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‘ए जनरल इन्ट्रोडक्शन टु साइको-अनालिसिस’ का पूर्ण और प्रामाणिक हिन्दी अनुवाद
व्याख्यान
24
साधारण स्नायविकता
पिछले व्याख्यान में हमने जिस कठिन प्रश्न पर विचार किया है, उसके बाद थोड़ी
देर के लिए मैं उस विषय को छोड़ देता हूं और अब कुछ समय के लिए अपने श्रोताओं
की ओर ध्यान देता हूं।
मैं जानता हूं कि आप असन्तुष्ट हैं। आपने सोचा था कि मनोविश्लेषण का सामान्य
परिचय बिलकुल दूसरी ही तरह की चीज़ होगी। आपको आशा थी कि सिद्धान्तों के बजाय
जीवन के उदाहरण पेश किए जाएंगे। आप मुझसे कहेंगे कि उन दो बच्चों की कहानी
ने, जिनमें से एक निचली मंज़िल में और दूसरा ऊपर रहता था, स्नाय-रोग के कारण
पर कछ रोशनी डाली, पर वह एक मनगढन्त दृष्टांत के बजाय वास्तविक तथ्य होना
चाहिए था; या आप कहेंगे कि जब मैंने शुरू में आपके सामने दो लक्षणों का वर्णन
किया था, (भरोसा रखिए कि वे काल्पनिक नहीं थे) और उनका समाधान तथा रोगियों के
जीवन से उनका सम्बन्ध-सूत्र पेश किया था, तब उससे लक्षणों के अर्थ पर कुछ
प्रकाश पड़ा था, और आपने आशा की थी कि मैं उसी तरह आगे चलता रहूंगा। ऐसा करने
के बजाय मैंने आपको बहुत समय लेने वाले और बड़े अस्पष्ट सिद्धान्त बताए जो
कभी पूरे न हए और उनमें मैं कछ-न-कुछ जोड़ता ही रहा। मैं ऐसे अवधारणों की
चर्चा करता रहा, जिनका मैंने अभी आपको परिचय नहीं दिया था। मैंने वर्णनात्मक
व्याख्या छोड़कर गतिकीय पहलू से व्याख्या शुरू कर दी, और फिर इसे भी छोड़कर
तथाकथित आर्थिक व्याख्या शुरू कर दी। आपके लिए यह समझना कठिन कर दिया कि
इनमें से कितने पारिभाषिक शब्दों का अर्थ एक ही है, और वे सिर्फ बोलने की
सुविधा के लिए एक-दूसरे के स्थान पर प्रयोग किए गए हैं। मैंने विस्तृत
अवधारणाएं पेश कीं, जैसे सुख-सिद्धान्त और यथार्थता-सिद्धान्त की और
'जातिचरितीय' परिवर्धन के वंशागत अवशेष की, और फिर आपके सामने कोई बात स्पष्ट
करने के बजाय मैंने उन्हें आपके देखते-देखते आपकी नज़रों से ओझल हो जाने
दिया।
मैंने स्नायु-रोगों के अध्ययन की भूमिका उन बातों से क्यों शुरू नहीं की जो
आप सब स्नायविकता के बारे में जानते हैं, जिन्होंने बहुत समय से आपकी
दिलचस्पी जगा रखी है। या स्नायविक व्यक्तियों के खास तरह के स्वभाव, मानवीय
समागम और बाहरी प्रभावों पर उनकी दुर्बोध प्रतिक्रियाओं, उनकी उत्तेजनशीलता,
उनकी अविश्वसनीयता और किसी काम में सफल होने की उनकी असमर्थता से इसे क्यों
शुरू नहीं किया? मैंने स्नायविकता के सरल प्रतिदिन दिखाई देने वाले रूपों की
व्याख्या से एक-एक कदम बढ़ते हुए आपको उसके उग्र गूढ़ रूपों तक क्यों नहीं
पहुंचाया?
