गीता प्रेस, गोरखपुर >> पौराणिक कथाएँ पौराणिक कथाएँगीताप्रेस
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प्रस्तुत है पौराणिक कथाएँ.....
विपुलस्वान् मुनि और उनके पुत्रोंकी कथा
द्वापर युगकी बात है मन्दपाल नामका एक पक्षी था। उसके चार पुत्र थे, जो बड़े
बुद्धिमान् थे। उनमें द्रोण सबसे छोटा था। वह बड़ा धर्मात्मा और वेद-वेदांगमें
पारंगत था। उसने कन्धरकी अनुमतिसे उसकी पुत्री तार्क्षीसे विवाह किया। कुछ
समय बाद तार्क्षी गर्भवती हुई और साढ़े तीन मासके पश्चात् वह कुरुक्षेत्र चली
गयी। वहाँ वह भवितव्यतावश कौरवों और पाण्डवोंके भयंकर युद्धके बीच घुस गयी।
तब अर्जुनके बाणसे उसकी खाल उधड़ गयी, जिससे उसका पेट फट गया और उसके चार अंडे
अपनी आयु शेष रहनेके कारण पृथ्वीपर ऐसे गिरे मानो रुईकी ढेरपर गिरे हों। उनके
गिरते ही राजा भगदत्तके सुप्रतीक नामक गजराजका विशाल घंटा, जिसकी जंजीर
अर्जुनके ही बाणसे कटी थी, नीचे गिर पड़ा। उसने भूतलको विदीर्ण कर दिया और
मांसकी ढेरपर पड़े तार्क्षीके उन अंडोंको चारों ओरसे ढक दिया। युद्धकी समाप्तिके बाद शमीक ऋषि उस स्थानपर आ पहुँचे। वहीं उन्होंने उन पक्षि-शावकोंकी ची-चींकी ध्वनि सुनी। तब उन्होंने शिष्योंके साथ उस घंटेको ऊपर उठाया और उन अनाथ एवं अजातपक्ष पक्षि-शावकोको देखा। फिर तो उन्होंने शिष्योंसे कहा-'इन पक्षि-शाव को को आश्रममें ले चलो और इन्हें ऐसे स्थानपर रखो, जहाँ बिलाव आदिका भय न हो।'
मुनिकुमार पक्षि-शावकोको लेकर आश्रममें आये। वहाँ मुनिवर शमीकने प्रतिदिन भोजन, जल और संरक्षणके द्वारा उनका पालन-पोषण किया। एक मासमें ही वे सूर्यदेवके रथमार्गपर उड़ने लगे, जिन्हें कौतुकवश आँखें फाड़कर मुनिकुमार देखा करते थे।
जब उन पक्षि-शावकोंने नगरोंसे भरी, समुद्रसे घिरी, नदियोंवाली और रथके पहिये के समान पृथ्वीका परिभ्रमण कर लिया, तब वे आश्रममें लौट आये। उस समय ऋषि शमीक शिष्योंपर अनुकम्पा करके प्रवचनद्वारा धर्म-कर्मका निर्णय कर रहे थे। उन पक्षि-शावकोंने उनकी प्रदक्षिणा करके उनके चरणोंकी वन्दना की और कहा-'मुनिवर! आपने हमें भयंकर मृत्युसे मुक्त किया है, अतः आप हमारे पिता हैं और गुरु भी। जब हमलोग मांके पेटमें थे, तभी हमारी माँ मर गयी और पिताने भी हमारा पालन-पोषण नहीं किया। आपने हमें जीवनदान दिया है, जिससे हम बालक बचे हुए हैं। इस पृथ्वीपर आपका तेज अप्रतिहत है। आपने ही हाथीका घंटा उठाकर कीड़ोंकी भांति सूखते हुए हमलोगोंके कष्टोंका निवारण किया है।'
उन पक्षि-शावकोंकी ऐसी स्पष्ट शुद्ध वाणी सुनकर शमीक मुनिने उनसे पूछा-'ठीक-ठीक बताओ, तुम्हें यह मानव-वाणी कैसे मिली? साथ ही यह भी बताओ कि किसके शापसे तुममें रूप और वाणीका ऐसा परिवर्तन हो गया?'
