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गीता प्रेस, गोरखपुर >> पौराणिक कथाएँ

पौराणिक कथाएँ

गीताप्रेस

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :122
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 939
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है पौराणिक कथाएँ.....

कुवलाश्वके द्वारा जगत्की रक्षा

पूर्वकालमें धुन्धु नामका एक राक्षस हुआ था। वह ब्रह्मासे वरदान पाकर देवताओं, दानवों, दैत्यों, नागों, गन्धर्वों और राक्षसोंके द्वारा अवध्य हो गया था तथा उसने तीनों लोकोंको जीतकर अपने अधीन कर लिया था। वह अहंकारका पुतला था, अतः सदा अमर्षमें भरा रहता और सदा सबको सताया करता था। अन्तमें उसके मनमें एक भयानक विचार उत्पन्न हुआ। वह सारे विश्वका विनाश करनेपर तत्पर हो गया। इसके लिये उसने उज्जालक नामक मरु-प्रदेशमें तपस्या प्रारम्भ कर दी।

उसने अपने अनुयायियोंके साथ बालूके पहाड़को हटाकर और जमीनपर लेटकर अपने ऊपर सारा बालू लाद लिया। फिर प्राणायामकी साधनाके द्वारा उसकी कठिन तपस्या प्रारम्भ हुई। उसकी इस घोर तपस्याका एकमात्र उद्देश्य था-विश्वका विनाश।

इस तपस्याकालमे भी उसका प्राणियोंको सतानेवाला काम रुका नहीं था। वह वर्षके अन्तमें जब साँसें छोड़ता तब चारों ओर आगके गोले गिरने लगते, भयानक भूचाल आते, सात दिनोंतक सारी पृथ्वी काँपती रहती, सारा आकाश धुएँ और धुंधसे ढक जाता था। इन प्रलयकारी क्रियाओंसे समस्त प्राणी भयभीत रहते थे। बहुतोंकी मृत्यु हो जाती थी।

उत्तंक मुनिका आश्रम मारवाड़में था, अतः वह अत्यधिक प्रभावित होता था। उन्होंने विश्वके त्राणके लिये कमर कस ली। वे राजा वृहदश्वके पास पहुँचे। उन्होंने कहा-'राजन्! आप धुन्धुको मार डालिये नहीं तो वह सारे विश्वका विनाश कर डालेगा। उसे आप ही मार सकते हैं। एक तो आप स्वयं समर्थ हैं, दूसरे मेरी प्रार्थनासे भगवान् विष्णु अपना तेज आपमें आविष्ट कर देंगे।'

उस समय राजा बृहदश्व अपने पुत्र कुवलाश्वको राज्यपर अभिषिक्त कर वन जा रहे थे। उन्होंने उत्तंक मुनिसे कहा-'मुनिवर! आपका विचार बहुत उदात्त है। उसका कार्यरूपमें परिणत होना भी आवश्यक है, किंतु वह कार्य अब मेरा पुत्र कुवलाश्व करेगा; क्योंकि मैंने वानप्रस्थ-आश्रमके लिये अस्त्र-शस्त्रका त्याग कर दिया है।'

कुवलाश्वने पिताके इस आदेशको शिरोधार्य कर लिया। उसका मन विश्वके कल्याणकी भावनासे भर गया। उसने अपने पुत्रों और सेनाके साथ युद्धके लिये प्रस्थान कर दिया। उत्तंक मुनि भी उसके साथ थे। इस अवसर पर भगवान् विष्णु अपने तेजः-स्वरूपसे कुवलाश्वमें प्रविष्ट हो गये। विश्वमें प्रसन्नताकी लहर दौड़ पड़ी। बिना बजाये ही देवताओंकी दुन्दुभियाँ बज उठीं। आकाशसे फूलोकी वृष्टि होने लगी। सारा वातावरण दिव्य गन्धसे सिक्त हो गया। वायु अनुकूल होकर बहने लगी।

कुवलाश्व दल-बलके साथ धुन्धुके स्थानपर जा पहुँचे। वहाँ बालूके समुद्रके अतिरिक्त और कुछ दीखता न था। परिश्रमके साथ बालूका वह समुद्र खोदा जाने लगा। सात दिनोंके प्रयासके बाद वह खुदाई पूरी हुई। तब अनुयायियोंके साथ धुन्धु दिखायी पड़ा। उसका स्वरूप बड़ा विकराल था। कुवलाश्वके पुत्रोंने उसे घेरकर उसपर आक्रमण कर दिया। धुन्धुने कुद्ध होकर उनके सभी अस्त्र-शस्त्रोंको चबा डाला। तत्पश्चात् उनपर अपने मुखसे प्रलयकालीन अग्निके समान आगके गोले उगलने लगा। थोड़ी ही देरमें कुवलाश्वके इक्कीस हजार पुत्र जलकर खाक हो गये। केवल तीन पुत्र बच गये। यह देख राजा कुवलाश्व धुन्धुपर टूट पड़े। इस बार धुन्धुने अपार जलराशि प्रकट की। महाबली कुवलाश्वने योगबलसे सबका शोषण कर लिया। फिर आग्नेयास्त्रका प्रयोगकर धुन्धुको सदाके लिये सुला दिया। तभीसे कुवलाश्व धुन्धुमार नामसे विख्यात हुए। (वायुपुराण)

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