सच पूछिए तो मैं इनमें से किसी भी बात से इनकार नहीं करता, या यह नहीं कहता
कि आपका कहना गलत है। मुझे अपनी प्रतिपादन-क्षमता से इतना प्रेम है कि मुझे
इसकी हर कमी में एक विशेष आकर्षण दिखाई देता है। मैं स्वयं यह समझता हूं कि
अगर मैं दूसरे तरीके से चलता तो अधिक अच्छा रहता, और सच पूछिए तो मेरा यही
इरादा था। पर आदमी सदा तर्कपूर्ण योजना पर नहीं चल पाता। प्रायः ऐसा होता है
कि सामग्री में कोई ऐसी चीज़ आ पड़ती है, या प्रतिपादन-सामग्री का ही कोई ऐसा
अंश बीच में आ कूदता है जो मनुष्य पर हावी हो जाता है, और उसे अपने सोचे हुए
रास्ते से हटा देता है। सुपरिचित सामग्री को सिलसिले से सजाने जैसा मामूली
काम भी पूरी तरह कर्ता की इच्छा के अधीन नहीं रहता। यह अपने ही तरीके से बाहर
आता है, और आदमी बाद में आश्चर्य भी कर सकता है कि यह ऐसा क्यों हुआ, और इससे
भिन्न रूप से क्यों नहीं हुआ। सम्भवतः इसका एक कारण यह है कि मेरे मूल
प्रतिपाद्य, अर्थात् मनोविश्लेषण के परिचय में, स्नायु-रोगों के विषय से
सम्बन्धित अंश नहीं समाता। मनोविश्लेषण का परिचय या भूमिका में गलतियों और
स्वप्नों का अध्ययन ही आता है; स्नायु-रोग का सिद्धान्त तो स्वयं मनोविश्लेषण
ही है। मैं नहीं समझता कि इतने थोड़े-से समय में मैं आपको इस तरह बहत सघन रूप
के अलावा और किसी तरह स्नाय-रोगों के सिद्धान्त की भीतरी सामग्री की कुछ
जानकारी दे सकता था। इसमें मुझे लक्षणों का अर्थ और तात्पर्य, और साथ ही
लक्षण-निर्माण की बाहरी और भीतरी दशाएं और तन्त्र उनके उपयुक्त सिलसिले में
आपके सामने पेश करने थे। यह पेश करने की कोशिश मैंने की है। मोटे रूप में
मनोविश्लेषण आज जो कुछ आपके सामने रख सकता है, यह उसका सारभाग है। इसके
साथ-साथ राग और उसके परिवर्धन के बारे में बहुत कुछ कहा गया है, और अहम् के
बारे में भी कुछ कहा गया है। आरम्भिक व्याख्यानों से आप हमारी विधि के मुख्य
सिद्धान्तों के लिए और अचेतन के तथा दमन (प्रतिरोध) के अवधारणों से सम्बन्धित
मोटी बातों के लिए पहले तैयार हो चुके थे। आगे के एक व्याख्यान में आपको यह
पता चलेगा कि किस जगह से मनोविश्लेषण आगे जारी रहेगा। अब तक मैंने आपसे यह
बात नहीं छिपाई है कि हमारे सब प्रमाण स्नायविक रोगों के सिर्फ एक समूह
अर्थात् स्थानान्तरण स्नायु-रोग के अध्ययन से निकले हैं, और इसी तरह मैंने
लक्षण-निर्माण के तन्त्र की जांच-पड़ताल सिर्फ हिस्टीरिया-स्नायु-रोग की पेश
की है। यद्यपि सम्भवतः आपको कोई बहुत संगोपांग जानकारी नहीं हासिल हुई होगी,
और छोटी-छोटी बात आपको याद नहीं रही होगी, फिर भी मुझे आशा है कि आपको मोटे
तौर से यह पता चल गया है कि मनोविश्लेषण किन साधनों से कार्य करता है या किन
समस्याओं पर विचार करता है, और यह कौन-से परिणाम पेश कर सकता है।
