सामाजिक >> अभियान अभियाननिलय उपाध्याय
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आज के समाज में आदर्श व्यवस्था बनाने के लिए संघर्षरत लोगों की कहानी
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
दो बातें
दो बातें मैं दावे के साथ कह सकता हूँ।
मेरे लिए बहस का यह मुद्दा नहीं है कि साहित्य के द्वारा समाज में परिवर्तन लाया जा सकता है या नहीं। मुझे स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं है कि...अगर साहित्य का मेरे जीवन में प्रवेश नहीं होता तो मैं अपराधी होता। मैं बिहार सरकार के अस्पताल में फार्मेसिस्ट के पद पर काम करता हूँ, जिसे आम भाषा में कंपाउंडर कहते हैं। कुछ लोग इस शब्द का प्रयोग करते समय इसमें साहब भी लगा देते हैं, मगर साहबों जैसी कोई बात वास्तव में नहीं होती।
अपनी नौकरी के आरंभिक वर्षों में कमाई के लिए मैं लोगों की छोटी-मोटी बीमारियों का इलाज किया करता था। चूँकि मैं डॉक्टर नहीं था, इसलिए फीस का प्रश्न नहीं था। मैं रोगी को दवा देता था और दवा की कीमत के नाम पर पैसे लेता था। दवा व्यवसाय से जुड़े लोगों ने मेरे पास अपने ऐजेंटों के माध्यम से ऐसी दवाओं का अंबार लगा दिया, जिनके प्राप्त होने वाले मूल्य और अंकित मूल्य में दसगुने का अंतर था। पूरे दो वर्षों तक बक्सर जिले के निहालपुर गाँव में मैं 50 रुपए का 500 रुपया बनाता रहा। मुझे देने के लिए जब एक गरीब विधवा को अपनी चाँदी की हँसुली बेचनी पड़ी- मेरा अंतर्मन चीत्कार कर उठा। और ठीक इसी समय साहित्य ने मुझे कठिन जीवन जीने की प्रेरणा दी। मैं आपराधिक कमाई से पिंड छु़ड़ा, कठिन जीवन जीने की ओर अग्रसर हुआ। इस तरह साहित्य ने मुझे इस कारोबार से, जिसमें आज भी लाखों लोग शरीक हैं-बाहर निकाला। और इसी बल पर मैं पहली बात दावे के साथ कह सकता हूँ कि साहित्य के द्वारा परिवर्तन घटित हो सकता है।
मेरा दूसरा दावा भी इस दावे से बहुत अलग नहीं है। कमाऊ पूत होने की शाबाशी से दूर निकाल मैंने अपना तबादला आरा करा लिया। आरा में वर्षों तक रहते हुए मेरे साथ दूसरी घटना हुई। एक स्वयंसेवी संस्था इस जिले में अपना साक्षरता अभियान चला रही थी। इसमें मेरे कई मित्र शरीक थे। मेरे एक मित्र ने मुझसे इसमें शरीक होने का आग्रह किया। मेरी स्वीकृति के बाद तत्कालीन जिलाधिकारी ने मेरी सेवा को अभियान के लिए आवश्यक बताते हुए मुझे अभियान में प्रतिनियुक्त कर दिया।
अभियान के तौर-तरीकों को समझने के बाद मैंने अपने मित्र से कहा था कि मैं कुछ स्वतंत्रता लेना चाहूँगा और कुछ नए प्रयोग करूँगा। मेरे मित्र ने न सिर्फ सहमति दी, बल्कि उनमें शरीक होकर बल देने का भी वायदा किया था। मेरे लिए यह पहला अवसर था जब एक सामाजिक कार्यकर्त्ता के रूप में समाज में उतर रहा था। उग्रवाद से पूरी तरह प्रभावित, भाकपा (माले) और रणवीर सेना के हिंसक हादसों से जूझते प्रखंड उदवंतनगर का मुझे प्रभारी बनाया गया। वातावरण निर्माण से प्रशिक्षण और पहली किताब समाप्त होने तक मैं हर गाँव में गया। इस दौरान मैंने दो नारे दिए...‘आत्मनिर्भर भोजपुर’ और ‘स्वाधीनता संग्राम की दूसरी लड़ाई’। मैंने चार समितियाँ अलग से गठित कीं। ग्रामीण इतिहास लेखन, दुग्ध उत्पादन, कृषि विकास तथा कुटीर उद्योग समितियाँ अपना काम भी शुरू कर चुकी थीं। इसी दौरान मुझे सूचना दी गई कि मुझे जिला में वातावरण निर्माण प्रभारी बना दिया गया है। समिति ने यह निर्णय इस तर्क के साथ लिया था कि जिला केंद्र में सक्षम साथियों का अभाव हो गया है जबकि सच्चाई इससे अलग थी। मैंने समिति से इस पर पुनर्विचार करने का आग्रह किया। मेरे प्रस्ताव को खारिज कर दिया गया तो मैंने त्यागपत्र दे दिया। कुछ दिनों तक मान-मनौबल चला किंतु मैं अपनी जिद्द पर अड़ा रहा और वापस अस्पताल में आ गया।
अस्पताल में आ जाने के बाद प्रखंड के मेरे कार्यकत्ताओं का क्या हुआ ? साक्षरता अभियान का हश्र क्या हुआ ? यह बताने के लिए मेरे पास आज सुखद परिणाम नहीं है किंतु उन दिनों के सुखद अनुभव काफी मात्रा में हैं। गाँव के लोग जिस ललक के साथ मुझसे जुड़े थे, उनकी याद आज भी मुझे रोमांचित करती है। उनके भीतर धधकती हुई आग और ऊर्जा का मैं साक्षी हूँ। न सिर्फ पुरुषों में बल्कि स्त्रियों में भी घर की चारदीवारी पार कर कुछ नया करने की ललक और छटपटाहट से मेरी अच्छी जान-पहचान है। वे हालात को बदलने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। नकारात्मक शक्तियों से टकराकर विजयी होने की सामर्थ्य वहाँ है, यह मैं अच्छी तरह जान चुका हूँ।
आज बिहार को भले ही अराजकताओं का मधुछत्ता मान लिया जाए किंतु आजादी के पचास वर्षों के कठिन अनुभव के बाद यहाँ परिवर्तन के लिए सकारात्मक व्यग्रता है और वह महान परिवर्तनकारी घटनाओं की दहलीज पर खड़ा है। अगर उसे जरा-सा प्रोत्साहन मिला तो इसके परिणाम काफी सुखद होंगे-यह मेरा दूसरा दावा है।
इस उपन्यास में जितने भी पात्र हैं, जीवित पात्र हैं। इस कथानक में वे एक गाँव में दिखते हैं किंतु वास्तविकता यह है कि वे विभिन्न गाँवों के हैं। तमाम घटनाएँ वास्तविक हैं। एक गाँव में दिखती है लेकिन विभिन्न गाँवों की है। अपने प्रिय लोगों को एक साथ एक गाँव में लाकर कथा का सूत्र मैंने विकसित किया है-इतना भर झूठ है-बाकी सब कुछ सच है।
कथानक में पात्रों को गढ़ने या विकसित करने का दबाव कभी मुझ पर बना ही नहीं। मास्टरानी, उर्मिला, श्यामा, काकी, नीरज, रहमत-इनसे मेरी रोज की मुलाकात थी। ये वही लोग थे जो अपनी पूरी शारीरिक और मानसिक शक्ति का प्रयोग कर अपने समय को बदलने के लिए उसके कठिन आदेशों पर चलते रहे। कठिनाइयों पर काबू पाने में उनका दृढ़ निश्चय, लगन और जीत के प्रति अटूट विश्वास ने मुझे बेमोल खरीद लिया। मैं आज भी खुद को उनका ऋणी महसूस करता हूँ।
