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मनोविश्लेषण

सिगमंड फ्रायड

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :392
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 8838
आईएसबीएन :9788170289968

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‘ए जनरल इन्ट्रोडक्शन टु साइको-अनालिसिस’ का पूर्ण और प्रामाणिक हिन्दी अनुवाद


इसलिए असल में इसे निरर्थकावृत्ति ही कहा जा सकता है, हालांकि यह आवश्यक नहीं कि यह बोले गए शब्दों की ही निरर्थकावृत्ति हो। यहां भी बाधक प्रवृत्ति और बाधित प्रवृत्ति में साहचर्यजनित सम्बन्ध का अभाव नहीं है, हालांकि यह वस्तु में नहीं है, बल्कि कृत्रिम रूप से स्थापित किया जाता है, और कई बार इसके लिए सम्बन्ध बहुत ‘खींच-तान' करके जोड़ा जाता है।

इसका एक सरल उदाहरण देता हूं जो मैंने स्वयं देखा था। एक बार सुन्दर डोलोमाइट्स में वियेना की दो महिलाओं से मेरी भेंट हुई जो एक पैदल यात्रा पर रवाना हो रही थीं। मैं कुछ दूर उनके साथ गया, और हमने इस तरह के जीवन के सुखों पर तथा कठिनाइयों पर भी बातचीत की। एक महिला ने स्वीकार किया कि इस तरह दिन बिताने में बड़ी असुविधा मालूम होती है-'सारे दिन धूप में चलते रहना निश्चित ही बड़ा कष्टकारक है जिसमें ब्लाउज़...तथा वस्तुएं बिलकुल भीग जाती हैं।' इस वाक्य में उसे एक स्थान पर थोड़ी दुविधा हुई थी। इसके बाद वह कहती गई, ‘पर जब आदमी नैक होस (nack Hose) पहुंच जाता है, और कपड़े बदल सकता है...' (होस का अर्थ है पेटीकोट। वह महिला नैक हौस कहना चाहती थी जिसका अर्थ है घर)। हमने इस गलती का विश्लेषण नहीं किया पर मुझे विश्वास है कि आप इसे आसानी से समझ जाएंगे। महिला अपने कपड़ों की पूरी सूची गिनाना चाहती थी, 'ब्लाउज, शमीज़, और पेटीकोट।' औचित्य की रक्षा के लिए उसने पेटीकोट (होस) का जिक्र छोड़ दिया; पर अगले वाक्य में, जिसकी अर्थवस्तु सर्वथा स्वतन्त्र है, वह छोड़ा गया शब्द ध्वनि में मिलते-जुलते दूसरे शब्द घर (हौस) की विकृति के रूप में ज़बान से निकल पड़ा।

