समकालीन कविताएँ >> कटौती कटौतीनिलय उपाध्याय
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निलय उपाध्याय का ताजा कविता–संग्रह ‘कटौती’ आज लिखी जा रही कविता के समूचे परिदृश्य में एक नई काव्य–संभावना से भरपूर किसी महत्त्वपूर्ण दिशासूचक, सृजनात्मक परिघटना की तरह उपस्थित हो रहा है। पिछले कुछ वर्षों से महत्त्वपूर्ण हो उठे महा–नागर काव्य–वर्चस्व को एक नितांत वरिष्ठ काव्य–सामर्थ्य और भिन्न काव्य–संरचना के माध्यम से चुनौती देती ये कविताएँ हमें अनुभवों के उस दैनिक संसार में सीधे ले जाकर खड़ा करती हैं, जहाँ ध्वंस और निर्माण, विनाश और संरक्षण, हिंसा और करुणा के अब तक कविता में अनुपस्थित अनेक रूप अपनी समूची गतिमयता, टकराहटों, विकट अंतर्द्वंद्वों और अलक्षित आयामों के साथ उपस्थित हैं।
‘कटौती’ की ये कविताएँ हम तक हमारे अपने समय के उस वर्तमान की दुर्लभ और अलभ्य सूचनाओं को पहुँचाकर एक साथ स्तब्ध और सचेत करने का कठिन प्रयत्न करती हैं, जिस वर्तमान को इसी दौर की अन्य कविताएँ या तो अतीत की तरह देखने की आदी हो चुकी हैं, या फिर उसे ‘लोक अनुभव’ मानकर स्वयं उस महानगरी ‘फोक’ ग्रंथि का उदाहरण बन जाती हैं, जो एक तरफ सरलतावादी प्रगीतात्मकता और दूसरी तरफ ‘प्रकृतिवादी’ नॉस्टेल्जिया के प्रचलित विन्यासों और सर्व–स्वीकृत काव्योक्तियों में पिछले लंबे अरसे से अपचित होकर भी सम्मानित बनी हुई है।
निलय उपाध्याय की ये कविताएँ एक अद्भुत निस्संगता, निस्पृहता, रचनात्मक कौशल और विरल तल्लीनता के साथ, एक नई और सहजात काव्याभिव्यक्ति के द्वारा इस ‘सम्मानित’ को चुपचाप अपदस्थ करती हैं। ‘कसौटी’ की कविताएँ उस परिवर्तित होते लोक के दैनिक जीवन–प्रसंगों की कविताएँ हैं जहाँ प्रकृति प्रोद्यौगिकी से, श्रम बाजार से, पगडंडियाँ राजमार्गों से, अन्न सिक्कों और नगदी से, हवा विषाक्त रासायनिक गैसों से और जातीयताएँ आक्रांता विजातीयताओं से एक रोमांचक नियामक संघर्ष में निमग्न हैं।
इन कविताओं में सुदूर जंगलों, पहाड़ों और गाँव–देहातों से बचाकर लाई गई तेज पत्ते की वह दुर्लभ वन–गंध है, जो निलय की कविताओं को एक बिल्कुल नई पहचान देती है। लेकिन–––और यह एक महत्त्वपूर्ण और अनिवार्य ‘लेकिन’ है, कि इस सबके बावजूद ‘कसौटी’ की कविताएँ उस ग्रामीणतावादी ‘ऑब्सक्योरिटी’ से बिल्कुल दूर बनी रहती हैं, जिसकी मिसालें समकालीन कविता में जहाँ–तहाँ निरंतर दिखाई देती रहती हैं। ‘कसौटी’ की कविताएँ समकालीन कविता के उस नवोन्मेष का उदाहरण बनती हैं, जहाँ कविता सब कुछ को नष्ट करने की क्रूरतम आधुनिक तकनीक, बाजार और व्यवस्था के प्रतिरोध के विमर्श में अभेद्य सृजनात्मक तर्क प्रस्तुत करने के बावजूद, किसी मध्यकालीन व्यामोह में फँसने के बजाय, किसी धनुष की प्रत्यंचा की तरह, जरा पीछे खिंचकर, आगे छूट पड़ने को सन्नद्ध दिखाई देती है। अराजक, हिंस्र और अनर्गल–से इस वर्तमान में निलय उपाध्याय की कविताएँ इसी धरती पर चलती एक नई और ठोस आहट के आगमन की सूचना देती हैं।
कटौती...
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