जब मैं अभियान से अलग हुआ- मेरे भीतर उभरे अपराधबोध ने उन्हें मेरे जीवन का अंग बना दिया। रोज आ जाते मेरे एकांत में और पूछते-हमने क्या बिगाड़ा था आपका ? मेरे पास कोई जबाव नहीं था। इस पराजय ने मुझे विवश किया कि मैं कुछ दिन और उनके साथ रहूँ। उनके इस नए साथ ने मुझे उन बिंदुओं की पड़ताल के लिए भी विवश किया जो सक्रियता और हड़बड़ी में छूट गए थे। आज के समाज में सकारात्मक ढंग से परिवर्तन ले आने के लिए जब भी कोई संस्था, व्यक्ति या समाज आगे बढ़ेगा इस तरह की चुनौतियाँ उसके समक्ष आएँगी। उन्हें मुखिया से लेकर प्रखंड विकास पदाधिकारी और तपेश्वर सिंह से जिला प्रशासन, राज्य सरकार, केंद्र सरकार और संयुक्त राष्ट्र संघ से प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप में टकराना होगा। कई सीधे विरोध में खड़े होंगे..कई छुपे रूप में-मगर टकराहट स्वाभाविक है।
यदि यह पुस्तक परिवर्तन के लिए छटपटहाट से भरे असंख्य लोगों की पीड़ा, खुशी और चुनौतियों की गरम साँस का अनुभव करा सके तो मैं अपने को भाग्यशाली समझूँगा।
मेरे लिए बहस का यह मुद्दा नहीं है कि साहित्य के द्वारा समाज में परिवर्तन लाया जा सकता है या नहीं। मुझे स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं है कि...अगर साहित्य का मेरे जीवन में प्रवेश नहीं होता तो मैं अपराधी होता। मैं बिहार सरकार के अस्पताल में फार्मेसिस्ट के पद पर काम करता हूँ, जिसे आम भाषा में कंपाउंडर कहते हैं। कुछ लोग इस शब्द का प्रयोग करते समय इसमें साहब भी लगा देते हैं, मगर साहबों जैसी कोई बात वास्तव में नहीं होती।
अपनी नौकरी के आरंभिक वर्षों में कमाई के लिए मैं लोगों की छोटी-मोटी बीमारियों का इलाज किया करता था। चूँकि मैं डॉक्टर नहीं था, इसलिए फीस का प्रश्न नहीं था। मैं रोगी को दवा देता था और दवा की कीमत के नाम पर पैसे लेता था। दवा व्यवसाय से जुड़े लोगों ने मेरे पास अपने ऐजेंटों के माध्यम से ऐसी दवाओं का अंबार लगा दिया, जिनके प्राप्त होने वाले मूल्य और अंकित मूल्य में दसगुने का अंतर था। पूरे दो वर्षों तक बक्सर जिले के निहालपुर गाँव में मैं 50 रुपए का 500 रुपया बनाता रहा। मुझे देने के लिए जब एक गरीब विधवा को अपनी चाँदी की हँसुली बेचनी पड़ी- मेरा अंतर्मन चीत्कार कर उठा। और ठीक इसी समय साहित्य ने मुझे कठिन जीवन जीने की प्रेरणा दी। मैं आपराधिक कमाई से पिंड छु़ड़ा, कठिन जीवन जीने की ओर अग्रसर हुआ। इस तरह साहित्य ने मुझे इस कारोबार से, जिसमें आज भी लाखों लोग शरीक हैं-बाहर निकाला। और इसी बल पर मैं पहली बात दावे के साथ कह सकता हूँ कि साहित्य के द्वारा परिवर्तन घटित हो सकता है।
मेरा दूसरा दावा भी इस दावे से बहुत अलग नहीं है। कमाऊ पूत होने की शाबाशी से दूर निकाल मैंने अपना तबादला आरा करा लिया। आरा में वर्षों तक रहते हुए मेरे साथ दूसरी घटना हुई। एक स्वयंसेवी संस्था इस जिले में अपना साक्षरता अभियान चला रही थी। इसमें मेरे कई मित्र शरीक थे। मेरे एक मित्र ने मुझसे इसमें शरीक होने का आग्रह किया। मेरी स्वीकृति के बाद तत्कालीन जिलाधिकारी ने मेरी सेवा को अभियान के लिए आवश्यक बताते हुए मुझे अभियान में प्रतिनियुक्त कर दिया।
अभियान के तौर-तरीकों को समझने के बाद मैंने अपने मित्र से कहा था कि मैं कुछ स्वतंत्रता लेना चाहूँगा और कुछ नए प्रयोग करूँगा। मेरे मित्र ने न सिर्फ सहमति दी, बल्कि उनमें शरीक होकर बल देने का भी वायदा किया था। मेरे लिए यह पहला अवसर था जब एक सामाजिक कार्यकर्त्ता के रूप में समाज में उतर रहा था। उग्रवाद से पूरी तरह प्रभावित, भाकपा (माले) और रणवीर सेना के हिंसक हादसों से जूझते प्रखंड उदवंतनगर का मुझे प्रभारी बनाया गया। वातावरण निर्माण से प्रशिक्षण और पहली किताब समाप्त होने तक मैं हर गाँव में गया। इस दौरान मैंने दो नारे दिए...‘आत्मनिर्भर भोजपुर’ और ‘स्वाधीनता संग्राम की दूसरी लड़ाई’। मैंने चार समितियाँ अलग से गठित कीं। ग्रामीण इतिहास लेखन, दुग्ध उत्पादन, कृषि विकास तथा कुटीर उद्योग समितियाँ अपना काम भी शुरू कर चुकी थीं। इसी दौरान मुझे सूचना दी गई कि मुझे जिला में वातावरण निर्माण प्रभारी बना दिया गया है। समिति ने यह निर्णय इस तर्क के साथ लिया था कि जिला केंद्र में सक्षम साथियों का अभाव हो गया है जबकि सच्चाई इससे अलग थी। मैंने समिति से इस पर पुनर्विचार करने का आग्रह किया। मेरे प्रस्ताव को खारिज कर दिया गया तो मैंने त्यागपत्र दे दिया। कुछ दिनों तक मान-मनौबल चला किंतु मैं अपनी जिद्द पर अड़ा रहा और वापस अस्पताल में आ गया।
अस्पताल में आ जाने के बाद प्रखंड के मेरे कार्यकत्ताओं का क्या हुआ ? साक्षरता अभियान का हश्र क्या हुआ ? यह बताने के लिए मेरे पास आज सुखद परिणाम नहीं है किंतु उन दिनों के सुखद अनुभव काफी मात्रा में हैं। गाँव के लोग जिस ललक के साथ मुझसे जुड़े थे, उनकी याद आज भी मुझे रोमांचित करती है। उनके भीतर धधकती हुई आग और ऊर्जा का मैं साक्षी हूँ। न सिर्फ पुरुषों में बल्कि स्त्रियों में भी घर की चारदीवारी पार कर कुछ नया करने की ललक और छटपटाहट से मेरी अच्छी जान-पहचान है। वे हालात को बदलने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। नकारात्मक शक्तियों से टकराकर विजयी होने की सामर्थ्य वहाँ है, यह मैं अच्छी तरह जान चुका हूँ।
आज बिहार को भले ही अराजकताओं का मधुछत्ता मान लिया जाए किंतु आजादी के पचास वर्षों के कठिन अनुभव के बाद यहाँ परिवर्तन के लिए सकारात्मक व्यग्रता है और वह महान परिवर्तनकारी घटनाओं की दहलीज पर खड़ा है। अगर उसे जरा-सा प्रोत्साहन मिला तो इसके परिणाम काफी सुखद होंगे-यह मेरा दूसरा दावा है।
इस उपन्यास में जितने भी पात्र हैं, जीवित पात्र हैं। इस कथानक में वे एक गाँव में दिखते हैं किंतु वास्तविकता यह है कि वे विभिन्न गाँवों के हैं। तमाम घटनाएँ वास्तविक हैं। एक गाँव में दिखती है लेकिन विभिन्न गाँवों की है। अपने प्रिय लोगों को एक साथ एक गाँव में लाकर कथा का सूत्र मैंने विकसित किया है-इतना भर झूठ है-बाकी सब कुछ सच है।