अब हम मुख्य प्रश्न पर आ सकते हैं, जिसे हम अब तक टालते आए हैं. और वह यह है कि ये प्रवत्तियां. जो इस तरह दसरे आशयों को बाधित करके अजीब रीति से सामने आती हैं, किस तरह की होती हैं। स्पष्टतः वे अनेक प्रकार की होती हैं, पर हमें ऐसा तत्त्व खोजना है जो उन सबमें रहता हो। यदि इस काम के लिए हम कुछ उदाहरणों पर विचार करें तो हमें शीघ्र ही मालूम हो जाएगा कि वे तीन समूहों में आते हैं। पहले समूह में वे उदाहरण आते हैं जिनमें बाधाकारक प्रवृत्ति का वक्ता को ज्ञान है, और इसके अलावा गलती करने से पहले उसने उसे अनुभव किया था। इस प्रकार 'रिफिल्ड' की गलती में, वक्ता ने न केवल यह स्वीकार किया कि उसने प्रस्तुत घटनाओं को 'फिल्दी' कहकर उनकी आलोचना की थी, बल्कि यह भी स्वीकार किया कि उसका आशय इस राय को शब्दों में प्रकट करने का था, पर उसने बाद में इस आशय को बदल दिया। दूसरे समूह में वे उदाहरण आते हैं जिनमें बाधाकारक प्रवृत्ति को वक्ता अपनी प्रवृत्ति मानता है, पर उसे यह पता नहीं है कि गलती करने से पहले उसके भीतर वह प्रवृत्ति प्रबल थी। इसलिए वह हमारे बताए गए अर्थ को मान लेता है, पर कुछ देर तक इस पर आश्चर्य करता रहता है। इस तरह के प्रवृत्ति के उदाहरण बोलने की गलतियों की अपेक्षा शायद अन्य गलतियों में अधिक आसानी से मिल जाएंगे। तीसरे समूह में, बाधक प्रवृत्ति का वक्ता द्वारा ज़ोर-शोर से खण्डन किया जाता है; वह इसका ही खण्डन नहीं करता कि गलती से पहले यह प्रवृत्ति उसमें प्रबल थी, बल्कि वह यह भी कहता है कि यह प्रवृत्ति कभी मेरे पास तक नहीं फटकती। हिकफ वाला मामला, तथा वह निश्चित रूप से अभद्र तिरस्कार याद कीजिए जो मैंने बाधक प्रवृत्ति का पता लगाकर अपने सिर लिया था। आप जानते हैं कि इन उदाहरणों के विषय में आपका और मेरा कोई समझौता नहीं हो सका। मैं भोजन के बाद वाले वक्ता के खण्डन के बारे में अपने अर्थ पर अटल हूं, जबकि आप, मेरा ख्याल है, उसकी प्रबलता से अब भी प्रभावित हैं, और शायद यह सोच रहे हैं कि क्या ऐसी गलतियों का अर्थ न लगाना और उन्हें शुद्ध रूप से कार्यिकीय कार्य समझकर छोड़ देना उचित नहीं होगा, जैसा कि विश्लेषण से पहले के दिनों में किया जाता था। आप किस बात से भयभीत हैं, यह मैं कल्पना कर सकता हूं। मैंने जो अर्थ लगाया है, उसमें यह कल्पना भी आ जाती है कि जिन प्रवृत्तियों के बारे में वक्ता कुछ नहीं जानता वे भी उसमें प्रकट हो सकती हैं, और कि मैं अनेक संकेतों से उन्हें सिद्ध कर सकता है। आपको ऐसे नये निष्कर्ष पर पहंचने में संकोच होता है, जिसके बाद में बहुत-से परिणाम हो सकते हैं। मैं इस बात को समझता हूं और मानता हूं कि कुछ दूर तक आपका संकोच उचित है, परन्तु एक बात स्पष्ट हो जानी चाहिए, यदि आप गलतियों के सम्बन्ध में उस विचार को, जिसकी इतने सारे उदाहरणों से पुष्टि हो गई है, उसके अन्तिम तार्किक निष्कर्ष तक पहुंचाना चाहते हैं, तो आपको यह चौंकाने वाली कल्पना स्वीकार करनी होगी। यदि आप ऐसा नहीं कर सकते तो आपको गलतियों को समझने का काम, जो अभी आपने शुरू ही किया है, छोड़ देना होगा।

ज़रा उस बात पर विचार कीजिए जो तीनों समूहों को जोड़ती है, और बोलने की गलती के तीनों तन्त्रों में एक-सी है। सौभाग्य से यह सामान्य अंश बिलकुल स्पष्ट है। पहले दो समूहों में वक्ता बाधाकारक प्रवृत्ति का अस्तित्व मानता है; पहले समूह में इतनी बात और भी है कि वह प्रवृत्ति गलती से ठीक पहले दिखाई दी थी, पर पिछली दोनों अवस्थाओं में इसे पीछे धकेल दिया गया है। वक्ता ने उस विचार को न बोलने का पक्का इरादा किया हुआ था, और फिर ऐसा होता है कि वह बोलने की गलती कर जाता है; मतलब यह हुआ कि जिस प्रवृत्ति को बाहर आने से रोका गया था, वह उसकी इच्छा के विरुद्ध बल लगाती है, और मुंह से निकलती है-या तो वह वक्ता द्वारा प्रकट किए जा रहे आशय की अभिव्यक्ति को बदलकर या उसमें मिलकर या स्वयं उसके स्थान पर आकर प्रकट होती है। यही बोलने की गलती का तन्त्र या प्रक्रिया है।

जहां तक मेरा सवाल है, मैं तीसरे समूह में भी उपर्युक्त प्रतिक्रिया को बिलकुल ठीक बिठा सकता हूं। मुझे सिर्फ इतना मान लेना होगा कि इन तीनों समूहों में इतना ही अन्तर है कि किसी में आशय को पीछे धकेलने में कम सफलता हुई है और किसी में अधिक। पहले समूह में आशय मौजूद है, और शब्द बोले जाने से पहले सामने आ जाता है। तब तक इसे पीछे नहीं धकेला गया है, और धकेले जाने की भरपाई यह गलती में कर लेता है। दूसरे समूह में आशय और भी पीछे धकेल दिया जाता है; उसका भाषण से पहले भी कहीं पता नहीं चलता। यह उल्लेखनीय बात है कि पीछे धकेले जाने से उसके गलती का सक्रिय कारण होने में ज़रा भी रुकावट नहीं होती। पर यह अवस्था तीसरे समूह में इस प्रक्रम की व्याख्या को सरल बना देती है। यह कल्पना करना साहस का काम है कि कोई प्रवृत्ति तब भी गलती के रूप में प्रकट हो सकती है जब उसे बहुत दिनों तक, बहुत ही दिनों तक, प्रकट होने से रोका गया हो, वह ज़रा भी दिखाई न दी हो और इसलिए वक्ता सीधे तौर से उसका खण्डन कर सकता है। पर तीसरे समूह के सवाल को एक ओर छोड़कर अन्य उदाहरणों में आप इस नतीजे पर पहुंचते हैं, कि बोलने की गलती होने की यह अपरिहार्य शर्त है कि कोई बात कहने के आशय को पहले निगृहीत या अवरुद्ध1 किया गया हो (अर्थात् दबाया गया हो।)