मैंने कहा था कि आप मन में यह चाहते थे कि मैंने स्नायु-रोगों का विषय
स्नायु-रोगी के व्यहवहार के वर्णन से और इन बातों के वर्णन से कि वह अपने रोग
से किस तरह दुःख उठाता है, अपने-आपको इससे किस तरह बचाता है, और किस तरह
स्वयं को इसके अनुकूल बना लेता है, शुरू किया होता। निश्चित ही यह बड़ा
मनोरंजक विषय है, अध्ययन करने योग्य है, और इसमें इलाज करना कुछ कठिन भी
नहीं; तो भी इस पहलू से शुरू करने के विरुद्ध कुछ दलीलें हैं। खतरा यह है कि
अचेतन को नज़रन्दाज़ कर दिया जाएगा, राग या लिबिडो के बहुत अधिक महत्त्व की
ओर ध्यान न दिया जाएगा, और प्रत्येक चीज़ वैसी ही मान ली जाएगी जैसी वह रोगी
के अपने अहम को दिखाई देती है। अब यह स्पष्ट है कि उसका अहम विश्वसनीय और
निष्पक्ष प्रमाण नहीं है। आखिरकार अहम् वही बल है जो अचेतन के अस्तित्व से
इनकार करता है और जिसने इसका दमन कर रखा है। तो फिर, जहां अचेतन का सम्बन्ध
है, वहां हम इसकी ईमानदारी का कैसे भरोसा कर सकते हैं? जिसका दमन किया गया
है, उसमें सबसे मुख्य चीज़ यौन प्रवृत्ति ही है। यह बिलकुल साफ है कि हमको,
इस मामले में अहम् का जो दृष्टिकोण है उससे, उस दमित यौन प्रवृत्ति की मात्रा
और उसके महत्त्व का कभी भी पता नहीं चल सकता। जैसे ही हमें दमन की प्रवृत्ति
या स्वरूप समझ में आने लगता है, वैसे ही हमसे कहा जाता है कि द्वन्द्व में
लगे हुए दोनों पक्षों में से किसी एक को, और विशेष रूप से विजयी पक्ष को अधिक
महत्त्व न दो। हमें पहले ही यह चेतावनी दे दी जाती है कि अहम् जो कुछ हमें
बताता है, उससे हम गलत रास्ते पर न चल पड़ें। अहम् की गवाही के अनुसार ऐसा
प्रतीत होगा कि जैसे यह ही सारे समय सक्रिय बना रहा है, और लक्षण इसी की
इच्छा से और इसी के द्वारा पैदा होते हैं। हम जानते हैं कि बहुत सीमा तक इसने
निष्क्रिय रहकर कार्य किया है, और इस तथ्य को यह उस समय छिपाने की कोशिश करता
और अपनी शान बघारता है। यह सच है कि यह सदा अपने इस दिखावटी रूप को कायम न रख
पाता-मनोग्रस्तता-रोग के लक्षणों में यह स्वीकार कर लेता है कि इसका किसी
शत्रु से मुकाबला हो रहा है, जिसका यह डटकर प्रतिरोध करता है।
जो अहम् की झूठी बातों को उनके पूरे अर्थ में न लेने की चेतावनी की ओर ध्यान
नहीं देता, वह निश्चित ही आराम से चलता जाता है। उसे उस सारे विरोध का सामना
नहीं करना पड़ेगा, जो मनोविश्लेषण का अचेतन, यौन प्रवृत्ति और अहम् के
निष्क्रिय रूप पर बल देने के कारण भुगतना पड़ता है। वह एलफ्रेड एडलर के इस
विचार से सहमत हो सकता है कि 'स्नायविक चरित' स्नायु-रोग का परिणाम न होकर
कारण है, पर वह लक्षण-निर्माण की एक भी ब्यौरे की बात या एक भी स्वप्न की
व्याख्या नहीं कर सकेगा।
आप पूछेगे, 'क्या यह नहीं हो सकता कि मनोविश्लेषण द्वारा प्रकट की गई अन्य
