गीता प्रेस, गोरखपुर >> पौराणिक कथाएँ पौराणिक कथाएँगीताप्रेस
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प्रस्तुत है पौराणिक कथाएँ.....
राजा खनित्रका सद्धाव
d पूर्वकालमें प्रांशु नामक एक चक्रवर्ती सम्राट् थे। इनके ज्येष्ठ पुत्रका
नाम प्रजाति था। प्रजातिके खनित्र, शौरि, उदावसु सुनय, महारथ नामक पाँच पुत्र
हुए। उनमें खनित्र ही अपने पराक्रमसे विख्यात राजा हुए थे। वे शान्त,
सत्यवादी, शूर सब प्राणियोंके हितैषी, स्वधर्मपरायण, सर्वदा वृद्ध-सेवी,
विजय-सम्पन्न और सर्वलोकप्रिय थे। वे सदा यही चाहते थे कि सब प्राणी आनन्दका
उपभोग करें। उन्होंने प्रीतिपूर्वक भाइयोंको विभिन्न राज्योंमें प्रतिष्ठित
कर स्वयं सागरस्वरूप वस्त्रसे मण्डित पृथ्वीका पालन करने लगे। उन्होंने
शौरिको पूर्वप्रान्त, उदावसुको दक्षिणदेश, सुनयको पश्चिमदेश एवं महारथको
उत्तरदेशके राज्यपदपर प्रतिष्ठित किया। खनित्र और उनके भाइयोंके राज्यमें
विभिन्न गोत्रवाले मुनिगण पौरोहित्य-कर्मके लिये नियुक्त थे।अत्रिकुलमें उत्पन्न सुहोत्र नामक द्विज शौरिके, गौतम-वंशमें उत्पन्न कुशावर्त उदावसुके, कश्यप-गोत्रमें उत्पन्न प्रमति राजा सुनयके तथा वसिष्ठ-गोत्रमें उत्पन्न वसिष्ठ राजा महारथके पुरोहित थे। ये चारों राजा अपने राज्योंका उपभोग करते थे और खनित्र उन सभी महीपतियोके अधीश्वर थे।
किसी समय शौरिके मन्त्री विश्ववेदीने अपने स्वामीसे कहा-'इस समय एकान्त है, इसलिये मैं कुछ कहना चाहता हूँ। यह समस्त पृथ्वी जिसके अधीन है, वह राजा और उसके पुत्र-पौत्रादि वंशधर ही सदा राजा होंगे। दूसरे भ्राताओंके अधिकारमें छोटे-छोटे राज्य हैं, जो पुत्रोंमें बँटकर छोटे होते जायँगे और अन्तमें उनके वंशधरोंको कृषिसे जीविका निर्वाह करनी पड़ेगी। राजन्! भाई कभी भाईका उद्धार करना नहीं चाहता, फिर भाईके पुत्रोंपर स्नेह कहाँसे हो सकता है, अतः मेरी तो यही मन्त्रणा है कि आप ही पितृ-पितामहादिके राज्यका शासन कीजिये। मैं इसीके लिये प्रयत्नशील हूँ।'
यह सुनकर राजाने कहा-'मन्त्रिवर। वर्तमान महीपाल (खनित्र) हमारे बड़े भाई हैं और हम उनके अनुज हैं। इसीसे वे समस्त पृथ्वीका शासन करते हैं और हम छोटे-छोटे राज्योंका उपभोग करते हैं। महामते! हम पाँच भाई हैं और पृथ्वी तो एक ही है! फिर समग्र पृथ्वीके ऐश्वर्यका स्वतन्त्ररूपसे उपभोग करनेमें हम सभी कैसे समर्थ हो सकते हैं?'
मन्त्रीने कहा-'मेरा अभिप्राय यह है कि उस पृथ्वीको आप ही स्वीकार करें और सबके प्रधान बनकर पृथ्वीका शासन करें।'
अन्तमें राजा शौरिके प्रतिज्ञा कर लेनेपर मन्त्री विश्ववेदीने उनके अन्यान्य भाइयोंको वशीभूत कर लिया और उनके पुरोहितोंको अपने यहाँ शान्तिकर्ममें नियुक्त कर खनित्रके अनिष्टके लिये अत्यन्त उग्र आभिचारिक (मन्त्र-तन्त्रादि) कर्मका अनुष्ठान प्रारम्भ करा दिया। उसने खनित्रके अन्तरंग विश्वासपात्र सेवकोंको अपनी ओर मिला लिया और ऐसी चालें चलीं, जिनसे शौरिका राजदण्ड अप्रबाधित हो जाय। चारों पुरोहितोंके आभिचारिक प्रयोगसे चार भयानक कृत्याएँ उत्पन्न हुईं, जिन्हें देखकर ही छाती दहल जाती थी। वे हाथमें बड़े-बड़े शूल लिये हुए थीं। वे शीघ्रतापूर्वक खनित्रके पास गयीं, किंतु निष्पाप राजाके पुण्य-बलसे शीघ्र ही हतप्रभ हो गयीं। तब वे लौटकर उन चारों राजपुरोहितों और विश्ववेदीके निकट आयीं। उन्होंने शौरिको दुष्ट मन्त्रणा देनेवाले मन्त्री विश्रवेदी और उन पुरोहितोंको जलाकर भस्म कर दिया।
उस समय सभी लोगोंको इस बातसे बड़ा आश्चर्य हुआ कि भिन्न-भिन्न नगरोंमें निवास करनेवाले सब-के-सब पुरोहित एक साथ कैसे नष्ट हो गये। महाराज खनित्रने जब अपने भाइयोंके पुरोहितों और एक भाईके मन्त्री विश्ववेदीके एकाएक भस्म हो जानेका समाचार सुना, तब उन्हें बडा दुःख हुआ। उन्होंने घरपर आये हुए महर्षि वसिष्ठसे भाइयोंके पुरोहितों और मन्त्रीके विनाशका कारण पूछा। तब महामुनि वसिष्ठने अन्तर्दृष्टिसे ज्ञात कर शौरि और उनके मन्त्रीमें जो बातचीत हुई थी तथा पुरोहितोंने जो कुछ किया था, वह सब वृत्तान्त कह सुनाया।
राजाने कहा-'मुने! मैं हतभागी और बड़ा अयोग्य हूँ। दैव मेरे प्रतिकूल है और मैं सब लोकोंमें निन्दित तथा पापी हूँ। मुझ अपुण्यात्माको धिक्कार है; क्योंकि मेरे कारण ही चार ब्राह्मणोंका विनाश हुआ है। अतः मुझसे बढ़कर भूमण्डलमें दूसरा पापी कौन हो सकता है?'
इस प्रकार पृथ्वीपति खनित्रने उद्विग्न होकर वनमें चले जानेकी इच्छासे अपने क्षुप नामक पुत्रका राज्याभिषेक कर दिया और पत्नियोंको साथ लेकर तपस्याके लिये वनमें गमन किया। उन नृपश्रेष्ठने वनमें जाकर वानप्रस्थ-विधानके अनुसार साढ़े तीन सौ वर्षोंतक तपस्या की। अन्तमें उन वनवासी राजाने तपस्याद्वारा अपने शरीरको क्षीण कर सब इन्द्रियोंका निरोध करते हुए प्राणोंका विसर्जन कर दिया। अन्यान्य नृपति सैकड़ों अश्वमेध-यज्ञ करके भी जिस लोकको प्राप्त नहीं कर सकते, खनित्रने मृत्युके पश्चात् उस सर्वाभीष्टप्रद पुण्य लोकको प्राप्त कर लिया।
(मार्कण्डेयपुराण)
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