लोगों की राय

गीता प्रेस, गोरखपुर >> भले का फल भला

भले का फल भला

गीताप्रेस

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :32
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 944
आईएसबीएन :00000

Like this Hindi book 1 पाठकों को प्रिय

8 पाठक हैं

प्रस्तुत है भले का फल भला, लोक सेवा व्रत की एक आदर्श कथा।


सातवाँ परिच्छेद

श्रमण महात्माने कौशाम्बीमें जाकर पाण्डु जौहरीको सारी बातें बता दीं। पाण्डु तुरंत ही कुछ सिपाहियोंको साथ लेकर गुफापर पहुँचा। गुफामें जाकर अपने गड़े हुए सारे धनको बाहर निकाला। अग्नि-संस्कार करवाया। उस समय महादतकी चिताके आगे खड़े होकर पान्थक श्रमणने निम्नलिखित उपदेश दिया-

"हम स्वयं ही बुरे काम करते हैं और स्वयं ही उन बुरे कामोंका फल भोगते हैं। इसलिये हमें स्वयं ही इस बुराईको दूर करके स्वयं ही शुद्ध होना चाहिये। पवित्रता और अपवित्रता दोनों अपने ही हाथमें हैं। दूसरा कोई भी हमें पवित्र नहीं बना सकता। हमें स्वयं ही इसे पानेके लिये प्रयत्न करना होगा। बुद्धभगवान्का भी यही उपदेश है।"

"हमारे कर्म किसी दूसरे देवताने नहीं बनाये हैं। उनके रचयिता हम स्वयं ही हैं। माताके गर्भकी भाँति हम अपने ही कर्मरूपी गर्भस्थानमें जन्म लेते हैं और वे ही कर्म हमें चारों ओरसे लपेट लेते हैं। इनमें हमारे जो बुरे कर्म होते हैं, वे हमारे लिये अभिशापरूप सिद्ध होते हैं और अच्छे कर्म आशीर्वादरूप बनते हैं। इस तरह हमारे कर्मोंके भीतर ही मोक्ष-प्राप्तिका बीज छिपा हुआ है।"

पाण्डु तमाम धनको कौशाम्बी ले आये, वहाँ पहुँचकर वे बड़ी सावधानीके साथ धनका सदुपयोग करने लगे। पैसेकी छूट होनेसे व्यापार भी खूब बढ़ गया। उस व्यापारकी कमाईको भी वे उदारतासे सन्मार्गमें व्यय करने लगे।

जब उनकी वृद्धावस्था आयी और मृत्युके दिन पूरे होते दिखायी दिये तब उन्होंने अपनी सभी संतानोंको बुलाकर कहा-'मेरे प्यारे बच्चो! निराश होकर कभी भी किसी भी अपने भले कामको छोड़ मत देना। यदि किसी कार्यमें तुम्हें सफलता न मिले तो उसके लिये किसी दूसरेपर दोष न मढ़ना। हमें अपनी निष्फलता या दु:खके कारणको अपने कामोंमें ढूँढ़ निकालना चाहिये; क्योंकि वह कारण उन्हींमें है। उन्हें दूर करना चाहिये। यदि तुम अभिमान या अहंकारके पर्देको हटा दोगे तो तुम्हें अपने पता अपने-आप ही लग जायगा और साथ-ही-साथ उनसे छूटनेका मार्ग भी दीखने लगेगा। दु:खका उपाय भी हमारे हाथमें है। तुम्हारी आँखोंके सामने मायाका पर्दा न पड़ जाय, इसका खयाल सदा रखना और मेरे जीवनमें जो वाक्य अक्षरश: सिद्ध हुआ है, उसका हमेशा स्मरण करना। वह वाक्य यह है-

'जो दूसरोंको दु:ख देता है, वह अपने-आपको दु:ख पहुँचाता है और जो दूसरों का भला करता है, वह अना ही भला करता है-ऐसा मानना। देहकी ममताका पर्दा दूर होनेपर स्वाभाविक सत्यका मार्ग मिल जाता है।'
यदि तुम मेरे इन वचनोंको याद रखकर इनके अनुरूप जीवन बनाओगे तो मृत्युके समय भी तुम अच्छे कर्मोंकी छायामें रहोगे और तुम्हारा जीवात्मा तुम्हारे शुभ कर्मोंसे अमर बन जायगा।'
 
***

...Prev |

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ

विनामूल्य पूर्वावलोकन

Prev
Next
Prev
Next

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book