गीता प्रेस, गोरखपुर >> भले का फल भला भले का फल भलागीताप्रेस
|
1 पाठकों को प्रिय 8 पाठक हैं |
प्रस्तुत है भले का फल भला, लोक सेवा व्रत की एक आदर्श कथा।
तीसरा परिच्छेद
वाराणसीमें मल्लिक नामके एक व्यापारी थे। वे पाण्डु जौहरीके आढ़तिया थे। पाण्डु वाराणसी आकर उनसे मिला। जौहरीसे मिलते ही मल्लिक रो पड़े और पाण्डुके पूछनेपर उन्होंने अपनी कठिनाई बतायी-
मल्लिक-मित्र! मैं एक महान् संकटमें आ पड़ा हूँ। मुझे डर है कि कहीं मेरा आपसे व्यापारी नाता टूट न जाय। मैंने राजाको उनके अपने उपभोगके लिये बढ़िया चावल देनेका वचन दे रखा है। कल उसकी मुद्दत पूरी होती है। वचनके अनुसार क्या करूं ? इस समय मेरे पास चावलका एक दाना भी नहीं है। दूसरे कहींसे मिलनेकी भी आशा नहीं है; क्योंकि यहाँ मेरा प्रतिस्पर्धा एक बड़ा जबरदस्त व्यापारी है, उसे न जाने कैसे इस बातका पता चल गया कि राजकोठारीसे मैंने वायदेका व्यापार किया है। यह बात जानते ही उसने मुँहमाँगे दाम देकर जितने अच्छे चावल बस्तीमें थे सब खरीद लिये और ऐसा जान पड़ता है कि उसने कुछ रिश्वत देकर कोठारीको भी अपने वशमें कर लिया है। कल मेरी क्या हालत होगी, इसकी मुझे बड़ी चिन्ता हो रही है। मेरी इज्जत बचनी कठिन है; मैं तो मरा जा रहा हूँ। मैं बरबाद हो जाऊँगा। भाई! यदि विधाता मेरी सहायता करें और कहींसे बढ़िया चावलकी एकाध गाड़ी मिल जाय तो मैं बच सकता हूँ। अन्यथा मेरी तो मौत ही हुई समझो।
मल्लिककी बातें सुनते-सुनते पाण्डु एकाएक चौंक उठे। उन्हें फौरन ही गाड़ीमें अन्य चीजोंके साथ रखी हुई अपनी थैलीका स्मरण हो आया और वे तुरंत ही दौड़कर घर गये। सारी चीजें, कपड़े-लत्ते छान मारे। गाड़ीकी पूरी जाँच की। किंतु कहीं भी थेली नहीं मिली। उन्हें अपने नौकर महादतपर संदेह हुआ। फौरन ही पुलिसको खबर दी गयी और पुलिसने गरीब निदष सेवक बेचारे महादतकी गिरफ्तार कर लिया। फिर क्या था, निरपराधीको अपराधी साबित करनेवाली यमदूत-सी पुलिसने चोरीका अपराध स्वीकार कर लेनेके लिये महादतकी खूब पीटा। महादत्त जोर-जोरसे रोने लगा; गिड़गिड़ाकर बोला-'अरे! मैं बिलकुल निरपराध हूँ। मैं सच कहता हूँ कि मैंने थैली नहीं चुरायी। मुझपर दया करो। सेठके कहनेसे मैंने उस बेचारे गरीब किसानको रास्तेमें बहुत हैरान किया था। मुझे उस पापका ही यह फल मिला है। हे भाई किसान! तू तो जगत्का पिता (किसान) है। मैंने तुझे बिना कारण सताया है। सचमुच मुझे यह दण्ड मिलना ही चाहिये।'
इस तरह उस महादतने खूब पश्चाताप किया, किंतु पुलिसको उसकी बातोंपर ध्यान देनेकी फुरसत ही कहाँ थी! उसका यह काम नहीं। उसका काम तो था उसे अच्छी तरहसे पीटना ही।
