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मनोविश्लेषण

सिगमंड फ्रायड

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :392
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 8838
आईएसबीएन :9788170289968

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‘ए जनरल इन्ट्रोडक्शन टु साइको-अनालिसिस’ का पूर्ण और प्रामाणिक हिन्दी अनुवाद


बालकों में स्थितियों की पहली भीतियां अंधेरे और अकेलेपन से सम्बन्धित होती हैं। अंधेरे की भीति प्रायः सारे जीवन बनी रहती है। दोनों में सामान्य वस्तु-अनुपस्थित परिचायक की, अर्थात् माता की अभिलाषा है। एक बार अंधेरे से डरे हुए बालक को मैंने यह कहते सुना, 'चाची, मुझसे बात करो, मैं डरा हुआ हूं।' 'इससे क्या लाभ? तुम मुझे देख तो नहीं सकते।' जिस पर बालक ने जवाब दिया, 'कोई बातचीत करता रहे तो डर कम हो जाता है।' इस प्रकार अंधेरे में अनुभूत लालसा अंधेरे के भय में रूपान्तरित हो जाती है। बजाय इस नतीजे के, कि स्नायविक चिन्ता आलम्बननिष्ठ चिन्ता का सिर्फ परवर्ती और एक विशेष रूप है, हम यह देखते हैं कि छोटे बालक में कुछ ऐसी चीज़ है जो वास्तविक चिन्ता की तरह व्यवहार करती है, और इसमें स्नायविक चिन्ता की सारभूत विशेषता, अर्थात् अविसर्जित राग से उद्गम, मौजूद है। सच्ची 'आलम्बननिष्ठ चिन्ता' का बहुत ही थोड़ा अंश बालक दुनिया में प्रकट करता मालूम होता है। उन सब स्थितियों में, जो बाद में भीतियों की अवस्था बन जाती हैं, जैसे ऊंचाइयां, पानी के ऊपर बने हुए पुल, रेलगाड़ियां और नौकाएं, बालक कोई भय प्रकट नहीं करता। वह जितना कम जानता है, उतना ही कम डरता है। हम यह ही चाहते हैं कि उसमें ये जीवन-संरक्षक निसर्ग-वृत्तियां जन्म से ही और अधिक होती; तब उसकी देख-भाल करने और उसे एक के बाद दूसरे खतरे के सामने पहुंचने से रोकने का काम बहुत हलका हो जाता। असल में आप देखते हैं कि बालक शुरू में अपनी शक्तियों का बहुत अधिक अंदाजा लगाता है और बिना भय के व्यवहार करता है, क्योंकि वह खतरों को नहीं पहचानता। वह पानी के किनारे दौड़ेगा, खिड़की पर चढ़ जाएगा, धारदार वस्तुओं से और आग से खेलेगा, अर्थात् ऐसा कोई भी काम करने लगेगा जिससे उसे चोट लगती है, और अपनी देख-भाल करने वालों को भयभीत कर देगा। हम उसे हर बात को अनुभव द्वारा सीखने का मौका नहीं देते। इसलिए उसमें यथार्थ चिन्ता अन्त में बिलकुल पूरे रूप में प्रशिक्षण के कारण ही पैदा होती है।

अब यदि बहुत-से बालक भयपूर्णता के इस प्रशिक्षण को बहुत आसानी से सीख लेते हैं, और फिर उन खतरों को पहचान लेते हैं, जिनके बारे में उन्हें चेतावनी नहीं दी गई, तो इसकी व्याख्या इस आधार पर की जा सकती है कि इन बालकों की शरीर-रचना में रागात्मक आवश्यकता की, औरों की अपेक्षा अधिक मात्रा जन्म से ही होती है; अथवा उन्हें शुरू में ही राग की परितुष्टियों द्वारा बर्बाद कर दिया गया है। जो लोग बाद में स्नायविक हो जाते हैं, वे भी इसी तरह के बालक होते हैं। मतलब यह कि इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। हम जानते हैं कि स्नायुरोग के परिवर्धन के लिए सबसे अनुकूल परिस्थिति दबे हुए राग की प्रचुर मात्रा को अधिक देर तक सहन करने की असमर्थता ही है। अब आप देखते हैं कि यहां शरीररचना सम्बन्धी कारक, जिसकी उपस्थिति से हमने कभी इनकार नहीं किया, अपने पूरे रूप में दिखाई देता है; हम इसका विरोध सिर्फ तभी करते हैं जब दूसरे लोग इस पर इतना अधिक बल देते हैं कि और सब कारकों का निषेध हो जाए, और जब वे वहां भी शरीर-रचना सम्बन्धी कारक ले आते हैं, जहां वह प्रेक्षण और विश्लेषण दोनों के सम्मत विचार के अनुसार नहीं होता, या बहुत गौण अंश में होता है।

