गीता प्रेस, गोरखपुर >> पौराणिक कथाएँ पौराणिक कथाएँगीताप्रेस
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प्रस्तुत है पौराणिक कथाएँ.....
राजा राज्यवर्धनपर भगवान् सूर्यकी कृपा
पूर्वकालमें दम नामक एक राजा थे, उनके पुत्रका नाम राज्थवर्धन था। वे
भलीभांति पृथ्वीका पालन करते थे। उनके राष्ट्रमें धन-जन प्रतिदिन बढ़ रहा था।
उनसे अन्य राजा और सम्पूर्ण राष्ट्र अत्यन्त प्रसन्न और संतुष्ट थे। उनका
विवाह राजा विदूरथकी मानिनी नामकी कन्याके साथ हुआ था। किसी समय मानिनी
राजसेवकोंके समक्ष ही राजाके सिरपर तेल लगा रही थी, उसी समय उसकी आँखोंसे
आँसू गिर पड़े। वे अश्रुकण जब राजाके शरीरपर गिरे, तब उन्होंने मानिनीकी ओर
देखा और पूछा-'मानिनि! क्यों रो रही हो?' पर उसने कुछ भी उत्तर न दिया।
राज्यवर्धनने पुनः मानिनीसे जिज्ञासा की-'तुम क्यों रो रही हो?'तब उस सुमध्यमाने कहा-'राजन्! मुझ मन्दभागिनीके शोकका कारण आपके केशोंके मध्य एक श्वेत केश है।' यह सुनकर राजा सभी उपस्थित राजगण और पौरजनोंके सम्मुख हँसते-हँसते पत्नीसे कहने लगे-'तुम रोओ मत! सभी प्राणियोंमें जन्म, वृद्धि और परिणाम आदि विकार लक्षित होते हैं, इसके लिये रोना व्यर्थ है।'
'हमने सभी वेदोंका अध्ययन, हजारों यज्ञोंका अनुष्ठान, पुत्रका उत्पादन, अतिशय दुर्लभ विषयोंका तुम्हारे साथ रहकर उपभोग, भलीभांति पृथ्वीका पालन तथा बाल्यावस्था और युवावस्थाके योग्य सभी कार्योंका सम्पादन किया है। अब वृद्धावस्थामें हमारा वनमें निवास करना कर्तव्य है।' तब समीपस्थ अन्य राजाओं और पुरवासियोने राजाको प्रणाम कर विनयपूर्वक कहा-'राजन्! आपकी पत्नीका रोना तो निरर्थक है, किंतु हमलोगों अथवा सभी प्राणियोंके लिये यह रोनेका समय उपस्थित हो गया है। यदि आप वन जायँगे तो हमलोग भी साथमें ही प्रस्थान करेंगे। इसके फलस्वरूप पृथ्वीपर रहनेवालोंकी निश्चय ही श्रौत-स्मार्त सभी क्रियाएँ समाप्त हो जायँगी।' पर राजाने वनमें जानेका दृढ़ निश्चय कर दैवज्ञोंसे पुत्रके राज्याभिषेकके लिये शुभ मुहूर्त्तके विषयमें पूछा।
वे बोले-'राजन्! आप प्रसन्न हों और कृपा करके पहले जैसे हमलोगोंका रक्षण करते थे, वैसे ही रक्षण करें। भूप! आपके वन जानेसे सभी लोग दुःखी हो जायँगे। इसलिये राजन्! आप वैसा ही कार्य करें जिससे सभी प्राणी कष्टका अनुभव न करें। हमलोग आपसे शून्य इस सिंहासनको देखना नहीं चाहते।' इस प्रकार उन लोगों तथा अन्यान्य ब्राह्मणों, पुरवासियों, राजाओं, मन्त्रियों, मृत्योंके द्वारा पुनः-पुनः निवेदन करनेपर भी राजाने वनवासकी इच्छाका परित्याग न कर-'यमराज कभी भी क्षमा न करेगा' यही उत्तर दिया। जब राजाने अपने वनवासके विचारका परित्याग नहीं किया तब ब्राह्मण, वृद्ध, पुरवासीगण, मन्त्री, सेवकवर्ग सब मिलकर विचार करने लगे कि अब क्या किया जाय। धर्मप्रवर राजाके प्रति प्रेमके कारण उन लोगोंने विचार कर यह निश्चय किया कि हमलोग भलीभांति ध्यानरत होकर तपस्याके द्वारा भगवान् भास्करकी आराधना करें और उनसे राजाके चिरजीवी होनेकी प्रार्थना करें। भगवान् भास्करकी आराधनामें सबको अतिशय प्रयत्नशील देखकर काम नामक एक गन्धर्वने आकर कहा-'कामरूप नामक विशाल पर्वतपर सिद्धोंके द्वारा प्रतिष्ठित एक 'गुरु-विशाल' नामक वनमें