व्याख्याओं को पूरी तरह उपेक्षित किए बिना स्नायविकता और लक्षण-निर्माण में
अहम् के कार्य को ठीक रूप में समझा जा सके?' मेरा उत्तर यह है, 'ऐसा हो सकना
चाहिए और किसी-न-किसी समय यह किया भी जाएगा, पर मनोविश्लेषण के करने के लिए
जो काम इस समय पड़ा है, वह यहां से करना उपयुक्त नहीं है।' यह भविष्यवाणी
अवश्य की जा सकती है कि किस जगह जाकर इस काम को भी उसमें शामिल कर लिया
जाएगा। कुछ और स्नायु-रोगी हैं जिन्हें हम स्वरतिक (नारसिस्सिल्टिक)
स्नायु-रोग कहते हैं, जिनमें अहम् उन स्नायु-रोगों की अपेक्षा, जिन पर हमने
पहले विचार किया है, अधिक गहरा उलझा होता है। इन रोगों की विश्लेषण द्वारा
जांच करके हम अधिक निष्पक्ष और विश्वसनीय रूप से यह निश्चित कर सकते हैं कि
स्नायु-रोगों में अहम् का कितना कार्य होता है।
परन्तु अपने स्नायु-रोग से अहम् के जो सम्बन्ध हैं, उनमें से एक इतना प्रमुख
था कि यह शुरू से पूरी तरह समझ में आता था। यह कभी भी अनुपस्थित नहीं प्रतीत
होता, पर सबसे अधिक स्पष्ट रूप से यह उस रोग में दिखाई देता है, जिसे हम
उपघातज स्नायु-रोग कहते हैं और जिसे हम समझ नहीं सकेंगे। आपको यह जानना चाहिए
कि स्नायु-रोग के सब विविध रूपों के कारणों और तन्त्रों के बार-बार वही कारक
क्रिया करते दिखाई देते हैं। बात इतनी ही है कि किसी प्ररूप में कोई एक कारक
और किसी प्ररूप में कोई दूसरा कारक लक्षण-निर्माण में सबसे महत्त्वपूर्ण होता
है। यह बिलकुल उसी तरह की बात है जैसी किसी थियेटर कम्पनी के कार्यकर्ताओं
में होती है। प्रत्येक कार्यकर्ता एक विशेष प्रकार का पार्ट लेता है-नायक का,
विदूषक का, खलनायक का आदि। उनमें से प्रत्येक अपने लिए कोई एक काम चुन लेता
है। इस तरह कल्पनाएं, जो लक्षणों में रूपान्तरित होती हैं, किसी रोग में इतनी
व्यक्त नहीं होतीं, जितनी, हिस्टीरिया मैं। 'प्रति आवेश' (एण्टी-कैथेक्सिस)
या अहम् के प्रतिक्रियानिर्माण मनोग्रस्तता रोग के चित्र में सबसे प्रधान
होते हैं; जिस तन्त्र को स्वप्नों में 'परवर्ती विशदन' कहा गया था, वह
पैरानोइया के भ्रमों में सबसे प्रमुख होता है।
उपघातज स्नायु-रोगों में, विशेष रूप से उनमें, जो युद्ध के आतंक से पैदा होते
हैं, एक स्वार्थपूर्ण अहंमूलक प्रेरक भाव, रक्षा और अपने हित की दिशा में
होने वाला प्रयत्न, विशेष रूप से दिखाई देता है। शायद यह अकेला रोग को जन्म न
दे सकता, यह रोग को अपना सहारा दे देता है, और एक बार रोग बन जाने के बाद यह
उसे कायम रखता है। इस प्रवृत्ति का लक्ष्य अहम् को उन खतरों से बचाना है जो
अपनी सन्निकटता से रोग पैदा करते हैं। यह तब तक इलाज भी नहीं होने देता जब तक
कि उन खतरों का फिर पैदा न होना असम्भव न लगने लगे, या उठाए गए खतरे के बदले
