लोगों की राय

विविध >> मनोविश्लेषण

मनोविश्लेषण

सिगमंड फ्रायड

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :392
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 8838
आईएसबीएन :9788170289968

Like this Hindi book 7 पाठकों को प्रिय

286 पाठक हैं

‘ए जनरल इन्ट्रोडक्शन टु साइको-अनालिसिस’ का पूर्ण और प्रामाणिक हिन्दी अनुवाद


व्याख्यान

26

राग का सिद्धान्त : स्वरति

हमने बार-बार, और कुछ देर पहले भी, यौन निसर्ग-वृत्ति और अहम् निसर्ग-वृत्ति के विभेद की चर्चा की है। सबसे पहले दमन से यह प्रकट हुआ कि वे किस तरह एकदूसरे का विरोध करती हैं, फिर किस तरह यौन-वृत्तियां आभासतः पराजित हो जाती हैं और उन्हें चक्करदार प्रतिगामी मार्गों से अपनी सन्तुष्टि करनी पड़ती है, और वहां अभेद्य परिस्थितियों में रहने से उन्हें अपनी पराजय की क्षतिपूर्ति या हर्जाना मिल जाता है। इसके बाद यह मालूम हुआ कि उन दोनों का शुरू से ही आवश्यकतारूपी मालकिन से भिन्न-भिन्न सम्बन्ध होता है, और इसलिए उनके परिवर्धन भिन्न-भिन्न होते हैं, और यथार्थता-सिद्धान्त के प्रति उनके भिन्न रुख हो जाते हैं। अन्त में हम यह मानते हैं कि हम यह देख सकते हैं कि यौन-वृत्तियों का चिन्ता की भाव-दिशा से अहम्-निसर्ग-वृत्तियों की अपेक्षा अधिक नज़दीकी सम्बन्ध होता है-और यह निष्कर्ष सिर्फ एक महत्त्वपूर्ण बात में अब भी अधरा मालम होता है। इसके समर्थन में हम यह एक और उल्लेखनीय तथ्य पेश कर सकते हैं कि भूख या प्यास की जो दो सबसे अधिक प्राथमिक आत्मसंरक्षणात्मक निसर्ग-वृत्तियां हैं, उनकी सन्तुष्टि के अभाव का यह परिणाम कभी नहीं होता कि वे चिन्ता में परिवर्तित हो जाएं, जबकि असन्तुष्ट राग का चिन्ता में परिवर्तन, जैसा कि हमने बताया है, एक बहुत सुविदित और बहुत बार वैज्ञानिक रूप से प्रेक्षित क्रिया है।

यौन और अहम् निसर्ग वृत्तियों में विभेद करने के कारणों पर आपत्ति नहीं उठाई जा सकती। सच पूछिए तो मनुष्य में यौन-प्रवृत्ति का एक विशेष व्यापार के रूप में अस्तित्व होने से यह विभेद, स्वयं ही मान लिया जाता है। प्रश्न सिर्फ यह रह जाता है कि इस विभेद को कितना महत्त्व दिया जाए। हम इसे कितना मूलगत और निर्णायक मानना चाहते हैं. इसका उत्तर इस बात पर निर्भर है कि यौन निसर्गप्रवृत्तियां अपने शारीरिक और मानसिक व्यक्त रूपों में दूसरी निसर्ग-वृत्तियों से, जो हमने उनके मुकाबले में रखी हैं, भिन्न रूप में जितनी दूरी पर चलती हैं, उसके बारे में हम क्या जानकारी प्राप्त कर सकते हैं; और इन अन्तरों से पैदा होने वाले परिणाम कितने महत्त्वपूर्ण सिद्ध होते हैं। निसर्ग-वृत्तियों के दो समूहों की आधारभूत प्रकृति में निश्चित अन्तर मानने में हमारा कोई प्रयोजन नहीं है, और वैसे देखा जाए तो इनमें कोई अन्तर समझना कठिन भी होगा। वे दोनों हमारे सामने मनुष्यों की ऊर्जा के स्रोतों के वर्णन के रूप में आते हैं, और यह विवेचना, कि वे मूलतः एक हैं या सारतः भिन्न हैं, और यदि वे एक हैं, तो वे एक-दूसरे से अलग कब होते हैं, सिर्फ इन अवधारणाओं के आधार पर ही नहीं की जा सकती, उन्हें तो उनके आधार रूप में मौजूद जैविकीय तथ्यों के ऊपर खड़ा करना होगा। इस समय हमें उनके बारे में बहुत ही कम जानकारी है, और यदि हम अधिक भी जानते होते तो मनोविश्लेषण के कार्य में उनकी कोई प्रासंगिकता नहीं थी।