कथानक में पात्रों को गढ़ने या विकसित करने का दबाव कभी मुझ पर बना ही नहीं। मास्टरानी, उर्मिला, श्यामा, काकी, नीरज, रहमत-इनसे मेरी रोज की मुलाकात थी। ये वही लोग थे जो अपनी पूरी शारीरिक और मानसिक शक्ति का प्रयोग कर अपने समय को बदलने के लिए उसके कठिन आदेशों पर चलते रहे। कठिनाइयों पर काबू पाने में उनका दृढ़ निश्चय, लगन और जीत के प्रति अटूट विश्वास ने मुझे बेमोल खरीद लिया। मैं आज भी खुद को उनका ऋणी महसूस करता हूँ।
जब मैं अभियान से अलग हुआ- मेरे भीतर उभरे अपराधबोध ने उन्हें मेरे जीवन का अंग बना दिया। रोज आ जाते मेरे एकांत में और पूछते-हमने क्या बिगाड़ा था आपका ? मेरे पास कोई जबाव नहीं था। इस पराजय ने मुझे विवश किया कि मैं कुछ दिन और उनके साथ रहूँ। उनके इस नए साथ ने मुझे उन बिंदुओं की पड़ताल के लिए भी विवश किया जो सक्रियता और हड़बड़ी में छूट गए थे। आज के समाज में सकारात्मक ढंग से परिवर्तन ले आने के लिए जब भी कोई संस्था, व्यक्ति या समाज आगे बढ़ेगा इस तरह की चुनौतियाँ उसके समक्ष आएँगी। उन्हें मुखिया से लेकर प्रखंड विकास पदाधिकारी और तपेश्वर सिंह से जिला प्रशासन, राज्य सरकार, केंद्र सरकार और संयुक्त राष्ट्र संघ से प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप में टकराना होगा। कई सीधे विरोध में खड़े होंगे..कई छुपे रूप में-मगर टकराहट स्वाभाविक है।
यदि यह पुस्तक परिवर्तन के लिए छटपटहाट से भरे असंख्य लोगों की पीड़ा, खुशी और चुनौतियों की गरम साँस का अनुभव करा सके तो मैं अपने को भाग्यशाली समझूँगा।
-निलय उपाध्याय
खंड-1
[1]
इस गाँव का नाम बेला है, जिला भोजपुर और
प्रांत बिहार। इस
गाँव की आबादी दस हजार के करीब है। इसकी सीमा पूरब में बेर के बगीचे से
शुरू होती है। बाहर से आने वाले बेर का बगीचा सोचते हुए आते हैं। हालाँकि
आज इस बगीचे में उँगलियों पर गिने जाने लायक पेड़ ही बचे हैं और उसका
अधकिसांश हिस्सा कटाई के बाद खेत में तब्दील हो चुका है। लेकिन इससे कोई
फर्क नहीं पड़ता और बेर का बगीचा ही अधिकांश लोगों की जुबान पर जीवित है।
इस बगीचे में प्रवेश के बाद मन में खास तरह का संतोष प्राप्त होता है कि
अब हम गाँव की सीमा में प्रवेश कर चुके हैं।
भोजपुर से इस गाँव को जोड़ने वाली सड़क अब भी कच्ची है। बरसात में ट्रैक्टर उन्हें इस कदर बिगाड़ता है कि रास्ता चलने लायक नहीं रह जाता। पिछली बार मझवारी गाँव के लोगों ने जवाहर रोजगार योजना के पैसों से सड़क पर पत्थर डलवा दिए। बेडौल पत्थरों के साथ की मिट्टी बारिश में बह गई। और अब उस पर चलने का जो अनुभव है, वह किसी भोथरे ब्लेड से दाढ़ी बनाने जैसा है। किंतु लोगों की बुद्धि का जबाव नहीं। वे हर समस्या का समाधान आसानी से निकाल लेते हैं। खेतों की मेंड़ से होकर लोगों ने ऐसे रास्ते निकाले हैं जो सड़क की अपेक्षा नजदीक पड़ते हैं और उछल-कूद का सामना भी नहीं करना पड़ता। आने-जाने के क्रम में मेंड़ इतनी चौड़ी और चिकनी हो गई है कि साइकिल या स्कूटर से भी जाया जा सकता है। चूँकि ज्यादातर लोग अब भी पैदल ही जाते हैं इसलिए यह कहा जा सकता है कि बेर का बगीचा आने-जाने वाले लोगों के पाँव में बल भर देता है और उन्हें इस बात का अहसास करा देता है कि वे इस गाँव की सीमा में प्रवेश कर गए हैं।
इस बगीचे के बाद घूरी का बाग पड़ता है। यह बाग मुख्य रूप से आमों के लिए प्रसिद्ध है। इस बगीचे में इतने पेड़ थे कि दिन में भी अँधेरे का अहसास होता था। लोग इस बात को कहते नहीं थकते कि यहाँ सूरज जमीन पर नहीं उतरता था। घूरी का बाग अब उतना घना नहीं रहा किंतु एक से बढ़कर एक उत्तम किस्म के आम अब भी उस बगीचे में मौजूद हैं। आस-पास के गाँव के लोग इस गाँव के चरित्र को इस बाग के आमों के स्वाद के आधार पर परखते हैं। मौसम आम पकने का हो तो गाँव के लिए घर हो जाता है यह बगीचा।
घूरी के बाग का नामकरण यूँ ही नहीं हुआ था। घूरी के बारे में गाँव के बड़े-बूढ़े बताते हैं कि वह इसी गाँव के किसी दुसाध की लड़की थी। बचपन से इस बाग में आती...सहेलियों के संग ‘दोल्हा-पाती’ खेलती। यह उसकी नियमित दिनचर्या थी। जैसे-जैसे उसकी उम्र बढ़ी-उसका सौंदर्य निखरता चला गया। उसकी शादी बगल के गाँव में तय हुई। अभी शादी की तिथि तीन माह बाकी थी और वह सोच रही थी कि इस बाग के बिना वह कैसे रह पाएगी। इसी बीच उसका खूबसूरत चेहरा और गठा हुआ बदन लाश की शक्ल में ‘इमरितवा’ आम के नीचे पाया गया। जिस तरह उसकी लाश पड़ी थी लोगों को उसके साथ हुए सलूक को समझने में देर नहीं लगी। गाँव में खबर फैली और पूरा गाँव उमड़ आया पर पुलिस नहीं आई। रोते-रोते उसका पिता बेदम हो गया। घूरी की माँ तो दो साल की उम्र में ही स्वर्ग चली गई थी। पिता ने ही माँ का स्नेह देकर उसे पाला-पोसा था।
उसी दिन वह घूरी की लाश जलाकर लौट आया। घर का सूनापन जैसे उसे काटने दौड़ता था। रात में बडी मुश्किल से थोड़ी देर के लिए उसे झपकी आई। उसने सपना देखा। घूरी उसके छप्पर से आँगन में उतर रही है। उसकी देह पर सफेद साड़ी है। हाथ में चूड़ियाँ नहीं हैं। चेहरा सफेद और सूनी माँग...वह परी सी आँगन में उतर रही थी। वह जैसे उड़ते हुए आई और पिता के पायताने खड़ी हो गई। घूरी के बाप को अचंभा हुआ, वह घूरी की ओर लपका, किंतु घूरी ने उसे मना कर दिया-‘‘बाबू; मुझे मत छूओ। मैं मर चुकी हूँ। और सुनो-मैं जानती हूँ जिस व्यक्ति ने मेरे साथ यह सलूक किया है-उसने कई और के साथ भी...किंतु मैं उसे छोड़ूँगी नहीं। कोई उसका नाम जुबान पर लाए न लाए किंतु मैं दिखाकर रहूँगी। बाबू, मुझे जोरों की प्यास लगी है...थोड़ा-सा पानी पिला दो...और सुनो-रोना मत। तुम रोओगे तो मैं कमजोर हो जाऊँगी। अपना बदला नहीं ले पाउँगी।’’
इस सपने के बाद कभी नहीं रोया घूरी का बाप। लोग कहते कि घूरी ने अपने बाबू को उसका नाम भी बताया है किंतु मना किया है कि कहना मत। यह दु:ख इतना बड़ा था कि वह पागल हो गया। एक मटका गर्दन में लटकाकर घूमता और जब भी कोई कुएँ पर दिखता-जाकर नम्रता से पानी माँगता-कहता, अपने लिए नहीं घूरी के लिए माँग रहा हूँ...उसे बहुत प्यास लगी है। मटके में पानी भर कर सीधा बगीचे में अमरितवा आम के नीचे जाता और घूरी-घूरी चिल्लाता।
