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विविध >> मनोविश्लेषण मनोविश्लेषणसिगमंड फ्रायड
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‘ए जनरल इन्ट्रोडक्शन टु साइको-अनालिसिस’ का पूर्ण और प्रामाणिक हिन्दी अनुवाद
इसलिए वयस्क की रागबद्धता को, जिसे हमने स्नायु-रोगों के कारण बताते हुए
शारीरिक कारक का निरूपक कहा है, अब दो और भागों में बांटा जा सकता है :
वंशागत पूर्व प्रवृत्ति और बचपन के शुरू में अर्जित पूर्व प्रवृत्ति। क्योंकि
विद्यार्थी को रेखाचित्र के रूप में बात सदा आसानी से समझ में आती है, इसलिए
इन सम्बन्धों को मैं इस तरह रखता हूं:
स्नायु-रोग का कारण है =
(रागबद्धता से आकस्मिक
उत्पन्न पूर्व + (उपघातज)
प्रवृत्ति अनुभव
यौन रचना (पैतृक अनुभव)
शैशवीय अनुभव
आनुवंशिक यौन रचना में बहुत तरह की पूर्व प्रवृत्तियां दिखाई देती हैं, और
किसी में कोई घटक-आवेग और किसी में कोई और घटक-आवेग, अकेला या दूसरों के साथ
मिला हुआ, विशेष रूप से प्रबल होता है। यौन रचना और शैशवीय अनुभव मिलकर एक और
पूरक श्रेणी बनाते हैं, जो बिलकुल वैसी ही होती है जैसी वयस्क की पूर्व
प्रवृत्ति और आकस्मिक अनुभवों से बनने वाली पहली पूरक श्रेणी बताई गई है।
प्रत्येक श्रेणी में वैसे ही चरम रोगी मिलते हैं और सम्बन्धित कारकों में
वैसी ही कोटियां और सम्बन्ध मिलते हैं। यहां यह विचार करना उचित होगा कि
राग-प्रतिगमन के दो प्रकारों में से जो प्रकार अधिक विशिष्ट है, अर्थात् जो
प्रकार यौन संगठन की पहले वाली अवस्थाओं पर लौट आता है, वह आनुवंशिक शरीर
सम्बन्धी कारक से ही प्रधानतः निर्धारित होता है या नहीं, पर सबसे अच्छा यह
होगा कि इस प्रश्न का उत्तर तब तक के लिए टाल दिया जाए जब तक स्नायु-रोगों के
अधिक विस्तृत रूपों पर विचार न कर लिया जाए।
अब ज़रा इस तथ्य की ओर ध्यान दीजिए कि : मनोविश्लेषण की जांच से प्रकट होता
है कि स्नायु-रोगियों का राग अपने शैशवीय यौन अनुभवों से जुड़ा रहता है। इस
जानकारी को देखते हुए ये अनुभव मनुष्य जाति के जीवनों और बीमारियों के लिए
बहुत हा अधिक महत्त्वपूर्ण है। विश्लेषण के इलाज वाले अश के लिए भी इनका उतना
ही महत्त्व है, पर एक और दष्टिकोण से देखा जाए तो आसानी से पता चल जाएगा कि
यहां एक गलतफहमी का खतरा है, जो हमें इस भ्रम में डाल सकती है कि हम जीवन को
उसी दृष्टिकोण से देखने लगें जो स्नायु-रोगियों की स्थिति से बनता है। यह
सोचने पर शैशवीय अनुभवों का महत्त्व घट जाता है कि राग-प्रतिगमन करके उन पर
तब लौटता है जब उसे उसकी बाद की स्थितियों से खदेड़ा जाता है। इससे हम बिलकुल
विपरीत नतीजे पर पहुंचेंगे, अर्थात् राग-अनुभवों का उस समय कोई महत्त्व नहीं
था जब वे हुए, और उन्हें यह महत्त्व बाद में प्रतिगमन द्वारा ही प्राप्त हुआ।
आपको याद होगा कि हमने ईडिपस-ग्रन्थि पर विचार करते हुए पहले एक ऐसे ही
विकल्प की विवेचना की थी।
इस प्रश्न का फैसला करना भी कठिन नहीं। यह कथन निस्सन्देह सही है कि प्रतिगमन
शैशवीय अनुभवों के रागात्मक आवेश को बहुत अधिक बढ़ा देता है, और साथ ही उनके
रोगजनक महत्त्व को भी बढ़ा देता है। पर अकेले इसके आधार पर फैसला करना भ्रामक
होगा। इसके साथ और बातों पर भी विचार करना होगा। प्रथम तो, प्रेक्षण से बड़े
असंदिग्ध रूप से यह प्रकट होता है कि शैशवीय अनुभवों का अपना अलग महत्त्व