पक्षियोंने कहा-विपुलस्वान् नामके एक प्रसिद्ध महामुनि थे। उनके दो पुत्र हुए-सुकृष और तुम्बुरु। हम चारों यतिराज सुकृषके ही पुत्र हैं और सदा विनम्रतापूर्वक व्यवहार और भक्तिभावसे उन्हींकी सेवा-शुभूषामें लगे रहे हैं। तपश्चरणमें लीन अपने पिता सुकृष मुनिकी इच्छाके अनुसार हमने समिधा, पुष्प और भोज्य पदार्थ सब कुछ उन्हें समर्पित किया है। इस प्रकार जब हम वहाँ रहते रहे तब एक बार हमारे आश्रममें विशाल देहधारी टूटे पंखवाले वृद्धावस्थाग्रस्त ताम्रवर्णके नेत्रोंसे युक्त शिथिल-शरीर पक्षीके रूपमें देवराज इन्द्र पधारे। वे सुकृष ऋषिकी परीक्षा लेने आये थे। उनका आगमन ही हमलोगोंपर शापका कारण बन गया।
पक्षी-रूपी इन्द्रने कहा-'पूज्य विप्रवर! मैं बुभुक्षित हूँ। आप मेरी प्राणरक्षा करें। मैं भोजनकी याचना करता हूँ। आप ही हमारे एकमात्र उद्धारक हैं। मैं विन्ध्याचलके शिखरपर रहनेवाला हूँ, जहाँसे उड़ान भरनेवाले पक्षियोंके पंखोंकी वेगयुक्त वायुसे मैं नीचे गिर पड़ा। गिरनेके कारण मैं सप्ताहभर बेसुध पृथ्वीपर पड़ा रहा। आठवें दिन मेरी चेतना लौटी। तब क्षुधासे पीड़ित मैं आपकी शरणमें आया हूँ। मैं बड़ा दुःखी हूँ, मेरा मन बड़ा खिन्न है और मेरी प्रसन्नता नष्ट हो चुकी है। बस, मुझे भोजनकी अभिलाषा है। विप्रवर! आप मुझे कुछ खानेको दें, जिससे मेरे प्राण बच जायँ।'
ऐसा कहे जानेपर सुकृष ऋषिने पक्षिरूपधारी इन्द्रसे कहा-'प्राणरक्षाके लिये तुम जो भी भोजन चाहो, मैं दूँगा।' ऐसा कहकर ऋषिने फिर उस पक्षीसे पूछा-'तुम्हारे लिये मैं किस प्रकारके भोजनकी व्यवस्था करूँ?' यह सुनकर उसने कहा-'नर-मांस मिलनेपर मैं पूर्णरूपसे संतृप्त हो जाऊँगा।'
ऋषिने पक्षीसे कहा-तुम्हारी कुमारावस्था एवं युवावस्था समाप्त हो चुकी है, अब तुम बुढ़ापेकी अवस्थामें हो। इस अवस्थामें मनुष्यकी सभी इच्छाएँ दूर हो जाती हैं। फिर भी ऐसा क्यों है कि तुम इतने क्रूर-हृदय हो? कहाँ तो मनुष्यका मांस और कहाँ तुम्हारी अन्तिम अवस्था, इससे तो यही सिद्ध होता है कि दुष्टात्मा लोगोंमें कभी भी प्रशमभावना नहीं हो पाती। अथवा मेरा यह सब कहना निष्प्रयोजन है; क्योंकि जब मैंने वचन दे दिया तब तो तुम्हें भोजन देना ही है।
उससे ऐसा कहकर और नर-मांस देनेका निश्चय करके विप्रवर सुकृषने अविलम्ब हमलोगोंको पुकारा और हमारे गुणोंकी प्रशंसा की। तत्पश्चात् उन्होंने हमलोगोंसे, जो विनम्रतापूर्वक हाथ जोड़े बैठे थे, बड़ा कठोर वचन कहा-'अरे पुत्रो! तुम सब आत्मज्ञानी होकर पूर्णमनोरथ हो चुके हो, किंतु जैसे मुझपर अतिथि-ऋण है, वैसे ही तुमपर भी है; क्योंकि तुम्हीं मेरे पुत्र हो। यदि तुम अपने गुरुको जो तुम्हारा एकमात्र पिता है, पूज्य मानते हो तो निष्कलुष हृदयसे मैं जैसा कहता हूँ वैसा करो।' उनके ऐसा कहनेपर गुरुके प्रति श्रद्धालु हमलोगोके मुँहसे निकल पड़ा कि 'आपका जो भी आदेश होगा, उसके विषयमें आप यही सोचें कि उसका पालन हो गया।'