में कोई क्षति-पूर्ति न मिल जाए।
अहम् स्नायु-रोग और सब रूपों के जन्म और पोषण में भी इसी तरह की दिलचस्पी
रखता है। हम पहले कह चुके हैं कि अहम् लक्षणों को इसलिए सहारा देता है
क्योंकि इसके एक पहलू से दमनकारी अहम् प्रवृत्ति को सन्तुष्टि मिलती है। इसके
अलावा लक्षण-निर्माण द्वारा द्वन्द्व का समाधान सबसे अधिक सुविधाजनक और
सुखसिद्धान्त के सबसे अधिक अनुसार है, क्योंकि इससे निःसन्देह अहम् बहुत कठोर
और कष्टदायक भीतरी श्रम से बच जाता है। सचमुच ऐसे रोगी आए हैं जिनमें स्वयं
डाक्टर को यह मानना पड़ता है कि स्नायु-रोग द्वारा द्वन्द्व का समाधान
सामाजिक दृष्टि से सबसे अधिक हानिरहित और सबसे अधिक सह्य है। इसलिए यह सुनकर
आश्चर्य मत कीजिए कि कभी-कभी डाक्टर स्वयं उस रोग का समर्थक बन जाता है,
जिसको वह दूर कर रहा है। वह जीवन की सब स्थितियों में स्वास्थ्य के बारे में
कठमुल्लापन नहीं अपना सकता। वह जानता है कि दुनिया में स्नायु-रोग के कष्ट के
अलावा और दूसरे कष्ट भी हैं जो वास्तविक और अटल हैं, और आवश्यकता मनुष्य से
यह भी कह सकती है कि वह इन कष्टों पर अपना स्वास्थ्य कुर्बान कर दे, और
डाक्टर जानता है कि एक आदमी के इस तरह कष्ट सहने से दूसरे बहुत सारे लोग असीम
कष्ट से बच सकते हैं। इसलिए, यद्यपि हर स्नायु-रोगी के बारे में कहा जा सकता
है कि उसने 'रोग में पलायन' किया है, अर्थात् रोग को कष्ट कम करने वाला समझकर
उसमें पलायन किया है, पर यह मानना ही होगा कि बहुत-से रोगियों से यह पलायन
पूर्णतया उचित होता है, और जिस डाक्टर ने इस हालत को समझ लिया, वह बिना कछ
कहे और रोगी के हित का विचार करके इलाज से हाथ खींच लेगा।
पर इन अपवादों की ओर ध्यान न देकर हमें आगे विचार करना चाहिए। सामान्यतया यह
दिखाई देता है कि स्नायु-रोग में पलायन करके अहम् को एक तरह का भीतरी
'रोग-लाम' अर्थात् रोग के द्वारा सुविधा मिल जाती है। कुछ अवस्थाओं में मूर्त
बाहरी लाभ जो यथार्थता में कभी कम और कभी अधिक महत्त्व का होता है, इसके साथ
जुड़ा हुआ हो सकता है। इस तरह का आम उदाहरण लीजिए : जिस स्त्री से उसका पति
क्रूर व्यवहार करता है और निर्दयतापूर्वक उसका शोषण करता है, वह प्रायः सदा
स्नायु-रोग में शरण लेती है, बशर्ते कि उसका स्वभाव इसे ग्रहण कर सके। यह बात
तब होती है जब वह स्त्री इतनी कायर या इतनी रूढ़ संस्कारों वाली हो कि दूसरे
मर्द के साथ गुप्त रूप से अपनी सन्तुष्टि न कर सके; वह इतनी शक्तिशाली न हो
कि अपने पति से अलग होने के विरोधी सब बाहरी कारणों को चुनौती दे सके, और
उससे अलग हो सके; यदि उसे अपना भरण-पोषण कर सकने या अधिक अच्छा पति पा सकने
की आशा न हो, और सबसे अन्तिम बात यह है कि यदि वह अब भी यौन दृष्टि से इस
क्रूर व्यक्ति के प्रति प्रबल अनुराग न रखती हो। उसका रोग अपने पति के