होता है जो पहले बचपन में ही सामने आ जाता है। बालकों में भी स्नायु-रोग होते
हैं। उनके स्नायु-रोगों में पिछले समय की ओर विस्थापन वाली बात बहुत कम होती
है, जैसा कि आवश्यक ही है, या बिलकुल नहीं होती-रोग किसी उपघातकारी अनुभव के
तुरन्त बाद शुरू हो जाता है। शैशवीय स्नायु-रोगों के अध्ययन से हम वयस्कों के
स्नायु-रोगों को गलत रूप में समझने के बहुत-से खतरों से बच जाते हैं, जैसे
बालकों के स्वप्नों से हमें वयस्कों के स्वप्नों को समझने की कुंजी मिल गई
थी। बालकों को स्नायु-रोग बहुत आम होता है; आमतौर से लोग जितना समझते हैं, यह
उससे भी अधिक आम होता है। प्रायः इसकी उपेक्षा कर दी जाती है। इसे दुष्ट
व्यवहार या शैतानी का व्यक्त रूप समझ लिया जाता है और प्रायः दबा दिया जाता
है। पर आगे से पीछे की ओर देखने पर यह सदा आसानी से पहचाना जा सकता है। यह
चिन्ता-हिस्टीरिया के रूप में सबसे अधिक दिखाई देता है। इसका अर्थ क्या है,
यह हम आगे चलकर देखेंगे। जब बाद के जीवन में कोई स्नायु-रोग उभरता है, तब
विश्लेषण से सदा यह प्रकट होता है कि यह उस शैशवीय स्नायु-रोग की सीधी शृंखला
है जो शायद प्रच्छन्न और आरम्भिक रूप में ही प्रकट हआ था; पर जैसा कि कहा जा
चुका है, ऐसे रोगी भी सामने आए हैं जिनमें बालकपन की स्नायविकता बिना रुके
जीवन-भर रोग के रूप में चलती रही। कुछ उदाहरणों में हम स्नायु-रोग की अवस्था
वाले बालक का विश्लेषण करने में सचमुच सफल हुए हैं, परन्त अधिकतर उदाहरणों
में हमें बालकपन के स्नाय-रोग की भतकाल की उस झांकी से ही सन्तुष्ट होना
पड़ा, जो बड़ी उम्र में रोगी होने वाले किसी व्यक्ति से मिली इस बड़ी उम्र
में उचित उपाय और सावधानियां करने में उपेक्षा नहीं बरतनी चाहिए।
दूसरे, यह बात भी निश्चित रूप से रहस्यमय या गूढ़ रहेगी कि यदि बालकपन के समय
में ऐसी कोई बात नहीं थी जो राग को आकर्षित कर सकती, तो राग क्यों उस पर ही
इस तरह सदा प्रतिगमन करता है। हमने परिवर्धन की कुछ अवस्थाओं पर जो बद्धता
मान ली है, उसकी सार्थकता तभी है यदि हम यह मानें कि यह अपने साथ रागात्मक
ऊर्जा की कुछ निश्चित मात्रा जोड़ लेती है। अन्त में, मैं यह कहना चाहता हूं
कि यहां शैशवीय अनुभवों की और बाद वाले अनुभवों की तीव्रता और रोगजनक अनुभवों
में एक पूरक सम्बन्ध मौजूद है-यह सम्बन्ध भी वैसा ही है जैसा हमने पहले वाली
दो अन्य श्रेणियों में देखा था। ऐसे रोगी मिले हैं जिनमें सारा कारण बालकपन
के यौन अनुभव ही मालूम होते हैं, इन रोगियों में इन प्रभावों या संस्कारों का
निस्सन्देह उपघातकारी प्रभाव हुआ था, और उनकी अनुपूर्ति करने के लिए सिर्फ
औसत दर्जे की यौन शरीर-रचना और उनकी अपरिपक्वता की ज़रूरत थी। कुछ रोगी ऐसे
हैं जिनमें बाद के द्वन्द्व महत्त्वपूर्ण कारण हैं, और बालकपन के संस्कारों
पर विश्लेषण से जो बल पडता दिखाई देता है, वह सिर्फ प्रतिगमन का फल मालम होता
है। इसलिए दो सिरे या चरम पक्ष-निरुद्ध परिवर्धन' और 'प्रतिगमन' होते हैं और
उनके बीच में, इन दोनों कारकों के विभिन्न अनुपात में मिश्रण मिलते हैं।
यह स्थिति उन लोगों के लिए कुछ मतलब की है जो बालक के यौन परिवर्धन में
जल्दी-से-जल्दी पठन-पाठन को लाकर स्नायु-रोगों को रोकने की आशा करते हैं। जब
तक ध्यान मुख्यतः शैशवीय यौन अनुभवों की ओर है, तब तक आदमी हर बात को इसी तरह