बालकों में होने वाली भयपूर्णता के प्रेक्षण से निकाले गए निष्कर्षों का सारांश यह है : शिशुओं के त्रास का आलम्बननिष्ठ चिन्ता (वास्तविक खतरे) के त्रास से कोई सम्बन्ध नहीं है। इसके विपरीत, इसका वयस्कों की स्नायविक चिन्ता से नज़दीकी सम्बन्ध है। यह स्नायविक चिन्ता की तरह अविसर्जित राग से पैदा होता है, और जो प्रेम-आलम्बन इसे नहीं मिल पाता, उसके स्थान पर यह किसी दूसरे बाहरी आलम्बन या किसी स्थिति को ले आता है।

अब आपको यह सुनकर खुशी होगी कि भीतियों के विश्लेषण से हमने जो कुछ सीखा है, उससे कुछ और अधिक सीखा जा सकता है। उनमें भी वही बात होती है जो बालकों की चिन्ता में-जो राग विसर्जित नहीं किया जा सकता, वह लगातार देखने में 'आलम्बननिष्ठ' लगने वाली चिन्ता में बदलता रहता है, और इस प्रकार तुच्छ-से बाहरी खतरे को उसका प्रतिनिधि मान लिया जाता है, राग जिसकी कामना करता है। चिन्ता के इन दोनों रूपों में संवादिता आश्चर्यजनक नहीं है, क्योंकि शिशुओं की भीतियां सिर्फ उन भीतियों के पूर्वरूप ही नहीं हैं जो बाद में चिन्ताहिस्टीरिया में दिखाई देती हैं, बल्कि वे उनकी सीधी आरम्भिक अवस्था और पूर्वतैयारी होती हैं। हिस्टीरिया की प्रत्येक भीति का आरम्भ बालकपन के किसी त्रास में ढूंढा जा सकता है, जिसका यह विस्तार है, चाहे इसकी वस्तु भिन्न है और इसे भिन्न नाम से ही पुकारना होगा। दोनों अवस्थाओं का अन्तर उनके तन्त्र का अन्तर है। राग वयस्क में चिन्ता में परिवर्तित हो सके, इसके लिए अब इतना ही काफी नहीं कि राग का कुछ समय के लिए उपयोग न हो सके। वयस्क बहुत समय तक ऐसे राग को निलम्बित या निष्क्रिय बनाए रखना या विभिन्न तरीकों से इसे कायम रखना सीख चका है। पर जब राग किसी ऐसे मानसिक उत्तेजन से जड जाता है, जिसका दमन किया गया है, तब वैसी ही अवस्थाएं पैदा हो जाती हैं जैसी बालक में, जिसमें अभी चेतन और अचेतन का कोई विभेद नहीं होता; और शिशु-भीति की ओर प्रतिगमन मानो एक पुल बन जाता है जिससे राग को आसानी से चिन्ता में परिवर्तित किया जा सकता है। आपको याद होगा कि हमने दमन पर कुछ विस्तार से विचार किया है। पर उस विचार में हम सिर्फ यहीं तक गए कि दमन किए जाने वाले मनोबिम्ब का क्या होता है, और यह स्वाभाविक भी था, क्योंकि इसे पहचानना और पेश करना आसान था। पर अब तक हमने इस प्रश्न पर ध्यान नहीं दिया कि इस मनोबिम्ब से सम्बन्धित मनोविकार या भाव का क्या होता है, और अब पहली बार हमें यह मालूम हुआ है कि भाव तुरन्त चिन्ता में परिवर्तित हो जाता है-इससे कुछ मतलब नहीं कि यदि यह भाव अपने प्रकृत मार्ग पर चला होता तो किस विशेषता वाला होता। इसके अतिरिक्त, भाव का रूपान्तर दमन के प्रक्रम का अधिक महत्त्वपूर्ण परिणाम है। यह बात आपके सामने प्रतिपादित करना आसान नहीं, क्योंकि हम अचेतन भावों का अस्तित्व उसी अर्थ में नहीं मानते जिस अर्थ में हमने अचेतन मनोबिम्बों का माना था। मनोबिम्ब कछ दर तक वैसे का वैसा ही रहता है, चाहे वह चेतन हो या अचेतन (अर्थात् ज्ञात हो या अज्ञात)। हम ऐसी कोई चीज़ निर्दिष्ट कर सकते हैं जो किसी अचेतन मनोबिम्ब की संवादी हो। पर भाव एक ऐसा प्रक्रम है, जिसमें ऊर्जा का विसर्जन आवश्यक है और इसे मनोबिम्ब से बिलकुल भिन्न समझना चाहिए। मानसिक प्रक्रमों से सम्बन्ध में अपनी परिकल्पनाओं की गहरी परीक्षा और स्पष्टीकरण बिना किए हम यह नहीं कह सकते कि अचेतन में इनका संवादी कौन है-और यह कार्य यहां नहीं किया जा सकता। पर फिर भी हम अपनी यह धारणा बनाए रखेंगे कि चिन्ता के परिवर्धन का अचेतन संस्थान से नज़दीकी सम्बन्ध है।

