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गीता प्रेस, गोरखपुर >> पौराणिक कथाएँ

पौराणिक कथाएँ

गीताप्रेस

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :122
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 939
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है पौराणिक कथाएँ.....

कर्तव्यपरायणताका अद्भुत् आदर्श
प्राचीन कालमें सर्वसमृद्धिपूर्ण वर्धमान नगरमें रूपसेन नामका एक धर्मात्मा राजा था। एक दिन उसके दरबारमें वीरवर नामका एक गुणी व्यक्ति अपनी पत्नी, कन्या एवं पुत्रके साथ वृत्तिके लिये उपस्थित हुआ। राजाने उसकी विनयपूर्ण बातोंको सुनकर प्रतिदिन एक सहस्र स्वर्णमुद्राका वेतन नियत कर सिंहद्वारके रक्षकके रूपमें उसकी नियुक्ति कर ली। दूसरे दिन राजाने अपने गुप्तचरोंसे जब पता लगाया तो ज्ञात हुआ कि वह अपना अधिकांश द्रव्य यज्ञ, तीर्थ, शिव, विष्णुके 'मन्दिरोंमें आराधनादि-कार्यों तथा साधु, ब्राह्मण एवं अनाथोंमें वितरित कर अत्यल्प शेषसे अपने परिजनोंका पालन करता है। इससे राजाने प्रसन्न होकर उसकी नियुक्तिको पूर्णरूपसे स्थायी कर दिया।

एक दिन आधी रातमें जब मूसलाधार वृष्टि, बादलोंकी गरज, विद्युत् एवं झंझावातसे रात्रिकी विभीषिका सीमा स्पर्श कर रही थी, श्मशानसे किसी नारीके करुण-क्रन्दनकी ध्वनि राजाके कानोंमें पड़ी। राजाने सिंहद्वारपर उपस्थित वीरवरसे इस रुदन-ध्वनिका पता लगानेके लिये कहा। जब वीरवर तलवार लेकर चला तब राजा भी उसके भयकी आशंका तथा सहयोगार्थ एक तलवार लेकर गुपारूपसे उसके पीछे लग गया। वीरवरने श्मशान पहुँचकर एक स्त्रीको वहाँ रोते देखा और उससे जब इसका कारण पूछा, तब उसने कहा कि 'मुझे इस राज्यकी लक्ष्मी अथवा राष्ट्रलक्ष्मी समझो। इसी मासके अन्तमें राजा रूपसेनकी मृत्यु हो जानेपर मैं अनाथ होकर कहाँ जाऊँगी, इसीलिये रो रही हूँ।' वीरवरने राजाके दीर्घायुके लिये जब उससे उपाय पूछा, तब उसने वीरवरके पुत्रकी चण्डिकाके सामने बलि देनेसे राजाके शतायु होनेकी बात कही। फिर क्या था? वीरवर उलटे पाँव घर लौटकर पत्नी, पुत्र आदिको जगाकर और उनकी सम्मति लेकर उनके साथ चण्डिका-मन्दिरमे पहुँचा। राजा भी गुपारूपसे पीछे-पीछे सर्वत्र जाता रहा। वीरवरने देवीकी प्रार्थना कर राजाकी आयु बढानेके लिये अपने पुत्रकी बलि चढ़ा दी। इसे देखते ही उसकी बहनका दुःखसे हृदयस्फोट हो गया। फिर उसकी माता भी चल बसी। वीरवर इन तीनोंका दाहकर स्वयं भी राजाकी आयुकी वृद्धिके लिये बलि चढ़ गया।

राजा छिपकर यह सब देख रहा था। उसने देवीकी प्रार्थना की। अपने जीवनको व्यर्थ बताते हुए और अपना सिर काटनेके लिये उसने ज्यों ही तलवार खींची त्यों ही देवीने प्रकट होकर उसका हाथ पकड़ लिया और वर माँगनेके लिये कहा। राजाने देवीसे परिजनों-सहित वीरवरको जिलानेकी प्रार्थना की। फलतः देवीने सबको जिला दिया और राजा चुपकेसे वहाँसे चलकर अपनी अट्टालिकामें जाकर लेट गया। इधर वीरवर भी चकित होता हुआ तथा देवीकी कृपा मानता हुआ अपने पुनर्जीवित परिवारको घरपर छोड़कर राजप्रासादके सिंहद्वारपर खड़ा हो गया। जब राजाने उसके वहाँ उपस्थितिके लक्षणोंसे परिचित होकर उसे बुलाकर अज्ञात नारीके रुदनका कारण पूछा, तब वीरवरने कहा 'राजन्! वह कोई चुड़ैल थी और मुझे देखते ही अदृश्य हो गयी, चिन्ताकी कोई बात नहीं।'

इसपर राजाने मन-ही-मन उसकी धीरता तथा स्वामिभक्तिकी प्रशंसा की और प्रातःकाल सारी बातको अपने सभासदोंसे बतलाकर वीरवरको पुत्रसहित कर्नाट एवं लाटदेश (महाराष्ट्र-गुजरात)-का अधिपति बना दिया। उन्होंने वीरवरको अपने तुल्य ही समृद्धिशाली बनाकर अपनी मैत्रीकी दृढ़ताका निश्चय किया।

यह कथा परोपकार, कर्तव्यपरायणता, दीन एवं अनाथकी सेवा, स्वामिभक्ति एवं परस्पर प्राणरक्षार्थ आत्मोत्सर्गकी भावनाकी तीव्र प्रेरणा प्रदान करती है।

(भविष्यपुराण)
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