गीता प्रेस, गोरखपुर >> पौराणिक कथाएँ पौराणिक कथाएँगीताप्रेस
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प्रस्तुत है पौराणिक कथाएँ.....
आँख खोलनेवाली गाथा
राजा नहुषकी छः संतानोंमेंसे महाराज ययाति दूसरी संतान थे। इनके बड़े भाईका
नाम यति था। वे बचपनसे निवृत्तिमार्गमें अग्रसर होकर 'ब्रह्म'-स्वरूप हो गये,
अतः कोसलदेशका शासन ययातिके हाथोंमें आया। ये बहुत शूर-वीर थे। अपने
पराक्रमसे आगे चलकर ये सम्राट् हो गये थे। ये युद्धमें देवताओं, दानवों और
मनुष्योंके लिये दुर्धर्ष थे। ये परमात्माके भक्त पुण्यात्मा और धर्मनिष्ठ
थे। ये अपने पास क्रोधको फटकने नहीं देते थे। सभी प्राणियोंपर इनकी अनुकम्पा
बरसती रहती थी। इन्होंने अगणित यज्ञ-याग किये थे। महर्षि शुक्राचार्यकी कन्या देवयानी इनकी पत्नी थी। दैत्यराज वृषपर्वाकी पुत्री शर्मिष्ठा अपनी दासियोंके साथ देवयानीकी दासी बनकर साथ आयी थी। आगे चलकर राजा ययातिने चुपकेसे शर्मिष्ठाको भी अपनी पत्नी बना लिया था। देवयानीको इस रहस्यका तब पता चला, जब इसने शर्मिष्ठाके तीनों लड़कोंको देखा। इससे कुद्ध होकर देवयानी अपने पिता महर्षि शुक्राचार्यके पास चली गयी। पीछे-पीछे ययाति भी वहाँ जा पहुँचे। अपनी लाडिली पुत्रीको दुखी देखकर शुक्राचार्यको क्रोध हो आया। उन्होंने ययातिको बूढ़ा होनेका शाप दे दिया। शाप देते ही महाराज ययाति बूढ़े हो गये। उन्होंने महर्षिकी बहुत अनुनय-विनय की। तब शुक्राचार्यने परिहार बतलाया-'यदि तुम्हारे पुत्रोंमेंसे कोई तुम्हारा बुढ़ापा लेकर अपनी जवानी दे दे, तब तुम फिर जवान हो सकते हो।'
महाराज ययाति घर लौट आये। सबसे पहले ये देवयानीके पुत्रोंके पास पहुँचे। देवयानीसे इनके दो पुत्र थे-यदु और तुर्वसु। महाराजने उनसे अलग-अलग जवानीकी माँग की, परंतु दोनोंने इसे अस्वीकार कर दिया। तब महाराज शर्मिष्ठाके ज्येष्ठ पुत्र अनुके पास गये। अनुने भी महाराजकी माँग अस्वीकार कर दी। शर्मिष्ठाके दूसरे पुत्र द्रुह्युने भी यह माँग ठुकरा दी। अन्तमें महाराज शर्मिष्ठाके तीसरे पुत्र पुरुके पास गये। पुरुने अपनी जवानी देकर पिताका बुढ़ापा अपने ऊपर ले लिया। पिताने प्रसन्न होकर पुत्रको आशीर्वाद दिया-'मेरे साम्राज्यपर तुम्हारा और तुम्हारे वंशजोंका ही आधिपत्य होगा।'
युवावस्था प्राप्तकर महाराज ययाति विषय-भोगमें लिप्त हो गये। काम चार पुरुषार्थोंमें एक है। यह त्याज्य नहीं है, किंतु इसका अतियोग अनुचित है। फलतः महाराज वासनाओंकी गहराईमें उतरते चले गये। बहुत दिनोंके बाद उन्हें अपनी भूलका भान हुआ। भगवान्की कृपासे उनकी आँखें खुल गयीं। अब विषय-वासनाएँ विष प्रतीत होने लगीं। उन्होंने संसारको अपनी जो अनुभूति दी है, वह इस प्रकार है-'कामकी तृष्णा उपभोगसे कभी कम नहीं होती, प्रत्युत और बढ़ती ही चली जाती है। अग्निमें जैसे-जैसे घी डाला जाता है, वैसे-वैसे उसकी लपटें बढ़ती जाती हैं, ठीक यही दशा विषय-भोगकी है। पृथ्वीमें जितने धन-धान्य, पशु-पक्षी और स्त्रियाँ हैं, वे सब एक पुरुषके लिये भी पर्याप्त नहीं हैं। इसलिये मनुष्यको भोगकी ओर न बढ़कर इन्द्रियोंका नियन्त्रण करना चाहिये। मनको परमात्मामें लगाना चाहिये। विषय-भोग मनको परमात्माकी ओरसे हटा देता है। सच्चा सुख ब्रह्मकी प्राप्तिमें ही सम्भव है। तृष्णा ऐसा भयानक रोग है, जो उत्तरोत्तर बढ़ता ही चला जाता है। केश, दाँत, नख-ये सब जीर्ण हो जाते हैं, किंतु मरते दमतक तृष्णा जीर्ण नहीं होती। इस तृष्णाके त्यागसे इतना सुख प्राप्त होता है कि इसके एक अंशकी भी बराबरी कामसुख या स्वर्गसुख नहीं कर सकता।' (लिंगपुराण)
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