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अग्निगर्भ (अजिल्द)

महाश्वेता देवी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :226
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9211
आईएसबीएन :9788183612203

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अग्निगर्भ ....

Agnigarbha - A hindi book by Mahasweta Devi

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

बटाईदारी-अधिया जैसी घृणित प्रथा में किसान पिस रहे हों, खेतिहर मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी न मिले, बीज-खाद-पानी बिजली के लाले पड़े तो उनका अस्तित्व दाँव पर होता है, ऐसे में वह सामंती हिंसा के विरूद्ध हिंसा को चुन ले तो क्या आश्चर्य?

अग्निगर्भ का संथाल किसान बसाई टुडू किसान-संघर्ष में मरता है। लाश जलने के बावजूद उसके फिर सक्रिय होने की खबर आती है। बसाई फिर मारा जाता है। वह अग्निबीज है और अग्निगर्भ है सामंती कृषि-व्यवस्था।
महाश्वेता देवी मानती हैं कि धधकते वर्ग-संघर्ष को अनदेखा करने और इतिहास के इस संधिकाल में शोषितों का पक्ष न लेनेवाले लेखकों को इतिहास, माफ नहीं करेगा। असंवेदनशील व्यवस्था के विरूद्ध शुद्ध, सूर्य-समान क्रोध ही उनकी प्रेरणा है। एक अत्यन्त प्रेरक कृति।

 

श्री ओमप्रकाश की स्मृति को

 

जिन्हें मैंने कभी नहीं देखा किन्तु जो फिर भी मेरे अत्यन्त निकट थे क्योंकि हमारी अवस्थाएँ और मूल्य समान थे, और जिन्होंने मुझे हिन्दी पाठकों से परिचित कराया।

 

-महाश्वेता देवी

 

 

भूमिका

 

 

पश्चिम बंगाल में और भारतवर्ष में कृषक वर्ग के (मुख्य रूप से भूमिहीन किसानों के, जिनकी संख्या आजकल प्रायः वर्ग के किसानों के अनुपात में सौ में 26.33 भाग है) असंतोष और विद्रोह का इतिहास समकालीन घटना-मात्र नहीं है। आधुनिक इतिहास के हर पर्व में विद्रोह का प्रयास, उनके प्रति दूसरे वर्ग के शोषण के चरित्र को प्रकट करता है, कालान्तर में भी अब तक वह प्रायः अपरिवर्तनीय बना है। संन्यासी विद्रोह, वहाबी आंदोलन, नील विद्रोह, एक समय से दूसरे समय तक और-और विद्रोहों में आरंभ कर आज के नक्सलबाड़ी आंदोलन ने प्रायः एक ही मौलिक अधिकार को ज़ोरों से ऐतिहासिक मर्यादा दी है।

1967 के मई-जून में नक्सलबाड़ी अंचल में संगठित आंदोलन की पृष्ठभूमि विषय की पुनः आलोचना में सहायक होगी। दार्जिलिंग ज़िले के नक्सलबाड़ी, खड़ीबाड़ी और फाँसी लगने वाले अंचल के अधिकांश भाग के रहने वाले आदिवासी भूमिहीन किसान हैं। उनमें मेदी, लेप्चा, भोटिया, संथाल, ओराँव राजबंसी और गोरखा संप्रदाय के लोग हैं। स्थानीय ज़मीदारों ने बहुत दिनों से चली आ रही ‘अधिया’ की व्यवस्था में उन पर अपना शोषण जारी रखा। इस व्यवस्था के नियम के अनुसार ज़मीदार भूमिहीन किसानों के बीज के लिए धान, हल-बैल, खाना और मामूली पैसे देकर अपने खेत में काम पर लगाते, उपज का अधिकांश भाग ज़मींदार के घर जाता। इसके विरोध में ही किसानों का असंतोष और विद्रोह है। उपज का बड़ा भाग ज़मींदार के घर जाना, मामूली बात पर राजी-नाराज़ी के आधार पर किसानों को ज़मीन से अलग कर देना, और सबसे अधिक ज़मीन के लिए किसान की आदिम भूख है। इस तरह असंतोष और संघर्ष के दृष्टिकोण से ही 1954 में सरकार ने ‘एस्टेट ऐक्वीज़िशन ऐक्ट’ पास किया। इस कानून की ख़ास बात थी कि कोई व्यक्ति कुल मिलाकर 25 एकड़ से अधिक ज़मीन न रख सकेगा। इस कानून के पीछे अच्छी नीयति में शक ही नहीं, लेकिन क्रियान्वित करने में ज़मीन के मालिकों की मामूली-सी ज़मीनें ही गयीं। बेमानी सारी ज़मीनें उनके पास रह गयीं। 1971 में परिवार के आधर पर कृषि भूमि की उच्चतम सीमा निश्चित कर जो क़ानून (संशोधित) पास किया गया, उसमें भी कोई लाभ नहीं हुआ। सबकों पता है, क़ानून में मछलियों को पालने के बाड़े, चाय के बाग, औद्यौगिक कारखाने इत्यादि नामों की ओट में हजारों एकड़ खेती की ज़मीन छिपा रखने के विरुद्ध कोई बात ही नहीं।