स्पष्ट है कि हमें इस बात से भी कोई खास लाभ नहीं होगा कि हम जंग की तरह सब निसर्ग-वृत्तियों के आद्य एकत्व पर बल दें, और उनसे प्रवाहित होने वाली सब ऊर्जाओं को 'राग' या लिबिडो कहें। तब हम लिंगी या यौन और अलिंगी या अयौन राग मानना होगा, क्योंकि ऐसे किसी तरीके से यौन या लैंगिक कार्य को मानसिक जीवन के क्षेत्र से हटाया नहीं जा सकता। पर राग शब्द यौन जीवन के नैसर्गिक बलों के लिए सुरक्षित है, और यह उचित भी है, जैसे कि हमने अब तक इसका प्रयोग किया है।

इसलिए मेरी राय में यह प्रश्न, कि यौन और आत्मसंरक्षण की निसर्ग-वृत्तियों में सर्वथा औचित्यपूर्ण अन्तर कितनी दूर तक किया जा सकता है, मनोविश्लेषण के लिए अधिक महत्त्व नहीं रखता, और न मनोविश्लेषण इसका उत्तर देने की क्षमता रखता है। जैविकीय दृष्टिकोण से ऐसे अनेक संकेत अवश्य मिलते हैं कि यह अन्तर महत्त्वपर्ण है। कारण यह कि जीवित जीवपिण्ड का यौन कार्य ही एक ऐसा कार्य है, जो व्यष्टि से बाहर प्रवृत्त होता है, और अपनी स्पीशीज़ से सम्बन्ध जोड़ता है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि इस कार्य के प्रयोग से व्यष्टि को सदा लाभ ही नहीं होता, जैसा कि उसकी अन्य चेष्टाओं से होता है, बल्कि इस कार्य में अत्यधिक सुख मिलने के कारण इसमें उसे ऐसे खतरे भी पैदा हो जाते हैं, जो उसके जीवन को संकट में डाल देते हैं, और प्रायः उस पर बहुत बोझ डालते हैं। व्यष्टि के जीवन का कुछ अंश बाद की पीढ़ी के लिए एक स्वभाव या प्रवृत्तिरूप में संरक्षित करने के वास्ते सम्भवतः बिलकुल विशिष्ट विपचक प्रक्रमों की आवश्यकता होती है, जो अन्य सब कार्यों से बिलकुल भिन्न होते हैं। और अन्त में, व्यष्टि जीवपिण्ड, जो अपने-आपको सबसे महत्त्वपूर्ण समझता है, और अपनी यौन-प्रवृत्तियों को अन्य प्रवत्तियों की तरह अपनी निजी सन्तष्टि का साधन समझता है, जैविकीय दृष्टिकोण से, पीढ़ियों या सन्ततियों की एक श्रेणी में एक अवान्तर कथा या उपाख्यान की तरह ही है। यह 'जर्म-प्लाज़्म' का, जो वास्तव में अमरत्व में सम्पन्न है, एक अल्पजीवी उपांग-मात्र है, जिसकी तुलना ऐसी सम्पत्ति के अस्थायी धारणकर्ता से की जा सकती है जिसके उत्तराधिकारियों का क्रम निश्चित है, और जो उसकी मृत्यु के बाद भी कायम रहेगी।