विरुद्ध किए जा रहे द्वन्द्व में उसका ऐसा हथियार बन जाता है जिसका वह अपनी
रक्षा के लिए उपयोग कर सकती है, या बदला लेने के लिए दुरुपयोग कर सकती है। वह
अपने रोग की शिकायत कर सकती है, यद्यपि सम्भाव्यतः उसे अपने विवाह करने की
शिकायत का साहस न होगा। उसका डाक्टर उसका सहायक है। उसके पति को, जो वैसे
इतना निर्दय है, उसे छुट्टी देनी पड़ती है, उस पर पैसा खर्च करना पड़ता है,
उसे घर से अनुपस्थित रहने की छूट देनी पड़ती है, और इस प्रकार विवाह के
अत्याचार से उसे स्वतन्त्रता मिलती है। जहां रोग के कारण मिलने वाली यह बाहरी
या 'दुर्घटनामूलक' सुविधा ज़रा भी अधिक होती है, और यथार्थ जीवन में ऐसी
सुविधा देने वाली स्थानापन्न वस्तु नहीं मिलती, वहां आप अपनी चिकित्सा द्वारा
इस स्नायु-रोग का इलाज करने की बहुत आशा न रखिए।
अब आप कहेंगे कि मैंने 'रोग द्वारा लाभ या सुविधा' के बारे में अभी जो कुछ
कहा है, उससे उस विचार की पुष्टि होती है जिसे मैंने अभी अस्वीकार किया था,
अर्थात् यह कि अहम् स्वयं स्नायु-रोग को चाहता है, और इसे जन्म देता है। पर
ज़रा ठहरिए। शायद इसका सिर्फ यह तात्पर्य है कि अहम् स्नायु-रोग को, जिसे
रोकने में वह हर सूरत में असमर्थ हैं, स्वीकार करके प्रसन्न होता है, और यदि
उसका कुछ लाभ उठाया जा सकता है तो वह उसका अधिक-से-अधिक लाभ उठाता है। यह तो
बात का सिर्फ एक पहलू है। जहां तक यह प्रश्न है कि रोग से सुविधा या लाभ है,
वहां तक यह ठीक है कि अहम् स्नायु-रोग से दोस्ती रखकर बिलकुल खुश रहता है। पर
इसके साथ होने वाले अलाभों और असुविधाओं पर भी विचार करना होगा। आमतौर से
शीघ्र ही यह दीख जाता है कि स्नायु-रोग को स्वीकार करके अहम् के नुकसान का
सौदा किया है। इसने द्वन्द्व के समाधान की बहुत भारी कीमत चुकाई है। लक्षणों
के कारण होने वाले कष्ट शायद उतने ही खराब हैं जितना वह द्वन्द्व था जिसके
स्थान पर ये आ गए हैं; और बहुत हद तक ये उससे बहुत खराब भी हो सकते हैं। अहम्
लक्षणों के दुःख से छूटना चाहता है, पर इसको रोग द्वारा दत्त सुविधा या
रोगजनित लाभ नहीं छोड़ना चाहता है, और इसी में उसे सफलता नहीं हो सकती। इसलिए
ऐसा दिखाई देता है कि इस सारे मामले में अहम् का कर्तव्य ऐसा नहीं रहा जैसा
कि उसने समझा था; और हमें यह बात ध्यान में रखनी है।
यदि डाक्टर का कार्य करते हुए आपको स्नायु-रोगियों के बहुत इलाज करने पड़ें
तो शीघ्र ही आप यह आशा करना छोड़ देंगे कि जो लोग अपने रोग की बहत अधिक
शिकायत करते हैं, वे आपकी सहायता लेने को सबसे अधिक तत्पर होंगे, और सबसे कम
कठिनाई पैदा करेंगे बात इससे बिलकुल उलटी होगी। सब उदाहरणों में आप आसानी से
समझ जाएंगे कि जिस चीज़ से रोगजनित लाभ की सहायता मिलती है, वह दमनों से