सोचेगा कि इस परिवर्धन की गति को मन्द करने और बालक को इस तरह के अनुभव से
बचाने का उपाय करके बाद के स्नायु-रोग का पहले ही निवारण किया जाए। हम जानते
हैं कि स्नायु-रोग पैदा करने वाली अवस्थाएं इससे अधिक उलझी हुई हैं और कि
उन्हें सिर्फ एक कारक की ओर ध्यान देकर सामान्यतः प्रभावित नहीं किया जा
सकता। बालकपन में कड़ी देख-भाल इसलिए व्यर्थ हो जाती है क्योंकि वह
शरीर-सम्बन्धी कारक के बारे में कुछ नहीं कर सकती। इससे भी बड़ी बात यह है कि
कड़ी देख-भाल करना इतना आसान नहीं है, जितना शिक्षा-शास्त्री लोग समझते हैं,
और इनमें दो नये खतरे भी हैं जिनको लापरवाही से उपेक्षित नहीं किया जा सकता।
हो सकता है कि यह बहुत अधिक सफल हो जाए, अर्थात् यह इतना अधिक यौन दमन करा दे
जिसका परिणाम हानिकारक हो और तब बालक जीवन में प्रवेश करने पर अपनी
यौनप्रवृत्ति की उन प्रबल पुकारों का प्रतिरोध करने की शक्ति नहीं रखता, जो
तरुणावस्था में पैदा हुआ करती हैं। इसलिए यह बहुत संदिग्ध है कि बालकपन में
कहां तक स्नायु-रोग-निवारक कार्य लाभदायक हो सकते हैं, और यह विचारणीय है कि
क्या स्नायु-रोगों की रोकथाम करने के लिए यह अधिक अच्छा नहीं होगा कि
वास्तविकता के प्रति परिवर्तित या दूसरा रुख अपनाया जाए?
अब फिर लक्षणों पर विचार किया जाए। वे यथार्थ रूप में न मिलने वाली सन्तुष्टि
के स्थान पर एक सन्तुष्टि प्रदान करते हैं। वे यह कार्य इस तरह करते हैं कि
राग का जीवन के किसी पहले वाले समय को प्रतिगमन हो जाता है, और जीवन के उस
समय से प्रतिगमन का अविच्छेद्य सम्बन्ध होता है, या राग आलम्बन-चुनाव की या
संगठन की किसी पूर्ववर्ती कला में लौट जाता है। हमने कुछ समय पहले देखा था कि
स्नायु-रोगी अपने पिछले जीवन के किसी काल से किसी रूप में बंधा हुआ होता है।
अब हम जानते हैं कि यह पिछला समय वह है जिसमें उसका राग सन्तुष्टि पा सकता
था, जिसमें वह सुखी था। वह अपनी जीवन-कथा पर पीछे घूमकर देखता है, किसी ऐसे
काल की तलाश करता है और इसे तलाश करता ही जाता है, चाहे उसे उस काल तक लौटना
पड़े जब वह दुधमुंहा शिशु था, और वह वाद के प्रभावों से उसके मन में इसकी जो
कल्पना बनी हुई है, उसके अनुसार, या अपनी स्मृति के अनुसार उसे पाने का यल
करता है। लक्षण किसी रूप में सन्तुष्टि का वह पहला शैशवीय तरीका फिर पैदा कर
देता है, चाहे द्वन्द्व में ध्वनित काट-छांट या सेन्सरशिप द्वारा उसका रूप
छिपा दिया गया हो, चाहे वह पीड़ा की संवेदना में बदल दिया गया हो, जैसा कि
आमतौर पर होता है, और रोग पैदा होने तक के अनुभवों में से लिए हुए अवयवों से
मिला हुआ हो। लक्षणों से जिस तरह की सन्तुष्टि मिलती है, उसका रूप ऐसा होता
है कि हम पहचान नहीं पाते, और इसके अलावा, यह तथ्य तो है ही कि सम्बन्धित
व्यक्ति को उस सन्तुष्टि का अनुभव नहीं होता; और जिसे हम सन्तुष्टि कहते हैं
उसे वह तकलीफ के रूप में महसूस करता है, और दूसरी शिकायत करता है। यह
रूपान्तरण मानसिक द्वन्द्व से हुआ है जिसके दवाव से लक्षण को बनना पड़ा; जो
चीज़ किसी समय सन्तुष्टि थी उससे आज उसके मन में प्रतिरोध या भय पैदा हो रहा
है। इस तरह के भावना-परिवर्तन का एक सरल, पर शिक्षाप्रद, उदाहरण हम देख चुके
हैं। जो बच्चा माता के स्तन से बड़े आग्रह के साथ दूध चूसता था, वह कुछ