पर स्नायुरोगों का मनोविश्लेषण द्वारा स्पष्टीकरण करते हुए हमें इतनी दूर की बातें सोचने की आवश्यकता नहीं। यौन और अहम् प्रवृत्तियों के अन्तर को पकड़कर हमने स्थानान्तरण स्नायुरोगों को समझने की कुंजी हासिल कर ली है। हम उनका उद्गम एक मूल-स्थिति से ढूंढ़ने में सफल हुए थे, जिसमें यौन-प्रवृत्तियों का आत्मसंरक्षण की प्रवृत्तियों से संघर्ष हुआ था, या यदि जैविकी के शब्दों में कहें, जो उतना यथार्थ कथन नहीं होगा, तो-उसमें अहम् अपनी स्वतन्त्र व्यष्टि जीवपिण्ड की हैसियत में अपनी दूसरी हैसियत, अर्थात् एक सन्तति-श्रेणी के सदस्य की हैसियत, में अपने ही विरोध में आ खड़ा हुआ था। ऐसा विसंघटन1 शायद सिर्फ मनुष्य में है, जिसका अर्थ यह हुआ कि कुल मिलाकर उसकी अन्य प्राणियों से श्रेष्ठता उसकी स्नायुरोगी होने की क्षमता ही रह जाती है। उसके राग का अत्यधिक परिवर्धन और उसके मानसिक जीवन का बहुत अधिक विस्तार, जो शायद इसी के कारण सीधा सम्भव हुआ है, होने के कारण ही इस तरह का संघर्ष पैदा हुआ मालूम होता है। जो हो, पर इतनी बात स्पष्ट है कि इन्हीं अवस्थाओं में मनुष्य ने उन बातों के आगे बहुत अधिक तरक्की की है जिनमें वह पशुओं के समान है, और इस प्रकार उसका स्नायुरोग का सामर्थ्य उसकी सांस्कृतिक उन्नति के सामर्थ्य का ही अभिरूप2 है : फिर भी ये सब ऐसी कल्पनाएं हैं जो हमें विचारणीय विषय से दूर हटाती हैं।

अब तक हमने इस कल्पना के आधार पर कार्य किया है कि यौन तथा अहम् निसर्ग-वृत्तियों के व्यक्त रूपों में अन्तर किया जा सकता है। स्थानान्तरण स्नायुरोगों में यह बिना कठिनाई के किया जा सकता है। अहम् जो ऊर्जा अपनी यौन इच्छाओं के आलम्बनों की ओर भेजता है, उसे हमने राग या लिबिडो कहा था, और अन्य सब आच्छादनों को, जो उसकी आत्मरक्षण की प्रवृत्तियों से पैदा होते हैं, इसका 'स्वहित' कहा था। और राग के आच्छादनों, उनमें रूपान्तरणों, और उनकी अन्तिम गतियों, पर विचार करके हम मानसिक जीवन में कार्य करने वाले बलों के बारे में पहली जानकारी हासिल कर सके थे। स्थानान्तरण स्नायरोग इस खोज के लिए सबसे अच्छी सामग्री प्रस्तुत करते थे। पर अहम् अनेक संगठनों, से उनकी संरचनाओं और कार्य-रीतियों में से उसके संघटन का पता नहीं चल सका; हमको यह अनुभव हुआ था कि इन मामलों पर रोशनी पड़ने से पहले दूसरे स्नायविक विकारों का विश्लेषण आवश्यक होगा।

इन दूसरे विकारों पर भी मनोविश्लेषण-सम्बन्धी अवधारणों का लागू करना आरम्भिक काल में शुरू किया गया था। 1908 में ही के० अब्राहम मुझसे बातचीत करने के बाद यह विचार प्रकट कर चुका था कि डेमेन्शिया प्रीकौक्स का भेदक लक्षण यह है (यह एक मनोरोग माना जाता था) कि इस रोग में आलम्बनों पर राग के आच्छादनों का अभाव होता है। पर तब यह प्रश्न पैदा हुआ : डेमेन्शिया-रोगियों का राग जब अपने आलम्बनों से दूसरी ओर हट जाता है, तब उसका क्या होता है।3 अब्राहम ने बिना हिचकिचाहट के जवाब दिया कि यह मुड़कर ईगो, अर्थात् अहम, पर आ जाता है, और इसके प्रतिक्षिप्त प्रतिवर्तन4 से ही डेमेन्शिया प्रीकौक्स में भव्यता के भ्रम पैदा होते हैं। भव्यता का भ्रम हर दृष्टि से वैसा ही होता है जैसे किसी प्रेम-सम्बन्ध में आलम्बन को बढ़ा-चढ़ाकर देखना। इस प्रकार एक मनोरोग की एक विशेषता को हम जीवन में प्रेम करने की प्रकृत रीति से जोड़कर समझ सके।

-----------------------
1. Dissociation
2. Obverse
3. The Psycho-Sexual Differences between Hysteria and Dementia Praecox
4. Reflex reversion

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book