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रहस्य-रोमांच >> एक मुट्ठी दर्द

एक मुट्ठी दर्द

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :240
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9370
आईएसबीएन :0000

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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

- ‘‘नहीं…नहीं…तुम मेरे भाई नहीं हो सकते...तुम खूनी हो...हत्यारे...पापी, बहन की मांग का सिंदूर उजाड़ा है, तुमने अपनी बहन के पति की हत्या की है। कभी नहीं…एक भाई कभी ऐसा नहीं कर सकता, मैं तुम्हें कभी क्षमा नहीं करूंगी, कभी नहीं। नीच, कमीने, जलील, तुमने भाई और बहन के पवित्र रिश्ते के बीच वह दीवार खड़ी कर दी है कि आज से समाज की प्रत्येक नारी अपने भाई से थर-थर कांपेगी...एक भाई को भाई कहते हुए प्रत्येक बहन की जुबान लड़खड़ा जाएगी, प्रत्येक बहन के हाथ भाई की कलाई में राखी बांधते समय कांप उठेंगे। तुम...तुम एक ऐसे जघन्य पापी हो कि ये सारा समाज तुम्हें कभी क्षमा नहीं करेगा... भाई और बहन के रिश्ते के बीच जो दीवार तुमने उत्पन्न की है, वह कभी पट न सकेगी... कभी नहीं। तुम पापी हो... हत्यारे... खूनी... कमीने... जलील... नीच !’’

- ‘‘नहीं…नहीं... कुसुम, मेरी बहन, ऐसा मत कहो।’’ वह बूढ़ा व्यक्ति जैसे एकदम तड़पकर सिसक पड़ा… - ‘‘मानता हूँ... मानता हूं मेरी बहन कि मैंने कमल की हत्या की है... तुम्हारे पति को मारा है... तुम्हारी मांग का सिंदूर उजाड़ा है, लेकिन कुसुम... लेकिन...।’’

अभी वह बूढ़ा भावावेश में बहकर कुछ कहने ही जा रहा था कि किसी ने उसके कंधे पकड़कर जोर से झंझोड़ दिया। बूढ़ा चौंका ! भावनाओं के आवेश से बाहर आया। सामने उसका साथी खड़ा था, दस वर्ष पुराना साथी जग्गू। जग्गू, जो उसके साथ इसी कोठरी में दस वर्ष से रह रहा है।

- प्रकाश...प्रकाश...पागल हो गए तो क्या ? ये क्या पागलपन है ? आज तुम फिर उन्हें भावनाओं में खो गए। प्रकाश, तुम उन बातों को याद ही क्यों करते हो ? किससे बातें कर रहे थे तुम ? कहां हैं तुम्हारी बहन... ?’’ जग्गू उसे झंझोड़ता हुआ बोला।

- ‘‘ऊंह... ।’’ प्रकाश नामक वह बूढ़ा व्यक्ति चौंका। बूढ़े के नयनों से अश्रु बहकर उसकी लंबी अधपकी दाढ़ी में उलझ जाते थे।

इस समय वह जेल की एक कोठरी में था। उसने हत्या की थी - अपनी ही बहन के पति की हत्या। आज से लगभग बीस वर्ष पूर्व। हां, लगभग बीस ही वर्ष। उसे उम्र कैद की सजा सुना दी गई थी। यानी चालीस वर्ष और अब…उसकी कैद के ये चालीस वर्ष समाप्ति की ओर बढ़ रहे थे। जेल में रात और दिन मिलकर दो दिन माने जाते हैं अतः वास्तविक जिंदगी में ये चालीस वर्ष बीस वर्ष होते हैं। इन बीस वर्षों में उसने न कभी दाढ़ी बनवाई है और न ही बाल।

आयु वृद्धावस्था में पग रख चुकी है। लंबी दाढ़ी के स्याहपन को सफेदी ने अपने आगोश में छुपा लिया है। बाल भी लगभग पूर्ण रूप से सफेद हो गए हैं। उसका सुंदर और गोरा चेहरा लंबी-लंबी दाढ़ी और बालों के पीछे छुपकर रह गया है। नयन वीरान-से हैं, मानो प्रत्येक क्षण कुछ खोज रहे हों।

उसकी आंखों में एक तड़प है, जो बीस वर्ष से निरंतर बनी हुई है। एक प्यास है, जो शायद प्यासी ही रह जाएगी। इस समय उसकी आंखों से आंसू निकल रहे थे। उसके हृदय में तड़पती तड़प अपनी चरम सीमा पर थी। उसने भीगे हुए नेत्रों से सामने देखा। सामने जग्गू खड़ा हुआ था। बीस वर्ष जीवन में आया हुआ सबसे प्यारा साथी।

जग्गू आज से दस वर्ष ही यहां आया था। वह भी उम्र कैद का मुजरिम था अतः उसकी सजा में दस वर्ष शेष थे। वही जग्गू उसके सामने खड़ा कह रहा था - ‘‘किससे बातें कर रहे थे ? कुसुम कहां है ?’’

- ‘‘कुसुम...ऽ...!’’ उस बूढ़े के लबों से बड़ी कठिनता के साथ जैसे एक आह टपकी - ‘‘कहा है कुसुम... कुसुम कहां है ? मेरी बहन ! कुसुम !’’ बूढ़ा प्रकाश जैसे एकदम पागल-सा लगने लगा।

- ‘‘प्रकाश !’’ जग्गू उसे और अधिक झंझोड़ता हुआ बोला-‘‘यहां कुसुम नहीं है... तुम्हारी बहन भला यहां जेल में कैसे आ सकती है ?’’

- ‘‘ऐ... !’’ अनायास उसके मुख से निकला और फिर पागल की भांति एकदम बोला - ‘‘लेकिन जग्गू...मैंने अभी-अभी अपनी बहन देखी थी। यहीं, मेरी आंखों के सामने ही तो थी।’’

- ‘‘वे तुम्हारे विचार थे मेरे दोस्त।’’ जग्गू प्यार से उसे गले लगाता हुआ बोला - ‘‘जो तुम्हें एक हकीकत की तस्वीर बनकर दिखने लगे थे।’’

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