ऋषिने कहा-'भूख और प्याससे व्याकुल हुआ यह पक्षी मेरी शरणमें आया है। तुमलोगोंके मांससे इसकी क्षणभरके लिये तृप्ति हो जाती तो अच्छा होता। तुमलोगोंके रक्तसे इसकी प्यास बुझ जाय, इसके लिये तुमलोग अविलम्ब तैयार हो जाओ।' यह सुनकर हमलोग बड़े दुखी हुए और हमारा शरीर काँप उठा, जिससे हमारे भीतरका भय बाहर निकल पड़ा और हम कह उठे-'ओह! यह काम हमसे नहीं हो सकता।'
हमलोगोंकी इस प्रकारकी बात सुनकर सुकृष मुनि क्रोधसे जल-भुन उठे और बोले-'तुमलोगोंने मुझे वचन देकर भी उसके अनुसार कार्य नहीं किया, इसलिये मेरी शापाग्निमे जलकर पक्षियोनिमे जन्म लोगे।'
हमलोगोंसे ऐसा कहकर उन्होंने उस पक्षीसे कहा-'पक्षिराज। मुझे अपना अन्त्येष्टि-संस्कार और शास्त्रीय विधिसे श्राद्धादि कर लेने दो, इसके बाद तुम निश्चिन्त होकर यहीं मुझे खा लेना। मैंने अपना ही शरीर तुम्हारे लिये भक्ष्य बना दिया है।' आप अपने योगबलसे अपना यह शरीर छोड़ दें, क्योंकि मैं जीवित जन्तुको नहीं खाता।' पक्षीने कहा। पक्षीके इस वचनको सुनकर मुनि सुकृष योगयुक्त हो गये। उनके शरीर-त्यागके निश्चयको जानकर इन्द्रने अपना वास्तविक शरीर धारण कर लिया और कहा-'विप्रवर! आप अपनी बुद्धिसे ज्ञातव्य वस्तुको जान लीजिये। आप महाबुद्धिमान् और परम पवित्र हैं। आपकी परीक्षा लेनेके लिये ही मैंने यह अपराध किया है। आजसे आपमें ऐन्द्र अथवा परमैश्वर्ययुक्त ज्ञान प्रादुर्भूत होगा और आपके तपश्चरण तथा धर्म-कर्ममें कोई भी विघ्न उपस्थित न होगा।'
ऐसा कहकर जब इन्द्र चले गये, तब हमलोगोंने अपने कुद्ध पिता महामुनि सुकृषसे सिर झुकाकर निवेदन किया-'पिताजी! हम मृत्युसे भयभीत हो गये थे, हमें जीवनसे मोह हो गया था, आप हम दोनोंको क्षमा-दान दें। तब उन्होंने कहा-'मेरे बच्चो! मेरे मुँहसे जो बात निकल चुकी है, वह कभी मिथ्या न होगी। आजतक मेरी वाणीसे असत्य कभी भी नहीं निकला है। मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि दैव ही समर्थ है और पौरुष व्यर्थ है। भाग्यसे प्रेरित होनेसे ही मुझसे ऐसा अचिन्तित अकार्य हो गया है। अब तुमलोगोंने मेरे सामने नतमस्तक होकर मुझे प्रसन्न किया है, इसलिये पक्षीकी योनिमें पहुँच जानेपर भी तुमलोग परमज्ञानको प्राप्त कर लोगे।' भगवन्! इस प्रकार पहले दुदैववश पिता सुकृष ऋषिने हमें शाप दिया था, जिससे बहुत समयके बाद हमलोगोंने (मानव-योनि छोड़कर) दूसरी योनिमें जन्म लिया है।
उनकी ऐसी बात सुनकर परमैश्वर्यवान् शमीक मुनिने समस्त समीपवर्ती द्विजगणोंको सम्बोधित करके कहा-'मैंने आपलोगोंके समक्ष पहले ही कहा था कि ये पक्षी साधारण पक्षी नहीं हैं, ये परमज्ञानी हैं, जो अमानुषिक युद्धमें भी मरनेसे बच गये।' इसके बाद प्रसन्नहृदय महात्मा शमीक मुनिकी आज्ञा पाकर वे पक्षी पर्वतोंमें श्रेष्ठ वृक्षों और लताओंसे भरे विन्ध्याचल पर्वतपर चले गये।
वे धर्मपक्षी आजतक उसी विन्ध्यापर्वतपर निवास कर रहे हैं और तपश्चरण तथा स्वाध्यायमें लगे हैं एवं समाधि-सिद्धिके लिये दृढ़ निश्चय कर चुके हैं। (मार्कण्डेयपुराण)
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विनामूल्य पूर्वावलोकन
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