इधर पुलिस महादत्तकी मार रही थी। इसी बीच देवल किसान वहाँपर आ पहुँचा और उसने पाण्डु जौहरीके सामने मोहरोंकी थैली रख दी। सभी लोग आश्चर्यचकित हो गये। पाण्डु तो गद्गद हो गये। उन्होंने जिस आदमीको विपत्तिमें डाला था, उसी आदमीने आकर आज उनको एक महान् विपत्तिसे बचा लिया। यह देखकर उन्हें बहुत ही लज्जित होना पड़ा। उन्होंने बड़ा पश्चाताप किया और देवलसे क्षमा माँगी। महानुभाव श्रमणके संगसे सदाके सरल हृदय किसानका हृदय उदार हो गया था। उसने अपने सच्चे हृदयसे उन्हें क्षमा दे दी और उनके अभ्युदयकी इच्छा की।
महादत छोड़ दिया गया। उसे अपने सेठपर बड़ा गुस्सा आ रहा था। देखते-ही-देखते वह कहीं दूर चला गया, एक पलके लिये भी वहाँ नहीं रुका।
मल्लिकको जब इस बातका पता चला कि देवलके पास देकर सब-के-सब चावल खरीद लिये। इस तरह उसके वचन तथा मानकी रक्षा हो गयी। राजाके कोठारमें चावल पहुँच गये। देवलने कभी स्वप्नमें भी उसे चावलकी इतनी बड़ी कीमत मिलेगी, यह आशा नहीं की थी। वह तो बेहद खुश हो गया और तुरंत ही उसने अपने गाँवका रास्ता पकड़ा।
अब पाण्डु यह विचार करने लगे कि यदि वह देवल यहाँपर न आया होता तो मेरी और मल्लिककी क्या स्थिति होती। वह कितना ईमानदार है। यह श्रमण महाशयके समागमका ही परिणाम है। लोहेको सुवर्ण बनानेकी शक्ति 'पारस' के सिवा और किसके पास हो सकती है? पाण्डुका हृदय रो उठा। महात्माजीके दर्शनकी प्रबल उत्कण्ठा जाग उठी। उनके मन में बेचैनी हो गयी और वे फौरन ही उनकी खोज में निकल पड़े।
विहारोंमें पूछताछ करते-करते वे अन्तमें उनके पास जा पहुँचे।
कृतज्ञतापूर्ण अन्त:करणसे उन्होंने श्रमणको साष्टांग दण्डवत्प्रणाम किया। व्यापारीका रूक्ष और कठोर हृदय भी कुसुमकोमल महात्माजीके दर्शनसे कोमल बन गया। वे कुछ भी बोल न सके। उनका हृदय भर आया। महात्माजी उन्हें आश्वासन देते हुए समझाने लगे।
श्रमण-सेठजी ! देखा न कर्मकी रचना कितनी गहन है ?
पाण्डु-महानुभाव! मेरी तो समझमें कुछ नहीं आता।
श्रमण-अभी आप यह बात नहीं समझ सकेंगे। साधारण लोग इसका मर्म नहीं समझ सकते। इसे समझनेके लिये जब आपके मनमें रुचि उत्पन्न होगी और उत्कण्ठा बढ़ेगी, तब यह बात अपने-आप ही समझमें आ जायगी। किंतु इतना अवश्य याद रखियेगा कि दूसरोंको दु:ख पहुँचानेका मन हो, तब पहले अपने-आपसे यह पूछना चाहिये कि यदि ऐसा ही दु:ख कोई मुझको दे तो मेरे मनपर उसका क्या असर होगा। क्या मैं इसको सहन कर सकूंगा? यदि तुम सहन करनेमें असमर्थ हो तो फिर दूसरोंको दु:ख पहुँचानेकी वृत्ति क्यों हो? ऐसी वृत्ति हो तो उसे तुरंत दबा देना चाहिये। इस तरह दूसरा यदि कोई हमारी सेवा करे तो वह हमें कितनी अच्छी लगती है, ठीक उसी तरह हमारी सेवा भी अन्यको अच्छी लगती है-यह दृढ़ निश्चय रखें कि दूसरेकी सेवा करनेका कभी अवसर हाथसे नहीं खोना है। आज हम जिस सुकृतके बीज बोयेंगे, उसका अच्छा फल हमें कालान्तरमें अवश्य मिलेगा-यह विश्वास रखना।