एक दिन सोहनी कर लौट रही बुधिया ने देखा कि अमरितवा आम के पेड़ पर आग लगी है। उसने पूरे गाँव में इस खबर को पसार दिया कि घूरी का सत्त इस गाँव को छोड़ेगा नहीं। वह चिड़िया बन गई है। अब आग लगाएगी इस गाँव में। और उसी वर्ष गाँव में हैजा फैल गया-लाशों की बारात-सी निकली। खलिहान जल कर राख हो गए। कई लोगों को कोढ़ फूट गया। बड़े-बड़े ओझा आए...बड़े-बड़े गुनी। घूरी के सत्त ने सबको पछाड़ दिया। एक-से-बढ़कर घटनाएँ घटती रहीं। घूरी की चर्चा गाँव में लगातार होती रही। अंत में भीखम सिंह की मौत के बाद पूरा गाँव बेचैन हो गया। बनारस का जुलाहा आया। बड़ा तेज था उसके चेहरे में। जलती आग में हाथ लगा देता और अंगारे उठाकर इधर से उधर कर देता। उसके कहे अनुसार भीखम सिंह के बेटे ने सामूहिक रूप से अपने पिता के कृत्यों के लिए क्षमा याचना की। बनारस के जुलाहे ने कहा कि पूरा बाग तुम ले लो और गाँव छोड़ दो...। इस गाँव के लोग काली माई के साथ तुम्हारी पूजा करेंगे। अपने घर में भी और बाहर भी..। तुम्हारे सिर पर गुड़ की चासनी चढ़ाएँगें। अब से तुम गाँव के लोगों की भलाई करो। घूरी का प्रतिशोध पूरा हो चुका था-वह तैयार हो गई थी। इस तरह एक लंबे संघर्ष के बाद उसने इस गाँव को बख्शा था।
आते-जाते आज भी जो लोग नहीं जानते इस बाग का नाम-वे सहज होते हैं। उनके लिए कथा-बोध से अलग यह सिर्फ एक बाग होता है। किंतु जो लोग इस वाकये से परिचित हैं उनका सिर यहाँ आकर झुक जाता है। अगर मन में किसी घटना का अपराध-बोध हो तो सहमकर गुजरते हैं लोग। गाँव के बड़े-बूढ़े बताते हैं कि इसके बाद गाँव में बलात्कारों का सिलसिला थम-सा गया। आज भी लोग इस बात को स्वीकार करते हैं कि इस गाँव की सीमा में बलात्कारियों को बलात्कार के एक साल भीतर ही कोढ़ फूट जाता है। घूरी के बाग के बाद ‘जमुन-बगिया’ आती है किंतु अब भी सबसे अधिक संख्या जामुन के वृक्षों की है। यह बाग सड़क के दोनों ओर दूर-दूर तक पसरा हुआ है। जामुन पकने के दिनों में पहले महुए के फूल की तरह जामुन की पथार पड़ जाती थी। सड़क से गुजरने वाले राही अपने को यहाँ रोक नहीं पाते थे। पेट भर खाते-और बटोरकर बाल बच्चों के लिए भी ले जाते। जामुन के पेड़ पर पत्थर चलाने या तोड़ने की नौबत नहीं आती। इस बाग में अब भी जामुन के पेड़ों की संख्या अधिक है। एक जामुन का पेड़ अब भी ऐसा है जिस पर चढ़ने की बात छोड़ दी जाए-लोग पत्थर भी नहीं चलाते।
इस गाँव के बैजू सिंह ने अपनी बेटी की शादी डुमरांव महाराज के दीवान के दूसरे बेटे से की थी। अपने इसी संबंध के कारण वे राजघराने से जुड़ गए थे। वहाँ से समधी ने जामुन के लिए बैजू सिंह के पास खबर भिजवाई। बैजू सिंह ने माली को बुलवाया और कहा कि पेड़ की एक-एक पकी जामुन तोड़ ली जाए और उसे टोकरियों में भरा जाए-पूरी इक्यावन टोकरियाँ जाएँगी।
माली का लड़का पूरे इलाके में पेड़ पर चढ़ने में बहुत मशहूर था। उसके इसी गुण के कारण उसका नाम कूँड़ी था, जिसका अर्थ गिलहरी होता है। गिलहरी की तरह हर एक पेड़ से उसका निजी किस्म का लगाव था। इसके बावजूद उसे इस बात का अहसास था कि जामुन के शाखों और बालू की भ़ीत का कोई भरोसा नहीं। वैसे भी पेड़ फल नहीं खाते। पकाकर जैसे माँ खाना परोसती है-परोस देते हैं पृथ्वी की थाल में। उनसे जोर-जबरदस्ती करना वैसे भी अच्छा नहीं होता। पेड़ पर देवताओं का वास होता है और हिलोरने पर उनके अदृश्य घर गिर जाते हैं। उसने धीरे से और पूरी नम्रता से निवेदन किया, ‘‘मालिक ! जामुन तो ऐसे ही बहुत पड़े हैं। वे रोज इतनी संख्या में गिरते हैं कि कम नहीं पड़ते। अपने गाँव में पेड़ पर चढ़कर जामुन तोड़ने की परंपरा भी नहीं रही।’’
बैजू सिंह नाराज हुए और आपे से बाहर हो गए। राजघराने के लोग, उनके समधी, उनके दामाद जमीन पर पड़ा वही जामुन खाएँगे जो राहगीर और भिखारी खाते हैं। या तो माली जामुन तोड़े या गाँव छोड़ दे...।
माली क्या करता। पेड़ के देवता की हाथ जोड़कर अर्चना की। वह वहीं चाहता, फिर भी ऐसा करने पर मजबूर है। इस गाँव को छोड़कर कहाँ जाएगा। वह पेड़ पर चढ़ा। जामुन की शाखों को हिलकोरते उसे ऐसा लगता जैसे उसके भीतर कुछ हिल रहा हो। एक क्षण ऐसा आया जब वह एक कमजोर डाली के साथ नीचे आ गया। किसी तरह टाँगकर उसे मझवारी वैद्य के पास ले जाया गया। वैद्य काफी चलती वाले थे, किंतु उन्हें बगैर कोई अवसर दिए वह इस दुनिया से कूच कर चुका था।
उसी साल बुढ़िया आँधी आई। डोली थी पृथ्वी। बगीचे के आधे से अधिक जामुन उखड़ गये थे। लोगों का यकीन था कि यह उसी माली की करामात है। यह बात चमत्कार की तरह थी कि उस पेड़ का बाल बाँका भी नहीं हुआ। अब भी यह बात पूरे तौर पर प्रचलित है कि माली उसी पेड़ पर रहता है। माली के होने और उसकी नाराजगी का यह भय ही है कि लोग उस जामुन पर आज भी पत्थर तक नहीं चलाते।
इसके बाद एक ओर मिल्की पड़ती है, दूसरी ओर पोखरा। इसके बाद गाँव का रिहायशी इलाका शुरू हो जाता है। मिल्की में गाँव के ब्राह्मणों के खेत पड़ते हैं। गाँव के अस्सी प्रतिशत लोग आज भी मिल्की के पेड़ों के दातून नहीं करते और न वहाँ पिशाब करते हैं। ऐसा इसलिए है कि गाँव के लोगों के द्वारा सामूहिक रूप से दान दी गई है वहाँ की जमीन। मिल्की के खेतों से इस बात का पता चलता है कि गाँव में ब्राह्मणों का कितना सम्मान था।
दूसरी ओर जो पोखरा है, वह दुलभ सिंह के पोखरे के नाम से प्रचलित है। हालाँकि यह पोखरा दुलभ सिंह ने नहीं खुदवाया था और न ही इस पोखरे के निर्माण में उसका कोई योगदान था। लोग बताते हैं कि जब यह गाँव नहीं बसा था तब भी यह पोखरा था। गाँव बसने के बाद उसी की भित्ति बनवाई गई। पोखरा सुंदर दिखे इसके लिए उसके चारों ओर पेड़ लगवाए गए। पोखरे के आस-पास का वातावरण अब भी इतना मनोहारी है कि आते-जाते बरबस ही ध्यान खींच लेता है। दक्षिणी सिरे पर तीन आम, दो महुए और एक नीम का पेड़ है। पश्चिमी सिरे पर दो बड़े-बड़े बगरद और पाँच आम के पेड़ हैं। उत्तरी सिरे पर सेमल का एक ऐसा पेड़ है जो अपनी बाँहें लटकाकर पानी के तल में डुबकी मारता है। यह बात आश्चर्य की तरह लगती है क्योंकि पानी के तल से एक आदमी की ऊँचाई पर सेमल का तना शुरू होता है। पूर्वी छोर पर बबूल और अनजान के झाड़ियों की शक्ल में उगे पेड़ हैं जो दूर से सुंदर और निकट से डरावने लगते हैं।
