गीता प्रेस, गोरखपुर >> भले का फल भला भले का फल भलागीताप्रेस
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प्रस्तुत है भले का फल भला, लोक सेवा व्रत की एक आदर्श कथा।
छठा परिच्छेद
इतना कहकर डाकू कुछ देरके लिये शान्त हो गया और फिर विचार स्थिर करके
बोला-"पूज्य महाराज! सुनिये, मैं आपके समक्ष अपने पापका प्रायश्चित कर रहा हूँ।
मैं पहले कौशाम्बीके सुप्रसिद्ध जौहरी पाण्डुके यहाँ नौकर था। मेरा नाम
है-महादत्त। एक दिन उसने मेरे साथ ऐसा क्रूर व्यवहार किया कि मैंने नौकरी छोड़
दी और मैं डाकुओंके दलमें शामिल हो गया और धीरे-धीरे मैं उस डाकू-दलका सरदार बन
गया। कुछ दिन बाद मैंने सुना कि वही पाण्डु जौहरी अपने साथ बहुतसा धन लेकर इस
जंगल-मार्गसे एक राजाके यहाँ जानेवाला है तो मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। मैंने
अपने दलको साथ लेकर उसे लूट लिया। अब आप कृपा करके उसके पास जाइये और मेरे इस
कृत्यके लिये क्षमा कर देनेके लिये उसे समझाइये। मैं भी उसे माफ किये देता हूँ।
जब मैं उसके यहाँ नौकरी कर रहा था, तब वह धनसे मदोन्मत्त हो गया था। उसका कलेजा
पत्थर-सा कठोर बन गया था। उस समय तो वह यही समझ रहा था कि इस संसारमें बस,
स्वार्थकी ही विजय है। किंतु अब मैंने सुना है कि उसका हृदय पलट गया है, वह अब
परोपकारी बन गया है और लोग उसे न्यायी और भला आदमी मान रहे हैं। अब उसने ऐसा
अपूर्व धन प्राप्त किया है, जिसे कोई भी चुरा नहीं सकता और जिसका कभी भी विनाश
होनेवाला नहीं।""अबतक मैं दुष्कर्ममें ही मस्त हो रहा था। किंतु अब मुझे इस अन्धकारमें रहना नहीं सुहाता। मेरे विचारोंमें अब महान् परिवर्तन आ गया है। मैंने अब बुरी वासनाओंको अन्त:करणसे धो दिया है। अब मेरी मृत्युमें विलम्ब नहीं है। जो थोड़े-से पल बाकी हैं, उनमें मैं अधिक-से-अधिक शुभेच्छा करूंगा, ताकि मृत्युके बाद भी मेरी यह शुभेच्छा जारी रहे। इस बीच हे दयालु महात्मा! आप शीघ्र-से-शीघ्र पाण्डुके पास पहुँचकर उससे कहिये कि 'राज्यका मुकुट और दूसरा सारा द्रव्य, जो मैंने लूटा था, वह सब यहीं करीबकी गुफामें गड़ा हुआ है, वह तुरंत यहाँ आकर ले जाय। मेरे जिन दो साथियोंको इस गड़े हुए धनका पता था, वे अब मर चुके हैं। इसलिये अब वह धन सुरक्षित है।' मैं चाहता हूँ कि मरते-मरते भी मैं कुछ ऐसा काम करता जाऊँ, जिससे मेरे पापोंका बोझ कुछ हलका हो जाय। मेरी मानसिक मलिनता भी इस तरह धुलकर स्वच्छ हो जायगी और मोक्षके मार्गकी ओर जानेका कोई वास्तविक अवलम्बन मुझे मिल ही जायगा।" ऐसा कहकर गुफाकी जगहका सही पता बताते हुए श्रमणकी गोदमें ही महादतने अपनी जीवनयात्रा समाप्त कर दी !
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