है। वहाँ जाकर संयतचित्तसे सूर्यदेवकी आराधना करनेसे सभी कामनाओंकी प्राप्ति होगी।' ग्न्धर्वके इस वाक्यको सुनकर वे सभी अरण्यमें गये। वहाँ अतिशय भक्तिपूर्वक तीन मासतक उनके स्तव-पाठपूर्वक पूजा करनेपर भगवान-भास्कर संतुष्ट हुए। इसके बाद भगवान् भास्करने स्वयं दुर्निरीक्ष्य होनेपर भी अपने दिव्यमण्डलसे चलकर और उदयकालीन मण्डलसे समन्वित होकर उन आराधकोंको दर्शन दिया तथा वर माँगनेके लिये कहा। तब प्रजाओंने कहा-'भास्करदेव! यदि आप हमारी भक्तिसे प्रसन्न हैं तो हमलोगोंके राजा राज्यवर्धन नीरोग, विजितशत्रु, पूर्णकोष और स्थिर-यौवन होकर दस सहस्र वर्षतक जीवित रहें।' 'तथास्तु' कहकर भगवान् भास्कर वहीं अन्तर्हित हो गये और प्रजाजन भी वर-लाभसे संतुष्ट होकर राजाके पास चले आये।
सहस्रांशुकी आराधना और उनसे वर-लाभकी जो कुछ घटना हुई थी, प्रजाओंने राजासे कह सुनायी। उसे सुनकर नरेन्द्र-पत्नी मानिनी बहुत ही प्रसन्न हुईं; परंतु राजाने इस सम्बन्धमें कुछ भी नहीं कहा और वे बहुत देरतक विचार करते रहे। फिर मानिनीने हृष्ट अन्तःकरणसे पतिसे कहा-'महीपाल! आप बढ़ी हुई आयुसे अब सब प्रकारकी वृद्धि प्राप्त करें। आप नीरोग और स्थिरयौवन होकर आजसे दस सहस्र वर्ष जीयेंगे, फिर भी आप क्यों प्रसन्न नहीं हो रहे हैं?'
यह सुनकर राजाने कहा-'मैं अकेला दस सहस्र वर्षतक जीऊँगा, किंतु तुम नहीं जीओगी। तब क्या तुम्हारे वियोगसे मुझे दुख नहीं होगा? पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र और अन्यान्य प्रिय बान्धवोंकी मृत्युको देखकर क्या मुझे कम दुःख होगा? जिन्होंने मेरे लिये अपनी शिराओंको जलाकर तपस्या की, वे मर जायँगे और मैं जीवित रहकर सुख-भोग करूँगा, क्या यह मेरे लिये धिक्कारकी बात नहीं है? मानिनि! मुझे जो दस सहस्र वर्षोंकी आयु मिली है, यह मेरे लिये आपत्ति है। इससे कुछ भी अभ्युदय नहीं हुआ है। मैं आजसे उसी पर्वतपर जाकर संयत-चित्तसे निराहार रहकर भानुदेवको प्रसन्न करनेके लिये तपस्या करूँगा। वरानने! जिस प्रकार मैं उनके प्रसादसे स्थिरयौवन और निरामय होकर दस सहस्र वर्ष जीऊँगा, उसी प्रकार मेरी समस्त प्रजा, भृत्य, तुम, कन्या, पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र, सुहद् आदि भी जीवित रहें। भगवान् भास्कर जबतक ऐसा अनुग्रह न करेंगे और जबतक मेरे प्राण निकल नहीं जायँगे, तबतक मैं उसी पर्वतपर निराहार रहकर तपक्षरण करूँगा।'
इसके बाद सपत्नीक नरपतिने पूर्वोक्त पर्वत-स्थित मन्दिरमें जाकर भास्करदेवकी आराधना करना प्रारम्भ कर दिया। निराहार रहनेसे दिन-दिन जिस प्रकार राजा कृश होने लगे, वैसे ही मानिनी भी कृश होने लगी। दोनोंको शीत, वायु और धूपको सहनेका अभ्यास हो गया तथा दोनों उग्र तपस्यामें निरत हो गये। इस प्रकार सूर्यदेवकी आराधना और तपस्या करते हुए एक वर्षसे भी अधिक काल व्यतीत हो गया। अन्तमें सूर्यदेव प्रसन्न हुए और दोनोंकी अभिलाषाके अनुसार समस्त भृत्य, पुत्र, पौत्र आदिके लिये दस सहस्र वर्षोंकी आयुका वर प्रदान किया। तदनन्तर राजा रानीके साथ राजधानीमें लौट आये और प्रसन्न-चित्तसे धर्मानुकूल प्रजापालन करते हुए दस हजार वर्षोंतक राज्य-शासन करते रहे। (मार्कण्डेयपुराण)
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