पोखरे को दूर से देखने पर पूरा गाँव दिखाई देने लगता है। दक्षिणी और पश्चिमी सिरे उन लोगों की याद दिलाते हैं जो अपनी समृद्धि में शहर से गाँव तक फैले हुए हैं। खेती से नौकरी और व्यवसाय तक उनके सरोकार हैं। उत्तरी और पूर्वी किनारे उन तमाम लोगों की याद दिलाते हैं जो दिन में लूट कर लाते हैं और शाम को कूट कर खाते हैं। सेमल का पेड़ जब लाल-लाल फूलों से ऊपर से नीचे तक लद जाता है-ऐसा लगता है जैसे गाँव के मजूरों और किसानों के घर खुशियों की बारात लिए सेमल का पेड़ प्रवेश कर गया हो। अन्य दिनों में वह चावल और आटे के टीन की तरह खाली और ढन...ढन..बजने लगता है। इसी क्रम में उसकी दिनचर्या में बबूल और फलहीन अनजान प्रवेश कर कँटीला और झाड़ीदार बना देते हैं। मकड़े उन पर जाला बुन देते हैं, सड़क की धूल रंगकर उन्हें काला कर देती है।
पोखरे के पानी में अगर गौर से देखा जाए तो अपना चेहरा दिखाई देता है। गौर करने में अगर चेतना का सहारा लिया जाए तो पूरा गाँव दिखाई देने लगता है। काई और कीचड़ से भरा गँधाता जल और उसमें एक-दूसरे से उलझे तमाम चेहरे दिखाई देते हैं। भय से पीले पड़े....उदास असहाय चेहरे....एक पत्थर अगर पोखरे में फेंक दिया जाए तो तमाम चेहरे गुस्से से काँपने लगते हैं और थिर होते एक ही चेहरा बार-बार दिखाई देता है-वह चेहरा दुलभ सिंह का है। वैसे सड़क पर जिस बरगद की डाल झुकी है और उसके पोर-पोर से रस्से की तरह बरोह लटके हैं, वह बरगद भी दुलभ सिंह के नाम से ही विख्यात है।
बाबा दुलभ सिंह के हाथ पटुए की मजबूत रस्सी थी। वे पोखरे के पास इसी बरगद के नीचे खड़े थे। उन्होंने ऐलानिया तौर पर कहा था कि अगर एक भी मुसलमान गाँव छोड़कर गया तो वे बरगद की शाखों से फाँसी लगाकर जान दे देंगे। यह उनका अपना निर्णय है। कोई मुसलमान यदि इसके बाद भी गाँव छोड़कर जाना चाहे तो उनकी लाश पर चढ़कर जा सकता है। गाँव में क्या उसके इस कथन से पूरे इलाके में सनसनी फैल गई थी। कई लोग उन्हें समझाना चाहते थे मगर किसी के पास यह हिम्मत नहीं थी कि उसके पास जाकर सलाह दे सके। आखिरकार लाल बाबा आए। लाल बाबा काफी चलती वाले आदमी थे। जिला कांग्रेस कमिटी के अध्यक्ष थे। पूरे जिले में उनकी तूती बोलती थी। यह तो महज संयोग था कि वे भी इसी गाँव के रहने वाले थे।
गांधीजी के बोल पर दुलभ सिंह और लाल बाबा एक ही साथ गाँव से निकले थे और जेल भी चले गए थे। इस घटना को छोड़ दिया जाए तो वे बचपन से जवानी और बुढ़ापे तक एक-दूसरे के दोस्त बने रहे थे। लोगों को लगा कि लाल बाबा ही उन्हें इस काम से रोक सकते हैं, इसीलिए बुला लाए। उन्हें यकीन था कि दुलभ सिंह लाल बाबा की बातों को टालने का साहस नहीं कर सकेंगे। लाल बाबा और दुलभ सिंह अच्छे मित्र होने के बाद भी एक-दूसरे से बहुत अलग थे। लाल बाबा व्यावहारिक गांधीवाद में भरेसा करते थे। खादी कुर्त्ता, गांधी टोपी पहनने और चरखा चलाने के बाद भी गांधी से अधिक नेहरू के नक्शे कदम पर चलते थे। दुलभ सिंह ने कभी गांधी टोपी नहीं पहनी किंतु गाँधी के व्यावहारिक प्रयोगों के कायल थे। आजादी प्राप्त होने के कुछ वर्ष पूर्व ही उनका मोहभंग कांग्रेस से हो चुका था।
लाल बाबा के यहाँ अफसरों और नेताओं की भीड़ लगी रहती थी और दुलभ सिंह खेती के कामों में व्यस्त हो गए थे। कभी-कभी उनके यहां सैलानी आते। लोगों की सूचना पाकर लाल बाबा चौराहे के पास आए। वे जब बोलते तो, उनकी आँखें अंगारों-सी दहक उठतीं। यही कारण थ कि गाँव के रामचरित्तर सिंह लोगों की जुबान पर लाल बाबा के नाम से पसर गए थे। बरगद के पेड़ के नीचे दुलभ सिंह दृढ़ संकल्प खड़े थे। दुलभ सिंह ने लाल बाबा को देखा और घृणा से आँखें फेर लीं...।
‘‘दुलभ ! फिर एक नया नाटक रच लिया तुमने,’’ लाल बाबा गरजे।
‘‘मुझे आश्चर्य है कि तुम्हें यह भी नाटक लग रहा है। लगे भी क्यों नहीं; आज तक तुम लोगों ने सिर्फ नाटक ही तो किया है। हकीकत देखने की तुम्हारी आँख तो अंग्रेज ले गए।’’
दुलभ सिंह कहकर मुस्कराए। वे जानते थे कि बगल के गाँव के जोलह लूट में इसी का हाथ है। वहाँ क्या नहीं हुआ...मुस्लिम औरतों के स्तन तक काट लिए गए...। जाने कितने पुरखों से रचे-बसे जाने कितने लोग गाँव छोड़कर चले गए...और यह कमबख्त नाटक कह रहा है।
‘‘दुलभ क्यों पागल हो रहे हो ? मुसलमान क्या सिर्फ इसी गाँव से वापस जा रहे हैं ? एक तो वे रुकेंगे नहीं और मुफ्त में तुम्हारी जान जाएगी। पूरे देश से मुसलमान जा रहे हैं-कितने लोगों को अपनी हत्या के डर से रोकेगे।’’ इस बार लाल बाबा की आँखें नर्म पड़ गई थीं। वे सहज हो गए थे और उनके भीतर कोई अदृश्य भय पंख फड़फड़ा रहा था।
‘‘पूरे देश का ठेका तुम्हारे जिम्मे है। मैं इस गाँव में रहता हूँ और इसी गाँव की बात जानता हूँ।’’
‘‘क्या सोचते हो ? बच्चों की तरह इस हठ से तुम उन्हें रोक लोगे। सोनबरसा और पुरइनिया गाँव एकदम खाली हो गए। देश के विभिन्न भागों से भी लोग जा रहे हैं। ईश्वर की यही नियति थी। हम तुम क्या कर सकते हैं ?’’
‘‘सोनबरसा गाँव खाली हो गया तो जाओ...सिमरी और पुरइया भी खाली हो रहा है...वहाँ के मुसलमानों के मकान और खेत भी अपने नाम से करा लो।’’ दुलभ सिंह के स्वर में खास तरह की निर्भीकता थी।
‘‘देखो दुलभ ! मेरी बात मान जाओ-कानून भी इसकी इजाजत नहीं देता।’’
‘‘तुम्हारे मुँह से निकले शब्दों में गंध आती है, मैं तुम्हारी सूरत भी देखना नहीं चाहता।’’
‘‘तुमने मुझे गाली दी दुलभ।’’
‘‘हाँ, गाली दी।’’
‘‘सोच लेना...।’’
‘‘सोच लूँ तो गर्दन दबा दूँगा।’’
‘‘महँगा पड़ेगा..’’