उत्पन्न प्रतिरोध को और ताकत देती है, और इलाज करने की दिक्कतें बढ़ा देती
हैं; एक और तरह का रोगजनित लाभ भी है जो लक्षण के साथ पैदा होने वाले लाभ के
बाद आता है। जब रोग जैसा मानसिक संगठन काफी समय से चला आता है, तब अन्त में
वह एक स्वतन्त्र सत्ता का सा स्वरूप प्राप्त करता मालूम होता है। इसमें
आत्मसंरक्षण की सी निसर्ग-वृत्ति दिखाई देती है। यह मानसिक जीवन के दूसरे
बलों के साथ, यहां तक कि उनके साथ भी जो बुनियादी तौर से इसके विरोधी हैं, एक
तरह की सन्धि कर लेता है, और ऐसे मौके आते रहते हैं जिनमें यह एक बार फिर
उपयोगी और समयोचित दिखाई देता है, और इस तरह इसे एक द्वितीय फार्म या गौण
कार्य मिल जाता है, जो इसकी स्थिति को फिर मज़बूत बनाता है। रोग-शास्त्र का
उदाहरण लेने के बजाय हम रोज़ाना के जीवन का एक प्रमुख उदाहरण लेंगे। कोई
समर्थ मजदूर, जो अपनी जीविका कमाता है, अपने रोजगार में होने वाली किसी
दर्घटना से अंगहीन हो जाता है। वह अब काम नहीं कर सकता, पर उसे मुआवजे के रूप
में थोड़ी-सी सहायता मिलती है, और वह यह सीख जाता है कि अपनी अंगहीनता का,
भिखारी बनकर, किस तरह लाभ उठाया जा सकता है। उसका नया जीवन इतना हीन दर्जे का
है, तो भी वही चीज़ उसे सहारा देती है जिसने उसके पुराने जीवन को नष्ट किया
है। अगर आप उसकी असमर्थता दूर कर दें तो वह कुछ समय के लिए अपनी जीविका से
वंचित रह जाएगा, क्योंकि यह सवाल पैदा होगा कि क्या उसे अव भी उसका पहले वाला
काम मिल सकेगा? जब किसी स्नायु-रोग में इस तरह रोग का द्वितीय या गौण लाभ
उठाया जाने लगता है, तब हम उसे पहले वाले की कोटि में रख सकते हैं और दूसरा
या गौण रोगजनित लाभ कह सकते हैं।
मैं आपको मोटे तौर से यह सलाह देना चाहता हूं कि रोगजनित लाभ के व्यावहारिक
महत्त्व को आप बहुत तुच्छ न समझें, और साथ ही इसके सैद्धान्तिक महत्त्व से
बहुत अधिक प्रभावित भी न हों। पहले दिए हुए अपवादों के अलावा भी, इस कारक से
सदा उन दृष्टान्तों का स्मरण हो आता है, जो ओबरलैंडर ने फ्लीगैंड ब्लैटर में
'पशुओं में बुद्धि' के बारे में दिए हैं। एक अरब एक सीधे पहाड़ के एक ओर
काटकर बनाए हुए संकरे रास्ते पर ऊंट पर चढ़ा जा रहा है। रास्ते के एक मोड़ पर
एकाएक उसे अपने सामने एक शेर दिखाई देता है, जो उस पर झपटने को तैयार है।
भागने का कोई रास्ता नहीं; एक ओर खड्ड है और दूसरी ओर सीधा पहाड़। पीछे लौटना
और भागना भी असम्भव है। लाचार वह हाथ-पांव छोड़ देता है पर ऊंट ऐसा नहीं
करता। वह अपने सवार सहित खड्ड में कूद पड़ता है और शेर देखता रह जाता है।
साधारणतया स्नायु-रोग द्वारा प्रस्तुत उपाय रोगी को अधिक लाभ नहीं पहुंचाएगा।
शायद इस कारण कि आखिरकार लक्षण-निर्माण द्वारा द्वन्द्व का समाधान एक स्वतः
होने वाला प्रक्रम है, जो जीवन की आवश्कताएं पूरी करने के लिए अपर्याप्त