मैंने कहा था कि दमन किए जाने वाले राग का सबसे पहला भविष्य यह होता है कि वह चिन्ता में बदल जाता है, या और अच्छे ढंग से कहा जाए तो वह चिन्ता के रूप में विसर्जित हो जाता है, पर यह इसका अन्तिम परिणाम नहीं। स्नायुरोगों में ऐसे प्रक्रम होते हैं जिनका उद्देश्य चिन्ता के परिवर्धन का रोकना होता है, और जो अनेक उपायों से ऐसा करने में सफल होते हैं; उदाहरण के लिए, भीतियों में स्नायविक प्रक्रम की दो क्रमिक अवस्थाएं साफ दिखाई देती हैं। पहली अवस्था दमन और राग का चिन्ता में परिवर्तन करती है, और इस तरह राग किसी बाहरी खतरे से जुड़ जाता है। दूसरी अवस्था में वे सब सतर्कताएं और रक्षा-साधन खड़े किए जाते हैं जिनसे इस बाहर के खतरे से सब तरह के सम्पर्क से बचा जा सके। दमन अहम् का राग से दूर भागने का प्रयत्न है, जिसे वह खतरनाक अनुभव करता है। भीति की तुलना एक किलेबन्दी से की जा सकती है जो त्रस्त राग के लिए अब मौजद बाहरी खतरे के मुकाबले में की गई थी। भीतियों के रूप में इस प्रतिरक्षा प्रणाली की कमज़ोरी निस्सन्देह यह है कि यह किला, जिसकी बाहर से इतनी अच्छी तरह रक्षा की जा रही है, अन्दर के खतरे के लिए खुला रहता है। राग से खतरे का बाहर प्रक्षेपण या आरोप कभी भी बहुत सफल नहीं हो सकता। इसलिए अन्य स्नायुरोगों में चिन्ता के परिवर्धन को सम्भावना मुकाबला करने के लिए दूसरी प्रतिरक्षा प्रणालियां अपनाई जाती हैं। यह स्नायुरोगों के मनोविज्ञान का बड़ा मनोरंजक हिस्सा है। बदकिस्मती से हम इसमें बहकर विषय से बहुत दूर चले जाएंगे, साथ ही इसके लिए इस विषय के विशेष ज्ञान का मज़बूत आधार भी चाहिए। मैं इतना ही और कह सकता हूं। मैंने पहले 'प्रति आवेशों' की चर्चा की है, जो अहम् द्वारा दमन पर डाले जाते हैं, और जिनका दमन के कायम रहने के लिए बना रहना ज़रूरी है। इस प्रति आवेश' का ही यह काम है कि वह दमन के बाद चिन्ता के परिवर्धन के विरोध में अनेक प्रकार से बचाव का कार्य करे।

अब फिर भीतियों पर आइए। मुझे आशा है कि अब आप यह समझ सकते हैं कि सिर्फ उनकी वस्तु की व्याख्या करने की कोशिश करना और उनके पैदा होने के स्थान के अलावा उनमें कोई दिलचस्पी न लेना कितना अधूरा काम है, अर्थात् सिर्फ यह विचार करना कि किस वस्तु या स्थिति की भीति है, यह बात कितनी अपर्याप्त है। भीति की वस्तु का वैसा ही महत्त्व है, जैसा व्यक्त स्वप्न की वस्तु कायह बाहरी दिखावटी रूप है। सारे उचित रूप-भेद करके यह मानना पड़ता है कि विभिन्न भीतियों की वस्तुओं में बहुत-सी ऐसी वस्तुएं पाई जाती हैं जो, जैसाकि स्टेनली हाल ने बताया है, जाति-चारितीय आनुवशिकता के कारण त्रास की आलम्बन बनने के लिए विशेष रूप से उपयुक्त हैं। यह वात इस तथ्य से भी मेल खाती है कि इन त्रासकारक वस्तुओं में से बहुत-सी वस्तुओं का खतरे के साथ, प्रतीकात्मक सम्बन्ध के अलावा, और कोई भी सम्बन्ध नहीं होता।

इस प्रकार, हमें यह निश्चय हो जाता है कि स्नायुरोगों के मनोविज्ञान में चिन्ता की समस्या बिलकुल केन्द्रीय अर्थात् सबसे महत्त्वपूर्ण, स्थिति में है। हमारी यह एक प्रबल धारणा बन गई है कि चिन्ता का परिवर्धन राग के भविष्य और सचेतन संस्थान से किस तरह जुड़ा हुआ है। अब सिर्फ एक असम्बन्धित सूत्र, सारे ढांचों में एक खाली स्थान, रह गया है, और वह यह तथ्य है जिस पर आपत्ति करना मुश्किल ही है कि 'आलम्बननिष्ठ चिन्ता' को अहम् की आत्मसंरक्षण-विषयक निसर्ग-वृत्ति की अभिव्यक्ति माना जाए।

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