‘‘जा...जा...’’
लाल बाबा उलटे पाँव लौट गए और अपने को एक कमरे में बंद कर लिया। गाँव की अजीब हालत थी। मुसलमान परिवारों के सामान बाँधकर रख दिए गए थे। औरतें एक-दूसरे के घर जाकर आखिरी प्रणाम कर रही थीं। सलाम कहते-कहते उनका गला भर आता। स्थिति पहले डबडबाई, फिर सिसकी और अंतत: हिचकी भरी रुलाई में तब्दील हो जाती। लड़के और बूढ़े जो भीतर से इसे समझ रहे थे, अकेले में कहीं बैठकर चुपके-चुपके रोते। छोटे-छोटे बच्चे नए-नए कपड़े पहनकर खुश थे जैसे ननिहाल जा रहे हों..। पूरा गाँव एकबारगी जैसे खामोश हो गया था। शब्द देखते-देखते जाने कहाँ गुम हो गए थे और अभिव्यक्ति का सारा दायित्व आँखों ने सँभाल दिया था।
भोजपुर से इस गाँव को जोड़ने वाली सड़क अब भी कच्ची है। बरसात में ट्रैक्टर उन्हें इस कदर बिगाड़ता है कि रास्ता चलने लायक नहीं रह जाता। पिछली बार मझवारी गाँव के लोगों ने जवाहर रोजगार योजना के पैसों से सड़क पर पत्थर डलवा दिए। बेडौल पत्थरों के साथ की मिट्टी बारिश में बह गई। और अब उस पर चलने का जो अनुभव है, वह किसी भोथरे ब्लेड से दाढ़ी बनाने जैसा है। किंतु लोगों की बुद्धि का जबाव नहीं। वे हर समस्या का समाधान आसानी से निकाल लेते हैं। खेतों की मेंड़ से होकर लोगों ने ऐसे रास्ते निकाले हैं जो सड़क की अपेक्षा नजदीक पड़ते हैं और उछल-कूद का सामना भी नहीं करना पड़ता। आने-जाने के क्रम में मेंड़ इतनी चौड़ी और चिकनी हो गई है कि साइकिल या स्कूटर से भी जाया जा सकता है। चूँकि ज्यादातर लोग अब भी पैदल ही जाते हैं इसलिए यह कहा जा सकता है कि बेर का बगीचा आने-जाने वाले लोगों के पाँव में बल भर देता है और उन्हें इस बात का अहसास करा देता है कि वे इस गाँव की सीमा में प्रवेश कर गए हैं।
इस बगीचे के बाद घूरी का बाग पड़ता है। यह बाग मुख्य रूप से आमों के लिए प्रसिद्ध है। इस बगीचे में इतने पेड़ थे कि दिन में भी अँधेरे का अहसास होता था। लोग इस बात को कहते नहीं थकते कि यहाँ सूरज जमीन पर नहीं उतरता था। घूरी का बाग अब उतना घना नहीं रहा किंतु एक से बढ़कर एक उत्तम किस्म के आम अब भी उस बगीचे में मौजूद हैं। आस-पास के गाँव के लोग इस गाँव के चरित्र को इस बाग के आमों के स्वाद के आधार पर परखते हैं। मौसम आम पकने का हो तो गाँव के लिए घर हो जाता है यह बगीचा।
घूरी के बाग का नामकरण यूँ ही नहीं हुआ था। घूरी के बारे में गाँव के बड़े-बूढ़े बताते हैं कि वह इसी गाँव के किसी दुसाध की लड़की थी। बचपन से इस बाग में आती...सहेलियों के संग ‘दोल्हा-पाती’ खेलती। यह उसकी नियमित दिनचर्या थी। जैसे-जैसे उसकी उम्र बढ़ी-उसका सौंदर्य निखरता चला गया। उसकी शादी बगल के गाँव में तय हुई। अभी शादी की तिथि तीन माह बाकी थी और वह सोच रही थी कि इस बाग के बिना वह कैसे रह पाएगी। इसी बीच उसका खूबसूरत चेहरा और गठा हुआ बदन लाश की शक्ल में ‘इमरितवा’ आम के नीचे पाया गया। जिस तरह उसकी लाश पड़ी थी लोगों को उसके साथ हुए सलूक को समझने में देर नहीं लगी। गाँव में खबर फैली और पूरा गाँव उमड़ आया पर पुलिस नहीं आई। रोते-रोते उसका पिता बेदम हो गया। घूरी की माँ तो दो साल की उम्र में ही स्वर्ग चली गई थी। पिता ने ही माँ का स्नेह देकर उसे पाला-पोसा था।
उसी दिन वह घूरी की लाश जलाकर लौट आया। घर का सूनापन जैसे उसे काटने दौड़ता था। रात में बडी मुश्किल से थोड़ी देर के लिए उसे झपकी आई। उसने सपना देखा। घूरी उसके छप्पर से आँगन में उतर रही है। उसकी देह पर सफेद साड़ी है। हाथ में चूड़ियाँ नहीं हैं। चेहरा सफेद और सूनी माँग...वह परी सी आँगन में उतर रही थी। वह जैसे उड़ते हुए आई और पिता के पायताने खड़ी हो गई। घूरी के बाप को अचंभा हुआ, वह घूरी की ओर लपका, किंतु घूरी ने उसे मना कर दिया-‘‘बाबू; मुझे मत छूओ। मैं मर चुकी हूँ। और सुनो-मैं जानती हूँ जिस व्यक्ति ने मेरे साथ यह सलूक किया है-उसने कई और के साथ भी...किंतु मैं उसे छोड़ूँगी नहीं। कोई उसका नाम जुबान पर लाए न लाए किंतु मैं दिखाकर रहूँगी। बाबू, मुझे जोरों की प्यास लगी है...थोड़ा-सा पानी पिला दो...और सुनो-रोना मत। तुम रोओगे तो मैं कमजोर हो जाऊँगी। अपना बदला नहीं ले पाउँगी।’’
इस सपने के बाद कभी नहीं रोया घूरी का बाप। लोग कहते कि घूरी ने अपने बाबू को उसका नाम भी बताया है किंतु मना किया है कि कहना मत। यह दु:ख इतना बड़ा था कि वह पागल हो गया। एक मटका गर्दन में लटकाकर घूमता और जब भी कोई कुएँ पर दिखता-जाकर नम्रता से पानी माँगता-कहता, अपने लिए नहीं घूरी के लिए माँग रहा हूँ...उसे बहुत प्यास लगी है। मटके में पानी भर कर सीधा बगीचे में अमरितवा आम के नीचे जाता और घूरी-घूरी चिल्लाता।
एक दिन सोहनी कर लौट रही बुधिया ने देखा कि अमरितवा आम के पेड़ पर आग लगी है। उसने पूरे गाँव में इस खबर को पसार दिया कि घूरी का सत्त इस गाँव को छोड़ेगा नहीं। वह चिड़िया बन गई है। अब आग लगाएगी इस गाँव में। और उसी वर्ष गाँव में हैजा फैल गया-लाशों की बारात-सी निकली। खलिहान जल कर राख हो गए। कई लोगों को कोढ़ फूट गया। बड़े-बड़े ओझा आए...बड़े-बड़े गुनी। घूरी के सत्त ने सबको पछाड़ दिया। एक-से-बढ़कर घटनाएँ घटती रहीं। घूरी की चर्चा गाँव में लगातार होती रही। अंत में भीखम सिंह की मौत के बाद पूरा गाँव बेचैन हो गया। बनारस का जुलाहा आया। बड़ा तेज था उसके चेहरे में। जलती आग में हाथ लगा देता और अंगारे उठाकर इधर से उधर कर देता। उसके कहे अनुसार भीखम सिंह के बेटे ने सामूहिक रूप से अपने पिता के कृत्यों के लिए क्षमा याचना की। बनारस के जुलाहे ने कहा कि पूरा बाग तुम ले लो और गाँव छोड़ दो...। इस गाँव के लोग काली माई के साथ तुम्हारी पूजा करेंगे। अपने घर में भी और बाहर भी..। तुम्हारे सिर पर गुड़ की चासनी चढ़ाएँगें। अब से तुम गाँव के लोगों की भलाई करो। घूरी का प्रतिशोध पूरा हो चुका था-वह तैयार हो गई थी। इस तरह एक लंबे संघर्ष के बाद उसने इस गाँव को बख्शा था।