अब हम यह कह सकते हैं कि गलतियों को समझने में हम कुछ आगे बढ़े हैं। हम यह जानते हैं कि वे मानसिक घटनाएं हैं। जिनमें अर्थ और प्रयोजन पहचाने जा सकते हैं, हम यह भी जानते हैं कि वे दो भिन्न आशयों के परस्पर बाधन या संघर्ष से पैदा होती हैं, और इसके अतिरिक्त हम यह भी जानते हैं कि इनमें से कोई आशय दूसरे को बाधित करके तभी प्रकट हो सकता है, जब इसे स्वयं अपनी गति में कोई बाधा या रुकावट सहनी पड़ी हो। दूसरों को बाधित करने से पहले यह स्वयं किसी तरह बाधित किया गया होना चाहिए। स्वभावतः इससे हमें उन घटनाओं की पूरी व्याख्या नहीं प्राप्त होती, जिन्हें हम गलतियां कहते हैं। हम देखते हैं कि तुरन्त और सवाल पैदा हो जाते हैं, और साधारणतया हमें यह शंका होती है कि ज्यों-ज्यों हम इसे समझने की दिशा में आगे बढ़ेंगे, त्यों-त्यों नये प्रश्न पैदा होने के और अधिक मौके आएंगे: उदाहरण के लिए हम पछ सकते हैं कि यह मामला अधिक सरल रूप में क्यों नहीं चलता। यदि मन में यह आशय है कि किसी प्रवृत्ति को पूरा होने देने के बजाय रोका जाए तो यह रोक सफल होनी चाहिए और उस प्रवृत्ति का कुछ भी रूप प्रकट नहीं होना चाहिए, अथवा वह रोक असफल होनी चाहिए और वह रोकी गई प्रवृत्ति पूरी तरह प्रकट होनी चाहिए। परन्तु गलतियां समझौते के रूप में होती हैं; वे दोनों आशयों की आंशिक सफलता और आंशिक विफलता को प्रकट करती हैं। अवांछित आशय न तो पूरी तरह रुकता है, और न सारे का सारा बाहर आ पाता है, यद्यपि कुछ उदाहरणों में यह आ भी जाता है। हम यह कल्पना कर सकते हैं कि ऐसे बाधाजनित (या सभझौते वाले) रूप पैदा होने के लिए विशेष अवस्थाएं मौजूद होनी चाहिए, पर यह हम अनुमान भी नहीं कर सकते कि वे किस तरह की हो सकती हैं। मैं यह नहीं समझता हूं कि हम गलतियों का और गहरा अध्ययन करके इन अज्ञात परिस्थितियों का पता लगा सकते हैं। पहले मानसिक जीवन के कुछ और गुप्त क्षेत्रों की पूरी तरह जांच करना ज़रूरी होगा। उनमें मिलने वाले सादृश्य ही हमें यह हौसला दे सकते हैं कि हम वे कल्पनाएं कर सकें जिनकी गलतियों के बारे में और अधिक सक्ष्म स्पष्टीकरण के लिए आवश्यकता है। और एक बात और। हल्के संकेतों को लेकर आगे बढ़ना, जैसा कि हम इस क्षेत्र में सदा करते हैं, खतरे से खाली नहीं। एक मानसिक रोग कम्बीनेटरी पैरानोइआ1 कहलाता है, जिसमें ऐसे छोटे संकेतों का उपयोग करने की आदत सीमा से बाहर हो जाती है, और स्वभावतः मेरा यह दावा नहीं है कि इस तरह के आधार पर निकाले गए नतीजे सारे सही होते हैं। इस खतरे से बचने के लिए हमें अपने परीक्षणों का क्षेत्र विस्तृत रखना चाहिए और मानसिक जीवन के बड़े विविध रूपों से एक जैसे प्रभाव इकट्ठे करने चाहिए।

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1. Suppression

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