असंतोष का अन्यतम कारण, इस इलाक़े के चायबाग़ानों की मिल्कियत की ज़मीने थीं। यहाँ काम करने वाले मजदूर प्रमुखतः बाग़ान-मालिकों के लाये हुए थे। वंश-परंपरा से रहते हुए स्थानीय निवासी हो गए थे। अमानवीय शोषण के दबाव से ये सदा ही असंतुष्ट रहते और इनके बारे में 1967 के 6 जून के द स्टेट्समैन अख़बार में लिखा गया थाः ‘ऑल मोस्ट ए स्टेट ऑफ़ क्रूअल स्लेव्री।’ इन चाय-बागानों के मालिकों के क़ब्जे में जो अतिरिक्त ज़मीन थी, उसे उन्होंने आश्रित श्रमिकों में लेने की सोची, किंतु बाद में योजना छो़ड दी गयी। इससे श्रमिकों ने मन में असंतोष की गाँठ पड़ गयी। सन् पचास के मध्य भाग में चाय-बाग़ान अंचल के अधिया वालों ने मालिकों के विरुद्ध आंदोलन आरंभ किया। उनकी मूल माँग थी कि चाय-बाग़ान की अतिरिक्त भूमि सरकारी अधिकार के आश्रय में लानी होगी और उन लोगों में उसे बाँट देना होगा। 1956 में इस आंदोलन ने एक भयंकर रूप धारण कर लिया।

परिणामस्वरूप बाग़ानों के मालिकों ने ज़मीनों से अधियारियों को उखाड़ फेंका,। उनके घर-द्वार के मालिकों को पैरों के नीचे कुचलकर तहस-नहस करवा दिये। इस प्रकार के अत्याचार और अन्याय के विरुद्ध नक्सलवादी के किसान एक दिन संगठित शक्ति लेकर विद्रोह के पथ पर उतर पड़े। उस आंदोलन में एक ही तरह से वंचित-शोषित किसानो को आंध्र में, केरल में, तमिलनाडु में, बिहार में और उड़ीसा में प्रेरणा दी। जिसे नक्सलबाड़ी आंदोलन नाम दिया गया है, उसे बहुत-से नाम दिये गये हैं। सारे काम का मुक़ाबला किस, तरह किया गया, यह सभी जानते हैं। घटनाओं से चरम वामपंथी पतन, किताबी और बहुत जोशीले युवकों का फ्रस्टेशन अन्य शक्तियों और कृपाओं पर पली संस्थाओं के क्रियाकलाप जो भी क्यों न कहा जाये, कुछ तो सचमुच बाक़ी रह ही जाता है। जिन-जिन कारणों से यह आंदोलन उत्पन्न हुआ वे अक्षुण्णा और अप्रतिबंधित हैं। इस मत के अनुयायी युवक ही अहिंसक भारत में पहले-पहल हिंसा की राजनीति लाये।

