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गीता प्रेस, गोरखपुर >> भले का फल भला

भले का फल भला

गीताप्रेस

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :32
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 944
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है भले का फल भला, लोक सेवा व्रत की एक आदर्श कथा।



दूसरा परिच्छेद्द

श्रमण नारद पहुँचे किसानके पास। उसे नमस्कार किया और गाड़ेको ठीक करनेमें उसकी सहायता की। भीगे और सूखे चावलोंको अलग करना शुरू किया। दोनोंकी मेहनतसे काम जल्दी होने लगा। किसानको लगा कि 'मेरा भाग्य प्रबल होनेके कारण कोई अदृश्य देव श्रमणका रूप लेकर मेरी सहायता करने आ पहुँचे हों तो कोई आश्चर्यकी बात नहीं। ऐसी अनपेक्षित सहायता मिलते ही काम जल्दीसे होने लगा, यह देखकर मुझे भी आश्चर्य होता है।'
डरते-डरते किसानने पूछा-'महाराज! जहाँतक मुझे याद है, मैंने इन सेठजीका कुछ भी नहीं बिगाड़ा था। फिर भी बिना कारण इन्होंने मेरा इतना नुकसान क्यों किया? क्या कारण है इसका ?'
श्रमण-भाई! आज जो कुछ भी तू भुगत रहा है, वह तेरे पूर्व-कर्मोंका ही फल है।
किसान-कर्म क्या है महाराज ?
श्रमण-मनुष्यके द्वारा स्वयं किये हुए कार्य ही कर्म हैं। अनेक जन्मोंके कमाँकी एक माला है। इस मालामें विविध कर्मरूपी मणके हैं। वर्तमान कार्यों एवं विचारोंसे इसमें परिवर्तन भी होते हैं। हम लोगों ने जो कुछ कर्म पूर्व में किये हैं, उन्हींका फल इस जीवनमें भोग रहे हैं और इस जन्म में इस समय जो कर्म कर रहे हैं, उनका फल अगले जन्मोंमें भोगेंगे।

किसान-ऐसा होगा; किंतु ऐसे घमण्डी और दुष्ट मनुष्योंके लिये जो हमारे-जैसे निरपराधियोंको हैरान करते हैं, क्या किया जाय?

श्रमण-भाई! मेरी समझसे तो तुम्हारे विचार भी लगभग सेठके विचारोंके समान ही हैं। जिन कर्मोंके फलस्वरूप वह जौहरी और तुम किसान बने हो, ऊपरी दृष्टिसे देखा जाय तो उनमें बड़ा भेद दिखायी देता है; किंतु यदि हम गहराईसे विचार करेंगे तो बहुत अन्तर नहीं दिखायी देगा।

मानव-स्वभावके अभ्यासके आधारपर मैं कहता हूँ कि यदि तुम उस जौहरीकी जगह होते, तुम्हारे पास भी उसके नौकर-जैसा बलवान् नौकर होता और तुम्हारी गाड़ी रास्तेमें उसके गाड़ेसे रुकती तो तुमने भी वैसा बर्ताव किया होता, जैसा कि सेठने तुम्हारे साथ किया है। उसके चावलोंका सत्यानाश हो जायगा, ऐसा विचार तुम्हारे मनमें भी उत्पन्न न होता और किसीका बुरा करनेपर हमारा बुरा होगा, उस समय इस विचारको तुम भी भूल जाते!

किसान-महाराज ! आपका कथन सत्य है। उस परिस्थितिमें मैं भी वैसा ही व्यवहार करता; किंतु अब तो मुझे आपका समागम प्राप्त हो गया है। आपने बिना किसी स्वार्थके मेरी सहायता की है। आपकी सहायतासे ही में अपने मालकी रक्षा कर सका हूँ और गाड़ा चला सका हूँ। अब मैं आपका उदाहरण सदा सामने रखकर अपने मानव-बन्धुओंका कल्याण करूंगा।

किसानका बैलगाड़ा दुरुस्त हो गया। कुछ दूर चलते ही दो बैल चौंककर रुक गये। किसानने पुकारा-'अरे महाराज! सामने यह साँप-जैसा क्या पड़ा है?' श्रमणने ध्यानसे देखा तो कुछ थेली-जैसी चीज दिखायी दी। समीप जाकर देखा तो वह सोनेकी मोहरोंसे भरी हुई थैली ही थी। उनको लगा कि दूसरे किसीकी न होकर यह थेली सेठकी ही है। उन्होंने वह थेली उठाकर किसान देवलको देते हुए कहा-"वाराणसी जाकर उन सेठका पता लगाना और उन्हें यह थेली ज्यों-की-त्यों दे देना। उनका नाम पाण्डु जौहरी है और उनके नौकरका नाम महादत है। तुम्हारे ऐसा करनेपर उन्हें अपने किये हुए अन्यायके लिये पश्चाताप होगा। थैली देकर उनसे कहना कि 'आपने मेरे साथ जैसा बर्ताव किया था, उसको लेकर मेरे मनमें अब कुछ भी नहीं है; मैं आपको क्षमा करता हूँ और चाहता हूँ कि आपको अपने व्यापारमें सच्ची सफलता मिले।'
"तुम्हारा भाग्य उनके भाग्यसे जुड़ा हुआ है। ज्यों-ज्यों उनकी उन्नति होगी त्यों-ही-त्यों तुम्हारा भाग्य भी खुलेगा।"

इतना कहकर 'परोपकारकी प्रतिमा' दीर्घदृष्टि वे श्रमण महाशय वहाँ एक पल भी न ठहरकर अपने रास्ते चल दिये। रास्तेमें विचार करने लगे-'यदि वह जौहरी फिर कभी मुझे मिलेगा तो मैं यथाशक्ति उसका भला करनेका प्रयत्न करूंगा। उपदेश देकर उसे सच्चा मानव बनाऊँगा।'

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