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‘ए जनरल इन्ट्रोडक्शन टु साइको-अनालिसिस’ का पूर्ण और प्रामाणिक हिन्दी अनुवाद
लक्षण-निर्माण में कल्पना की सार्थकता आपको नीचे की बात से स्पष्ट हो जाएगी।
हमने कहा था कि राग कुण्ठा में प्रतिगमन करके उन स्थानों को आच्छादित कर लेता
है जिन्हें वह छोड़ चुका है, पर जिनसे फिर भी इसकी ऊर्जा के कुछ अंश जुड़े रह
गए हैं। हम इस कथन को वापस नहीं लेंगे, या इसमें संशोधन नहीं करेंगे, पर हमें
इसके बीच में एक जोड़ने वाली कड़ी रखनी होगी। राग को इन बद्धता-बिन्दुओं की
ओर वापस लौटने का अपना रास्ता कैसे मिलता है? अब राग ने जिन आलम्बनों और
धाराओं या प्रवाह-मार्गों को छोड़ दिया है, उन्हें प्रत्येक अर्थ में नहीं
छोड़ दिया है। वे या उनसे बनी हुई वस्तुएं, कुछ तीव्रता के साथ, कल्पना के
अवधारण में अब भी कायम हैं। राग को सब दमित बद्धताओं पर लौटने का अपने लिए
खुला रास्ता पकड़ने के लिए सिर्फ इतना ही करना है कि वह और सब तरह से खिंचकर
कल्पनाओं पर आ जाए। इन कल्पनाओं ने एक तरह की सहिष्णुता का सुख पाया है।
उनमें और अहम् में कितना ही स्पष्ट विरोध होने पर भी तब तक कोई द्वन्द्व नहीं
बन सकता जब तक कि एक खास अवस्था बनी रही-मात्रात्मक1 स्वरूप की अवस्था बनी
रही, जो अब राग का प्रवाह कल्पनाओं पर आ जाने से बिगड़ गई है, या हट गई है।
इस आगमन से कल्पनाओं का ऊर्जावेश या कैथेक्सिस इतना अधिक बढ़ जाता है कि वे
अपना व्यक्तित्व दिखाने लगती हैं, और कार्य-सिद्धि की ओर दबाव डालने लगती
हैं। पर तब उनमें और अहम् में संघर्ष अवश्यम्भावी हो जाता है। यद्यपि पहले वे
पूर्व चेतना या अचेतन थीं, तो भी अब उन पर अहम् की ओर से दमन का प्रभाव पड़ता
है और अचेतन की ओर से लगने वाले आकर्षण का प्रभाव होता है। राग कल्पनाओं से,
जो अब अचेतन हो गई हैं, अचेतन में मौजूद उनके उत्पत्ति-स्थानों की, अपने खुद
के बद्धता-बिन्दुओं की यात्रा करता है।
राग का कल्पना पर लौटना लक्षण-निर्माण के मार्ग में एक बीच का कदम है, जिसका
कोई विशेष नाम देना उचित है। सी० जी० जुंग ने उसे एक उपयुक्त नाम
अन्तर्मुखता2 दिया है, पर उसने इसका दूसरी वस्तुओं के वर्णन करने में भी
अनुपयुक्त रूप में प्रयोग किया है। हम इस स्थिति पर दृढ़ रहेंगे कि
'अन्तर्मुखता' शब्द यथार्थ सन्तुष्टि की शक्यताओं से राग के परे हट जाने का,
और उन कल्पनाओं पर, जो पहले हानिरहित मानकर सहन की जाती थीं, इसके अत्यधिक
संचय का वर्णन करता है। अन्तर्मुख व्यक्ति अभी स्नायु-रोगी नहीं होता पर वह
अस्थायी दशा में होता है। स्थान बदलते हुए बलों के नये विक्षोभ से लक्षण उभर
आएंगे, बशर्ते कि वे भी अपने दबे हुए राग के लिए कोई रास्ता तलाश न कर लें।
इस जगह अन्तर्मुखता का रोध होने पर स्नायविक सन्तुष्टि का अयथार्थ रूप और
कल्पना व यथार्थता के अन्तर का तिरस्कार होना पहले ही निश्चित हो जाता है।
निस्सन्देह आपने देखा होगा कि अपने इस अन्तिम कथन में मैंने कार्य-कारण
श्रृंखला जोड़ते हुए एक नया कारक, अर्थात् मात्रा या सम्बन्धित ऊर्जाओं की
राशि पेश की है। हमें इस कारण को भी सदा अपनी जांच में शामिल करना चाहिए,
कारणात्मक अवस्थाओं का शुद्ध रूप से गुणात्मक1 विश्लेषण काफी नहीं; या दूसरी
तरह कहा जाए तो इन प्रक्रमों की शुद्ध रूप से गतिकीय अवधारणा काफी नहीं; उसके
साथ आर्थिक पहलू भी आवश्यक है। हमें यह प्रत्यक्ष होता है कि दो विरोधी बलों
में तब तक द्वन्द्व नहीं छिड़ता, जब तक आच्छादन की मात्रा में एक विशेष
तीव्रता न आ जाए, चाहे उनका अस्तित्व सूचित करने वाली अवस्थाएं बहुत समय से
मौजूद हों। इसी प्रकार, शरीर-रचना सम्बन्धी कारक का रोगजनक महत्त्व इस बात से
निर्धारित होता है कि घटक-निसर्ग-वृत्तियों में से एक उस विन्यास में दूसरी
की अपेक्षा अधिक हो। यह भी समझा जा सकता है कि विन्यास गुणात्मक दृष्टि से सब
मनुष्यों में एक-सा है, और उसमें जो कुछ भेद है, वह मात्रा के कारण ही है।
स्नायविक रोग को सहन करने की क्षमता में भी इस मात्रा सम्बन्धी कारक का कम
महत्त्व नहीं है। अविसर्जित राग की उस राशि पर ही यह बात निर्भर है कि जिसे
कोई व्यक्ति, मुक्त रूप से घूमती हुई, अपने में धारण कर सकता है और इसका
कितना बड़ा अंश इसे यौन उद्देश्य से हटाकर उदात्तीकरण में यौनेतर उद्देश्य की
ओर प्रेरित कर सकता है। मानसिक व्यापार का अन्तिम लक्ष्य-जो गुणात्मक दृष्टि
से यह बताया जा सकता है कि सुख पाने और दुःख से बचने का प्रयत्न करना
है-आर्थिक दृष्टि से होता है कि मानसिक उपकरण में मौजूद उत्तेजन की मात्राओं
(उद्दीपन संहतियों) के वितरण को नियन्त्रित किया जाए, और उसका ऐसा संचय, जो
दुःख पैदा करे, रोका जाए।
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1. Quantitative
2. Introversion
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