मोड़ते चलते थे। एक बार इजलास में खड़े होकर जैसे ही वे शपथ लेते, 'गंगा-कसम भगवान-कसम, सच-सच कहेंगे,' वैसे ही विरोधी पक्ष से लेकर मजिस्ट्रेट तक समझ जाते कि अब यह सच नहीं बोल सकता। पर ऐसा समझना बिलकुल बेकार था, क्योंकि फ़ैसला समझ से नहीं क़ानून से होता है और पं. राधेलाल की बात समझने में चाहे जैसी लगे, क़ानून पर खरी उतरती थी। पं. राधेलाल की जो भी प्रतिष्ठा रही हो, उनकी प्रेयसी की स्थिति बिलकुल साफ़ थी। वह भागकर आयी थी, इसलिए कुतिया थी। लोग उससे मजाक कर सकते थे और हमेशा यह समझकर चल सकते थे कि उसे मजाक अच्छा लगता है। यह शिवपालगंज के नौजवानों का सौभाग्य था कि कुतिया ने भी उनको निराश नहीं किया। उसे सचमुच ही मजाक अच्छा लगता था और इसी से मजाक होने पर छूटते ही गाली देती थी, जो कि गँजहों में आत्माभिव्यक्ति का बड़ा जनप्रिय तरीक़ा माना जाता था।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book