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गीता प्रेस, गोरखपुर >> पौराणिक कथाएँ

पौराणिक कथाएँ

गीताप्रेस

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :122
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 939
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है पौराणिक कथाएँ.....



कीड़े से महर्षि मैत्रेय
भगवान् व्यास सभी जीवोंकी गति तथा भाषाको समझते थे। एक बार जब वे कहीं जा रहे थे तब रास्तेमें उन्होंने एक कीड़ेको बड़े वेगसे भागते हुए देखा। उन्होंने कृपा करके कीड़ेकी बोलीमें ही उससे इस प्रकार भागनेका कारण पूछा। कीड़ेने कहा-'विश्ववन्द्य मुनीश्वर! कोई बहुत बड़ी बैलगाड़ी इधर ही आ रही है। कहीं यह आकर मुझे कुचल न डाले, इसलिये मैं तेजीसे भागा जा रहा हूँ।' इसपर व्यासदेवने कहा-'तुम तो तिर्यग्योनिमे पड़े हुए हो, अतः तुम्हारे लिये तो मर जाना ही सौभाग्य है। मनुष्य यदि मृत्युसे डरे तो उचित है, पर तुम कीटको इस शरीरके छूटनेका इतना भय क्यों है?' इसपर कीड़ेने कहा-'महर्षे! मुझे मृत्युसे किसी प्रकारका भय नहीं है। भय इस बातका है कि इस कुत्सित कीटयोनिसे भी अधम दूसरी लाखों योनियों हैं, मैं कहीं मरकर उन योनियोंमें न चला जाऊँ। उनमें गर्भ आदि धारण करनेके क्लेशसे मुझे डर लगता है, दूसरे किसी कारणसे मैं भयभीत नहीं हूँ।'

व्यासजीने कहा-'कीट! तुम भय मत करो। मैं जबतक तुम्हें ब्राह्मण-शरीरमे न पहुँचा दूँगा, तबतक सभी योनियोंसे शीघ्र ही छुटकारा दिलाता रहूँगा।' व्यासजीके यों कहनेपर वह कीड़ा पुनः मार्गमें लौट आया और रथके पहियेसे दबकर उसने प्राण त्याग दिये। तत्पश्चात् वह कौए और सियार आदि योनियोंमें जब-जब उत्पन्न हुआ, तब-तब व्यासजीने जाकर उसके पूर्वजन्मका स्मरण करा दिया। इस तरह वह क्रमशः साही, गोधा, मृग, पक्षी, चाण्डाल, शूद्र और वैश्यकी योनियोंमें जन्म लेता हुआ क्षत्रिय-जातिमे उत्पन्न हुआ। उसमें भी भगवान् व्यासने उसे दर्शन दिया। वहाँ वह प्रजापालनरूप धर्मका आचरण करते हुए थोड़े ही दिनोंमें रणभूमिमें शरीर त्यागकर ब्राह्मणयोनिमे उत्पन्न हुआ। जब वह पाँच वर्षका हुआ, तभी व्यासदेवने जाकर उसके कानमें सारस्वत-मन्त्रका उपदेश कर दिया। उसके प्रभावसे बिना पड़े ही उसे सम्पूर्ण वेद, शास्त्र और धर्मका स्मरण हो आया। पुनः भगवान् व्यासदेवने उसे आज्ञा दी कि वह कार्तिकेयके क्षेत्रमें जाकर नन्दभद्रको आश्वासन दे। नन्दभद्रको यह शंका थी कि पापी मनुष्य भी सुखी क्यों देखे जाते हैं। इसी क्लेशसे घबराकर वे बहूदक तीर्थमें तप कर रहे थे। नन्दभद्रकी शंकाका समाधान करते हुए इस सिद्ध सारस्वत बालकने कहा था-'पापी मनुष्य सुखी क्यों रहते हैं, यह तो बड़ा स्पष्ट है। जिन्होंने पूर्वजन्ममें तामस-भावसे दान किया है, उन्होंने इस जन्ममें उसी दानका फल प्राप्त किया है परंतु तामस-भावसे जो धर्म किया जाता है, उसके फलस्वरूप लोगोंका धर्ममें अनुराग नहीं होता और फलतः वे ही पापी सुखी देखे जाते हैं। ऐसे मनुष्य पुण्य-फलको भोगकर अपने तामसिक भावके कारण नरकमें ही जाते हैं, इसमें संदेह नहीं है। इस विषयमें मार्कण्डेयजीकी कही ये बातें सर्वदा ध्यानमें रखी जानी चाहिये-एक मनुष्य ऐसा है, जिसके लिये इस लोकमें तो सुखका भोग सुलभ है, परंतु परलोकमें नहीं। दूसरा ऐसा है, जिसके लिये परलोकमें सुखका भोग सुलभ है, किंतु इस लोकमें नहीं। तीसरा ऐसा है, जो इस लोक और परलोकमें दोनों ही जगह सुख प्राप्त करता है और चौथा ऐसा है, जिसे न यहीं सुख है और न परलोकमें ही। जिसका पूर्वजन्मका किया हुआ पुण्य शेष है, उसे भोगते हुए परम सुखमें भूला हुआ जो व्यक्ति नूतन पुण्यका उपार्जन नहीं करता, उस मन्दबुद्धि एवं भाग्यहीन मानवको प्राप्त हुआ वह सुख केवल इसी लोकतक रहेगा। जिसका पूर्वजन्मोपार्जित पुण्य तो नहीं है, किंतु वह तपस्या करके नूतन पुण्यका उपार्जन कर रहा है, उस बुद्धिमान्को परलोकमें अवश्य ही विशाल सुखका भोग उपस्थित होगा-इसमें रंचमात्र भी संदेह नहीं। जिसका पहलेका किया हुआ पुण्य वर्तमानमें सुखद हो रहा है और जो तपद्वारा नूतन पुण्यका उपार्जन कर रहा है, ऐसा बुद्धिमान् तो कोई-कोई ही होता है, जिसे इहलोक-परलोक दोनोंमें सुख मिलता है। जिसका पहलेका भी पुण्य नहीं है और जो यहाँ भी पुण्यका उपार्जन नहीं करता, ऐसे मनुष्यको न इस लोकमें सुख मिलता है और न परलोकमें ही। ऐसे नराधमको धिक्कार है।'

इस प्रकार नन्दभद्रकी शंकाका समाधान कर बालकने उन्हें अपना वृत्तान्त भी बतलाया। तत्पश्चात् वह सात दिनोंतक निराहार रहकर सूर्यमन्त्रका जप करता रहा और वहीं बहूदक तीर्थमें उसने उस शरीरको भी छोड़ दिया। नन्दभद्रने विधिपूर्वक उसके शवका दाह-संस्कार कराया। उसकी अस्थियाँ वहीं सागरमें डाल दी गयीं और दूसरे जन्ममें वही मैत्रेय नामक श्रेष्ठ मुनि हुआ। इनके पिताका नाम कुषारु तथा माताका नाम मित्रा था। इन्होंने व्यासजीके पिता पराशरजीसे 'विष्णुपुराण' तथा 'बृहत्-पाराशर होरा-शास्त्र' नामक विशाल ज्यौतिष-ग्रन्थका अध्ययन किया था। (स्कन्दपुराण)

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