पाण्डु-महाराज! आपकी अमृतवाणी सुनते-सुनते मेरे मनको तृप्ति नहीं होती। मेरा चरित्र उत्कृष्ट बने, मन दृढ़ रहे इसके लिये कुछ और सुनाइये। मैं कर्मकी गहन गतिकी समझना चाहता हूँ।
श्रमण-अच्छा तो सुनो। मैं आपको कर्मभेदकी कुंजी बता रहा हूँ। मेरे और आपके बीच एक पर्दा पड़ा है, इस पर्देको माया कहते हैं। इस मायारूपी पर्दे के कारण आप मुझको और मैं आपको गैर समझ रहे हैं। इस पर्देके पृथक्-पृथक् कारण ही तो मनुष्य सत्यको नहीं देख पाता और पापके कुएँमें जा गिरता है। चूँकि आपकी आँखोंके आगे यह मायाका पर्दा पड़ा हुआ है, इसीसे आप अन्य अपने मानव-बन्धुओंके साथ आपका कितना निकट सम्बन्ध है उसे जान नहीं सकते। सच पूछा जाय तो एक शरीरके भिन्न-भिन्न अवयवोंका एक-दूसरेके साथ जैसा प्रगाढ़ सम्बन्ध है, वैसा ही, वरं उससे भी अधिक प्रगाढ़ सम्बन्ध मानव-मानवके बीच है। इस स्थितिकी बहुत कम लोग समझ पाते हैं। इस सत्यको समझकर उसके अनुसार बर्ताव करना-यही तो मानव-जीवनका कर्तव्य है। इस सत्यकी प्राप्तिके लिये मैं आपको तीन मन्त्र दे रहा हूँ, उन्हें आप अपने हृदयमें लिख रखिये-
(१) दूसरोंको दु:ख पहुँचानेवाला स्वयं ही अपनेको दु:ख देनेवाले दु:खका बीज बोता है।
(२) जो दूसरोंको सुख पहुँचानेवाला है, वह अपने लिये सुखका बीज बोता है।
(३) समग्र मानव-जाति एक ही है। इसमें भिन्नताका विचार भ्रममात्र है।
इन तीन बातोंपर गहराईसे विचार करते रहिये-इनकी उपासना करते रहिये। आपको सत्यके दर्शन अवश्य होंगे।
पाण्डु—महाराज ! आपके शब्दोका मेरे हृदयपर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा है। आपके वचन तो आपके जीवनका प्रतिबिम्ब है। मैंने वाराणसी आते समय एक घंटेके लिये आपको अपनी गाड़ीमें बैठा लिया था। इसमें मेरे एक पाईका भी खर्च न हुआ था; फिर भी कितना महान् बदला! प्रभो! मुझपर आपका महान् उपकार है। आपने ही तो देवल को मोहरें देनेके लिये मेरे पास भेजा था। यदि ये मोहरें मुझे प्राप्त न हुई होतीं तो मैं यहाँ का सौदा न कर पाता। आपकी दीर्घदृष्टि है, मैं किस मुँह से तारीफ करूं ? देवल को सहायता देकर उसे आपने शीघ्र ही वाराणसी भेज दिया, जिससे मेरे मित्र मल्लिक का भी काम हो गया। उसकी इज्जत बच गयी। मेरे सेवक महादत की भी रक्षा हुई, नहीं तो पता नहीं उस बेचारे की क्या दुर्दशा होती!
महाराज! जिस तरह आप सत्यके दर्शन करते हैं, ठीक उसी तरह मानवमात्र करने लगे तो सारा जगत् कितना सुखी हो जाय, असंख्य पाप रुक जायें और पुण्यप्रणाली प्रचलित हो जाय। महाराज! आप-जैसे संतोंकी सेवा करनेकी इच्छा मेरे मनमें जाग्रत् हुई है। मैं कौशाम्बीमें एक विहार बनवा दूँ, जहाँ पर आप-जैसे श्रमण रहें और जनता को सन्मार्ग पर चलावें।
|
विनामूल्य पूर्वावलोकन
Prev
Next
Prev
Next
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book