आते-जाते आज भी जो लोग नहीं जानते इस बाग का नाम-वे सहज होते हैं। उनके लिए कथा-बोध से अलग यह सिर्फ एक बाग होता है। किंतु जो लोग इस वाकये से परिचित हैं उनका सिर यहाँ आकर झुक जाता है। अगर मन में किसी घटना का अपराध-बोध हो तो सहमकर गुजरते हैं लोग। गाँव के बड़े-बूढ़े बताते हैं कि इसके बाद गाँव में बलात्कारों का सिलसिला थम-सा गया। आज भी लोग इस बात को स्वीकार करते हैं कि इस गाँव की सीमा में बलात्कारियों को बलात्कार के एक साल भीतर ही कोढ़ फूट जाता है। घूरी के बाग के बाद ‘जमुन-बगिया’ आती है किंतु अब भी सबसे अधिक संख्या जामुन के वृक्षों की है। यह बाग सड़क के दोनों ओर दूर-दूर तक पसरा हुआ है। जामुन पकने के दिनों में पहले महुए के फूल की तरह जामुन की पथार पड़ जाती थी। सड़क से गुजरने वाले राही अपने को यहाँ रोक नहीं पाते थे। पेट भर खाते-और बटोरकर बाल बच्चों के लिए भी ले जाते। जामुन के पेड़ पर पत्थर चलाने या तोड़ने की नौबत नहीं आती। इस बाग में अब भी जामुन के पेड़ों की संख्या अधिक है। एक जामुन का पेड़ अब भी ऐसा है जिस पर चढ़ने की बात छोड़ दी जाए-लोग पत्थर भी नहीं चलाते।
इस गाँव के बैजू सिंह ने अपनी बेटी की शादी डुमरांव महाराज के दीवान के दूसरे बेटे से की थी। अपने इसी संबंध के कारण वे राजघराने से जुड़ गए थे। वहाँ से समधी ने जामुन के लिए बैजू सिंह के पास खबर भिजवाई। बैजू सिंह ने माली को बुलवाया और कहा कि पेड़ की एक-एक पकी जामुन तोड़ ली जाए और उसे टोकरियों में भरा जाए-पूरी इक्यावन टोकरियाँ जाएँगी।
माली का लड़का पूरे इलाके में पेड़ पर चढ़ने में बहुत मशहूर था। उसके इसी गुण के कारण उसका नाम कूँड़ी था, जिसका अर्थ गिलहरी होता है। गिलहरी की तरह हर एक पेड़ से उसका निजी किस्म का लगाव था। इसके बावजूद उसे इस बात का अहसास था कि जामुन के शाखों और बालू की भ़ीत का कोई भरोसा नहीं। वैसे भी पेड़ फल नहीं खाते। पकाकर जैसे माँ खाना परोसती है-परोस देते हैं पृथ्वी की थाल में। उनसे जोर-जबरदस्ती करना वैसे भी अच्छा नहीं होता। पेड़ पर देवताओं का वास होता है और हिलोरने पर उनके अदृश्य घर गिर जाते हैं। उसने धीरे से और पूरी नम्रता से निवेदन किया, ‘‘मालिक ! जामुन तो ऐसे ही बहुत पड़े हैं। वे रोज इतनी संख्या में गिरते हैं कि कम नहीं पड़ते। अपने गाँव में पेड़ पर चढ़कर जामुन तोड़ने की परंपरा भी नहीं रही।’’
बैजू सिंह नाराज हुए और आपे से बाहर हो गए। राजघराने के लोग, उनके समधी, उनके दामाद जमीन पर पड़ा वही जामुन खाएँगे जो राहगीर और भिखारी खाते हैं। या तो माली जामुन तोड़े या गाँव छोड़ दे...।
माली क्या करता। पेड़ के देवता की हाथ जोड़कर अर्चना की। वह वहीं चाहता, फिर भी ऐसा करने पर मजबूर है। इस गाँव को छोड़कर कहाँ जाएगा। वह पेड़ पर चढ़ा। जामुन की शाखों को हिलकोरते उसे ऐसा लगता जैसे उसके भीतर कुछ हिल रहा हो। एक क्षण ऐसा आया जब वह एक कमजोर डाली के साथ नीचे आ गया। किसी तरह टाँगकर उसे मझवारी वैद्य के पास ले जाया गया। वैद्य काफी चलती वाले थे, किंतु उन्हें बगैर कोई अवसर दिए वह इस दुनिया से कूच कर चुका था।
उसी साल बुढ़िया आँधी आई। डोली थी पृथ्वी। बगीचे के आधे से अधिक जामुन उखड़ गये थे। लोगों का यकीन था कि यह उसी माली की करामात है। यह बात चमत्कार की तरह थी कि उस पेड़ का बाल बाँका भी नहीं हुआ। अब भी यह बात पूरे तौर पर प्रचलित है कि माली उसी पेड़ पर रहता है। माली के होने और उसकी नाराजगी का यह भय ही है कि लोग उस जामुन पर आज भी पत्थर तक नहीं चलाते।
इसके बाद एक ओर मिल्की पड़ती है, दूसरी ओर पोखरा। इसके बाद गाँव का रिहायशी इलाका शुरू हो जाता है। मिल्की में गाँव के ब्राह्मणों के खेत पड़ते हैं। गाँव के अस्सी प्रतिशत लोग आज भी मिल्की के पेड़ों के दातून नहीं करते और न वहाँ पिशाब करते हैं। ऐसा इसलिए है कि गाँव के लोगों के द्वारा सामूहिक रूप से दान दी गई है वहाँ की जमीन। मिल्की के खेतों से इस बात का पता चलता है कि गाँव में ब्राह्मणों का कितना सम्मान था।
दूसरी ओर जो पोखरा है, वह दुलभ सिंह के पोखरे के नाम से प्रचलित है। हालाँकि यह पोखरा दुलभ सिंह ने नहीं खुदवाया था और न ही इस पोखरे के निर्माण में उसका कोई योगदान था। लोग बताते हैं कि जब यह गाँव नहीं बसा था तब भी यह पोखरा था। गाँव बसने के बाद उसी की भित्ति बनवाई गई। पोखरा सुंदर दिखे इसके लिए उसके चारों ओर पेड़ लगवाए गए। पोखरे के आस-पास का वातावरण अब भी इतना मनोहारी है कि आते-जाते बरबस ही ध्यान खींच लेता है। दक्षिणी सिरे पर तीन आम, दो महुए और एक नीम का पेड़ है। पश्चिमी सिरे पर दो बड़े-बड़े बगरद और पाँच आम के पेड़ हैं। उत्तरी सिरे पर सेमल का एक ऐसा पेड़ है जो अपनी बाँहें लटकाकर पानी के तल में डुबकी मारता है। यह बात आश्चर्य की तरह लगती है क्योंकि पानी के तल से एक आदमी की ऊँचाई पर सेमल का तना शुरू होता है। पूर्वी छोर पर बबूल और अनजान के झाड़ियों की शक्ल में उगे पेड़ हैं जो दूर से सुंदर और निकट से डरावने लगते हैं।
पोखरे को दूर से देखने पर पूरा गाँव दिखाई देने लगता है। दक्षिणी और पश्चिमी सिरे उन लोगों की याद दिलाते हैं जो अपनी समृद्धि में शहर से गाँव तक फैले हुए हैं। खेती से नौकरी और व्यवसाय तक उनके सरोकार हैं। उत्तरी और पूर्वी किनारे उन तमाम लोगों की याद दिलाते हैं जो दिन में लूट कर लाते हैं और शाम को कूट कर खाते हैं। सेमल का पेड़ जब लाल-लाल फूलों से ऊपर से नीचे तक लद जाता है-ऐसा लगता है जैसे गाँव के मजूरों और किसानों के घर खुशियों की बारात लिए सेमल का पेड़ प्रवेश कर गया हो। अन्य दिनों में वह चावल और आटे के टीन की तरह खाली और ढन...ढन..बजने लगता है। इसी क्रम में उसकी दिनचर्या में बबूल और फलहीन अनजान प्रवेश कर कँटीला और झाड़ीदार बना देते हैं। मकड़े उन पर जाला बुन देते हैं, सड़क की धूल रंगकर उन्हें काला कर देती है।