यह होने पर भी भारत के नक़्शे से कुछ-कुछ चिह्न पोंछकर मिटाये नहीं जा सकते। भूखे किसानों का शोषण बे रोक-टोक चल रहा है। ज़मीदारों ने बेनामी, देश की प्रायः सारी खेती-योग्य भूमि कुछ हजा़र परिवारों की मिल्कियत में कर ली है। दूसरे नाम से चक्रवृद्धि ब्याज से पीसना और बेगार लेना चल रहे हैं। ग्राम्य भारत का स्वरूप श्मशान की तरह है। सूखे में और गरमी में आदिवासी और अन्यान्य तथाकथित अवर्ण हिंदू जाति सूखी नदी का कलेजा खोदकर पानी तलाश करते हैं, भात का फेन और आमानी1 बिकते हैं। पलामू के आदिवासी लोगों को चीना घास के बीच के सिवा और कोई चीज़ खाने को प्रायः नहीं मिलती। आंध्र में कांग्रेस की विजय के अर्थ निश्चय ही यह नहीं है वहाँ बहुत दिनों से नक्सल-दमन के नाम से अवर्णनीय अत्याचार नहीं हुए। जिन-जिन करणों से आंदोलन भड़का, वे कारण अभी मौजूद हैं। हर जन-आंदोलन के पीछे के उनके कारणों की विवरण-संख्या बाद के खोज करने वालों ने जमा की। यह देखा गया है कि आंदोलन का स्वरूप और प्रवृत्ति लेकर जितनी गड़बड़ रही, दमन में उतनी ही दक्षता रही। क्षणिक होते हुए भी किन-किन करणों से तृणभूमि में आग लगी, इस बारे में सब मौन हैं। किंतु प्रशासन के मौन रहने की क्या सच्चाई समाप्त हो जाती है ?

मेरी कहानियों की पृष्ठभूमि का उद्देश्य प्रमुखतः नक्सलबाड़ी घटना-वली और उसकी पृष्ठभूमि का उल्लेख प्रधानतः होने पर भी यह मानना होगा कि इस देश के कई दशकों की जीवन-यात्रा में वही सबसे अधिक उल्लेखनीय और अनुप्राणिक होने योग्य घटना है। बसाई-टूडू-द्रौपदी की ये सारी घटनाएँ ही तात्कालिक परिणाम में नाम और स्थानीय अवस्थिति के सिवा काल और देश के प्रतीक बन गये। अवश्य ही किसी भी आंदोलन का शायद साधन-मार्ग और परिणाम सच नहीं होता, एकमात्र अतिहास ही उनके मूल्य का निर्णायक होता है। और वर्तमान युद्धरत मनुष्य इसलिए सब देशों में अपना बनाया सारा मार्ग तोड़कर नया पथ निर्मित करने का स्वप्न देखता है और प्रतिज्ञा करता है। इतिहास के द्वंद्वपूर्ण मार्ग पर इसी कारण से निरंतर गंतव्य स्थान का सत्य ही सत्य के नाम से चित्रित होता है।
किंतु, सब जगह समस्या केवल भूमि की नहीं है। खेतमजूर के
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1. पानी, जिसमें रात को भात भिगोकर रखा जाता है।

हिसाब से किसान अपने उचित प्राप्य से वंचित हैं। पानी, बीज के धान, खाद के लिए उसकी निरंतर लड़ाई, अनाहार और ग़रीबी में उनके दिन कटते हैं। स्वतंत्रता के बाद इस देश में जो आर्थिक प्रगति हुई है, उसका फल किसी मध्यवर्गीय-मजदूर-खेतमजदूर को नहीं मिला। एक ओर, धनी-वर्ग और अधिक धनी हो गये हैं, एक आत्मतुष्ट, अशिक्षित, असभ्य नया धनिक-वर्ग उत्पन्न हुआ है। दूसरी ओर सामान्य मध्यवित्त लोगों के पास जो कुछ था उसे खोकर वे अधिक ग़रीब बन गये। निम्मवित्त एवं मध्य-वित्त वर्ग आज सम्पूर्ण रूप से क्षय होने की ओर बढ़ रहे हैं। धनी किसान और अधिक धनी हो गये हैं, मामूली ज़मीनों के मालिक अपनी अंतिम सहारे धरती को ज़मीदार-महाजन को देकर खेतमजूरों की संख्या बढ़ा रहे हैं। इसके अलावा जीवित रहने का मौलिक अधिकार भी यहाँ उनके लिए निषिद्ध है, वहीं शहरी धनी मध्यवर्ग और उच्चवर्ग के किरायेदार साहित्य के नाम से अपने-अपने आत्मानुशीलन में लगे हैं। रोम जलने के बाद नीरो ने वायलिन बजाया तो था। उनको भूलकर अपने वायलन का गुंजन ही उसे अच्छा लग रहा था।