सिद्ध हो सकता है, और जिसके होने में मनुष्य को अपनी सर्वोत्तम और उच्चतम
शक्तियां त्यागनी पड़ती हैं। यदि चुनाव का मौका हो तो अधिक सम्मान की बात यह
होगी कि वह नियति से धर्म-युद्ध करता हुआ गिरे।
अपनी बात साधारण स्नायविकता से शुरू न करने का एक और भी कारण मैं आपको बताना
चाहता हूं। शायद आप यह समझते हों कि मैंने इस कारण ऐसा नहीं किया कि उस तरह
स्नायु-रोगों के यौन उद्गम की गवाही पेश करना कुछ ज़्यादा मुश्किल होता। पर
ऐसा समझना गलत है। स्थानान्तरण स्नायु-रोगों में लक्षणों को, निर्वचन पर
पहुंचने से पहले, निर्वचन के लिए पेश करना पड़ता है; पर जिन्हें असली
स्नायु-रोग1 कहते हैं, उनके साधारण रूपों में यौन जीवन का कारणात्मक महत्त्व
इतना साफ दिखाई देता है कि उसी ओर ध्यान खिंच जाता है। यह बात मुझे बीस वर्ष
पहले पता चली थी, जब एक दिन मैं आश्चर्य से यह सोच रहा था कि स्नायुरोगियों
की परीक्षा करते हुए हम उनके यौन जीवन से सम्बन्ध रखने वाली सब बातों को
क्यों सदा विचार से बाहर छोड़ देते हैं। पर इस प्रश्न पर जांच करने से मेरे
रोगियों में मेरी लोकप्रियता कम हो गई। लेकिन बहत थोडे-से समय में अपनी
कोशिशों से मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि : जहां यौन जीवन प्रकृत है, वहां कोई
स्नायु-रोग-मेरा मतलब है असली स्नायु-रोग-नहीं होता। यह सच है कि इस कथन में
लोगों के व्यक्तिगत अन्तरों को बिलकुल भुला दिया गया है, और इसमें यह भी दोष
है कि 'प्रकृत' शब्द का सुनिश्चित अर्थ निर्धारित नहीं है; पर मोटे तौर पर,
इसका आज तक वह महत्त्व कायम है। उस समय मैंने यहां तक किया कि स्नायविकता के
कुछ रूपों और कुछ हानिकारक यौन अवस्थाओं में विशिष्ट सम्बन्ध-सूत्र भी कायम
किए। मुझे इसमें सन्देह नहीं कि यदि मेरे पास अब भी जांच की वैसी सामग्री हो
तो मैं फिर वही परीक्षण कर सकता हूं। मैंने बहुत बार देखा है कि जो आदमी किसी
तरह की अधूरी यौन सन्तुष्टि से, उदाहरण के लिए हस्तमैथुन से, आनन्द पैदा करता
है, उसमें असली स्नायु-रोग का एक निश्चित प्ररूप होगा, और यदि वह यौन जीवन का
उतना ही असन्तोषजनक कोई और तरीका अपना लेगा तो यह स्नायु-रोग भी झटपट दूसरा
रूप धारण कर लेगा। उस समय मैं रोगी की अवस्था में होने वाले परिवर्तन से उसके
यौन जीवन की रीति में परिवर्तन का अनुमान कर सकता था, और मैं तब तक अपने
निष्कर्षों पर अड़ा रहता था, जब तक अपने रोगियों से इस बात की पुष्टि नहीं
करा लेता था। यह सच है कि तब वे दूसरे डाक्टर ढूंढ़ने का विचार करते थे, जो
उनके यौन जीवन में इतनी दिलचस्पी न रखें।
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1. Actual neuroses
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