पोखरे के पानी में अगर गौर से देखा जाए तो अपना चेहरा दिखाई देता है। गौर करने में अगर चेतना का सहारा लिया जाए तो पूरा गाँव दिखाई देने लगता है। काई और कीचड़ से भरा गँधाता जल और उसमें एक-दूसरे से उलझे तमाम चेहरे दिखाई देते हैं। भय से पीले पड़े....उदास असहाय चेहरे....एक पत्थर अगर पोखरे में फेंक दिया जाए तो तमाम चेहरे गुस्से से काँपने लगते हैं और थिर होते एक ही चेहरा बार-बार दिखाई देता है-वह चेहरा दुलभ सिंह का है। वैसे सड़क पर जिस बरगद की डाल झुकी है और उसके पोर-पोर से रस्से की तरह बरोह लटके हैं, वह बरगद भी दुलभ सिंह के नाम से ही विख्यात है।
बाबा दुलभ सिंह के हाथ पटुए की मजबूत रस्सी थी। वे पोखरे के पास इसी बरगद के नीचे खड़े थे। उन्होंने ऐलानिया तौर पर कहा था कि अगर एक भी मुसलमान गाँव छोड़कर गया तो वे बरगद की शाखों से फाँसी लगाकर जान दे देंगे। यह उनका अपना निर्णय है। कोई मुसलमान यदि इसके बाद भी गाँव छोड़कर जाना चाहे तो उनकी लाश पर चढ़कर जा सकता है। गाँव में क्या उसके इस कथन से पूरे इलाके में सनसनी फैल गई थी। कई लोग उन्हें समझाना चाहते थे मगर किसी के पास यह हिम्मत नहीं थी कि उसके पास जाकर सलाह दे सके। आखिरकार लाल बाबा आए। लाल बाबा काफी चलती वाले आदमी थे। जिला कांग्रेस कमिटी के अध्यक्ष थे। पूरे जिले में उनकी तूती बोलती थी। यह तो महज संयोग था कि वे भी इसी गाँव के रहने वाले थे।
गांधीजी के बोल पर दुलभ सिंह और लाल बाबा एक ही साथ गाँव से निकले थे और जेल भी चले गए थे। इस घटना को छोड़ दिया जाए तो वे बचपन से जवानी और बुढ़ापे तक एक-दूसरे के दोस्त बने रहे थे। लोगों को लगा कि लाल बाबा ही उन्हें इस काम से रोक सकते हैं, इसीलिए बुला लाए। उन्हें यकीन था कि दुलभ सिंह लाल बाबा की बातों को टालने का साहस नहीं कर सकेंगे। लाल बाबा और दुलभ सिंह अच्छे मित्र होने के बाद भी एक-दूसरे से बहुत अलग थे। लाल बाबा व्यावहारिक गांधीवाद में भरेसा करते थे। खादी कुर्त्ता, गांधी टोपी पहनने और चरखा चलाने के बाद भी गांधी से अधिक नेहरू के नक्शे कदम पर चलते थे। दुलभ सिंह ने कभी गांधी टोपी नहीं पहनी किंतु गाँधी के व्यावहारिक प्रयोगों के कायल थे। आजादी प्राप्त होने के कुछ वर्ष पूर्व ही उनका मोहभंग कांग्रेस से हो चुका था।
लाल बाबा के यहाँ अफसरों और नेताओं की भीड़ लगी रहती थी और दुलभ सिंह खेती के कामों में व्यस्त हो गए थे। कभी-कभी उनके यहां सैलानी आते। लोगों की सूचना पाकर लाल बाबा चौराहे के पास आए। वे जब बोलते तो, उनकी आँखें अंगारों-सी दहक उठतीं। यही कारण थ कि गाँव के रामचरित्तर सिंह लोगों की जुबान पर लाल बाबा के नाम से पसर गए थे। बरगद के पेड़ के नीचे दुलभ सिंह दृढ़ संकल्प खड़े थे। दुलभ सिंह ने लाल बाबा को देखा और घृणा से आँखें फेर लीं...।
‘‘दुलभ ! फिर एक नया नाटक रच लिया तुमने,’’ लाल बाबा गरजे।
‘‘मुझे आश्चर्य है कि तुम्हें यह भी नाटक लग रहा है। लगे भी क्यों नहीं; आज तक तुम लोगों ने सिर्फ नाटक ही तो किया है। हकीकत देखने की तुम्हारी आँख तो अंग्रेज ले गए।’’
दुलभ सिंह कहकर मुस्कराए। वे जानते थे कि बगल के गाँव के जोलह लूट में इसी का हाथ है। वहाँ क्या नहीं हुआ...मुस्लिम औरतों के स्तन तक काट लिए गए...। जाने कितने पुरखों से रचे-बसे जाने कितने लोग गाँव छोड़कर चले गए...और यह कमबख्त नाटक कह रहा है।
‘‘दुलभ क्यों पागल हो रहे हो ? मुसलमान क्या सिर्फ इसी गाँव से वापस जा रहे हैं ? एक तो वे रुकेंगे नहीं और मुफ्त में तुम्हारी जान जाएगी। पूरे देश से मुसलमान जा रहे हैं-कितने लोगों को अपनी हत्या के डर से रोकेगे।’’ इस बार लाल बाबा की आँखें नर्म पड़ गई थीं। वे सहज हो गए थे और उनके भीतर कोई अदृश्य भय पंख फड़फड़ा रहा था।
‘‘पूरे देश का ठेका तुम्हारे जिम्मे है। मैं इस गाँव में रहता हूँ और इसी गाँव की बात जानता हूँ।’’
‘‘क्या सोचते हो ? बच्चों की तरह इस हठ से तुम उन्हें रोक लोगे। सोनबरसा और पुरइनिया गाँव एकदम खाली हो गए। देश के विभिन्न भागों से भी लोग जा रहे हैं। ईश्वर की यही नियति थी। हम तुम क्या कर सकते हैं ?’’
‘‘सोनबरसा गाँव खाली हो गया तो जाओ...सिमरी और पुरइया भी खाली हो रहा है...वहाँ के मुसलमानों के मकान और खेत भी अपने नाम से करा लो।’’ दुलभ सिंह के स्वर में खास तरह की निर्भीकता थी।
‘‘देखो दुलभ ! मेरी बात मान जाओ-कानून भी इसकी इजाजत नहीं देता।’’
‘‘तुम्हारे मुँह से निकले शब्दों में गंध आती है, मैं तुम्हारी सूरत भी देखना नहीं चाहता।’’
‘‘तुमने मुझे गाली दी दुलभ।’’
‘‘हाँ, गाली दी।’’
‘‘सोच लेना...।’’
‘‘सोच लूँ तो गर्दन दबा दूँगा।’’
‘‘महँगा पड़ेगा..’’
‘‘जा...जा...’’
लाल बाबा उलटे पाँव लौट गए और अपने को एक कमरे में बंद कर लिया। गाँव की अजीब हालत थी। मुसलमान परिवारों के सामान बाँधकर रख दिए गए थे। औरतें एक-दूसरे के घर जाकर आखिरी प्रणाम कर रही थीं। सलाम कहते-कहते उनका गला भर आता। स्थिति पहले डबडबाई, फिर सिसकी और अंतत: हिचकी भरी रुलाई में तब्दील हो जाती। लड़के और बूढ़े जो भीतर से इसे समझ रहे थे, अकेले में कहीं बैठकर चुपके-चुपके रोते। छोटे-छोटे बच्चे नए-नए कपड़े पहनकर खुश थे जैसे ननिहाल जा रहे हों..। पूरा गाँव एकबारगी जैसे खामोश हो गया था। शब्द देखते-देखते जाने कहाँ गुम हो गए थे और अभिव्यक्ति का सारा दायित्व आँखों ने सँभाल दिया था।
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