लेकिन उसके परिणामस्वरूप उसे भी मिट जाना पड़ा। बंगाल साहित्य में बहुत दिनों तक विवेकहीन वास्तविकता से विमुख साधना चली। लेखक लोग प्रत्यक्ष को देखकर भी नहीं देख रहे हैं इसका नतीजा हुआ है, अच्छे पाठकों के मन में उनका भी परित्याग हो गया है। तमाम समस्याओं, तमाम अन्याय, बहुतेरी जातियों, तमाम लोकाचारों से युक्त देश के लेखकों की सामग्री देश और उसके मनुष्यों से नहीं मिलती, इससे अधिक आश्चर्य की बात और क्या हो सकती है ? मनुष्य के प्रति इस, प्रकार का यह नकचढ़ान संभवतः भारतवर्ष की तरह के आधे औपनिवेशिक, आधे सामंतवादी, विदेशी शोषण के अभ्यस्त बराबर बढ़ रही है, चीज़ों का दाम आकाश छू रहे हैं, शिक्षा में हद की अराजकता है, इससे मध्यवित्त संतुलन खोकर रेले में दूसरे वर्ग की ओर बढ़े जा रहे है, वर्ग-संघर्ष का क्षेत्र अधिक साफ होता जा रहा है। इतिहास के इस संधि-काल में एक ज़िम्मेदार लेखक को शोषितों के लिए क़लम उठाने पर बाध्य होना पड़ता है। अन्यथा इतिहास उसे माफ़ नहीं करेगा।

लिखने की ज़रूरत क्यों हुई, यह बात दिया गया है। संभवतः, अब कुछ घर की बात भी बताने की ज़रूरत है। मेरी रचना में निर्देशित राजनीति खोजना व्यर्थ है। शोषित और पीड़ित मानव के प्रति संवेदनशील मानव ही मेले लेखन की प्रधान भूमिका है। ‘जल’ कहानी का मास्टर भला कौन विवेकवान कांग्रेसी है। ‘एम० डब्ल्यू० बनाम लखिन्द’ गल्प का खेतमजूर-आंदोलन सी० पी० आई० के खेतीमजूर यूनियन का नेतृत्व प्रदान किया आंदोलन है। ‘ऑपरेशन बसाई टूडू’ कहानी का काली साँतरा सी० पी० एम० दल में रहा है बसाई़ टूडू ने स्वयं नक्सल-आंदोलन को भी छोड़ दिया था। और द्रोपदी’ गल्प की नायिका आदिवासी नक्सल-कार्यकर्त्री थी। मानसिकता में और कहीं एक ओर वहीं एकीभूत होना मेरे निकट परस्पर विरोधी नहीं है। जीवन गणित नहीं है और राजनीति के लिए मनुष्य नहीं, मनुष्य के स्वाधिकार को जीवित रखने के अधिकार को सार्थक करना ही समस्त राजनीति का लक्ष्य होना उचित है, यह मेरा विश्वास है।

मुझे वर्तमान समाज-व्यवस्था को बदलने की आकांक्षा है,। मैं शुद्ध दलगत राजनीति में विश्वास नहीं रखती। स्वतंत्रता के इकत्तीस बरस में मैंने अन्न, जल ज़मीन, क़र्ज, बेगार-किसी से भी देश के मनुष्य को मुक्ति पाते नहीं देखा। जिस व्यवस्था ने यह मुक्ति नहीं दी उसके विरुद्ध शुभ्र, शुद्ध और सूर्य के समान क्रोध ही मेरे समस्त लेखन की प्रेरणा है दक्षिण-वाम-सभी दल सामान्य मनुष्य से किये हुए वायदों को पूरा करने में असफल रहे हैं ऐसा मेरा विश्वास है। मेरे जीवन-काल में इस विश्वास को बदलने का कोई कारण होगा, ऐसी आशा नहीं है, इसी से सामर्थ्य के अनुसार मानव की कथा ही लिखी, जिससे कि सामना होने पर उसके लिए लज्जित न होना पड़े, क्योंकि लेखक को जीवन-काल में ही अंतिम न्याय के लिए उपस्थित होना पड़ता है और जवाबदेही की ज़िम्मेदारी रह जाती है।

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