वर्षों बाद दूध से प्रबल अरुचि प्रदर्शित करता है, जिसे प्रशिक्षण द्वारा
कठिनाई से दूर किया जा सकता है। यदि दूध या दूध से युक्त किसी और तरह के
द्रव्य के ऊपर कोई मलाई बन गई हो तो यह अरुचि इतनी तीव्र हो जाती है कि घृणा
का रूप ले लेती हो। हो सकता है कि यह मलाई माता के स्तन की याद की गूंज उसके
मन में पैदा कर देती हो, जिसके लिए कभी वह इतनी प्रबल अभिलाषा रखता था। यह सच
है कि दोनों के बीच में दूध छुड़ाने का उपघातज अनुभव हो चुका है।
अब भी कुछ चीज़ ऐसी है जिससे लक्षणों की यह व्याख्या पूरी ठीक तरह नहीं जंचती
कि वे रागात्मक सन्तुष्टि के साधन हैं। हमें सन्तुष्टि के साथ प्रकृत रूप से
जिन चीज़ों को सम्बन्धित करने की आदत है, उन सबकी याद दिलाने में वे बिलकुल
विफल रहते हैं। वे अधिकतर आलम्बन से बिलकुल स्वतन्त्र होते हैं, और इस तरह
उन्होंने बाहरी यथार्थता से सम्बन्ध छोड़ दिया है। हम इसे यथार्थता-सिद्धान्त
की अस्वीकृति और सख-सिद्धान्त पर वापसी का परिणाम समझते हैं। पर यह बड़े रूप
में आत्मकामिता के एक प्रकार पर, अर्थात् उस प्रकार पर जिसने यौन-प्रवृत्ति
को उसकी सबसे पहली परितुष्टि प्रदान की थी, लौटना भी है। बाहरी जगत् में
परिवर्तन लाने के बजाय वे शरीर में ही परिवर्तन ले आते हैं, अर्थात् बाहरी
क्रिया के बजाय भीतरी क्रिया, चेष्टा के बजाय अनुकूलन-जातिचरितीय दृष्टिकोण
से यह भी बहुत अर्थपूर्ण प्रतिगमन है। इसे हम तब अच्छी तरह समझेंगे जब इस पर
हम एक नये कारक के सिलसिले में विचार करेंगे, जो उन कारकों में है जिनका
विश्लेषण सम्बन्धी गवेषणा ने लक्षण-निर्माण के बारे में पता लगाया है, और
जिसे हमें आगे जानना भी है। फिर हम यह देखते हैं कि लक्षण-निर्माण में वही
अचेतन प्रक्रम क्रियाशील हैं जो स्वप्न-निर्माण में थे, अर्थात् संघनन और
विस्थापन। स्वप्न की तरह लक्षण भी किसी चीज़ को पूरी हुई दिखाता है, और यह
सन्तुष्टि शैशवीय प्रकार की है। पर अत्यधिक संघनन द्वारा इस सन्तुष्टि को
दबाकर सिर्फ एक संवेदन बनाया जा सकता है, या अधिकतम विस्थापन द्वारा इसे सारी
रागात्मक ग्रन्थि का एक बहुत ही छोटा रूप दिया जा सकता है। यह कोई आश्चर्य की
बात नहीं कि प्रायः हम लक्षण में वह रागात्मक सन्तुष्टि आसानी से नहीं पहचान
पाते जिसकी हम सम्भावना करते हैं और जिसके इसमें होने की जांच से सदा पष्टि
हो सकती है।
मैंने संकेत किया है कि हमें अभी एक नये अवयव को जानना है। यह सचमुच बड़े
आश्चर्य और विस्मय में डालने वाली बात है। आप जानते हैं कि लक्षणों के
विश्लेषण से हमें उन शैशवीय अनुभवों की जानकारी होती है जिन पर राग बद्ध है
और जिनमें से लक्षण बने हैं। अब आश्चर्यकारक बात यह है कि शैशव के ये दृश्य
सदा सच्चे नहीं होते। सच पूछिए तो अधिकतर दृश्य असत्य होते हैं, और कुछ
उदाहरणों में तो वे ऐतिहासिक सत्य से बिलकुल उलटे होते हैं। आप देखेंगे कि इस
खोज से या तो उस विश्लेषण को गतल ठहराया जाएगा जिससे ऐसे परिणाम पैदा होते
हैं और या उस रोगी को झूठा कहा जाएगा जिसकी गवाही पर विश्लेषण और
स्नायु-रोगों को समझने का सारा यत्न हो रहा है। इसके अलावा, इसमें एक और भी
बड़ी विस्मयजनक बात है। यदि विश्लेषण से प्रकट किए जाने वाले शैशवीय अनुभव
प्रत्येक अवस्था में वास्तविक होते तो हम यह अनुभव करते कि हम मज़बूत आधार पर
खड़े हैं। यदि वे सदा झूठे सिद्ध होते और रोगी की गढन्त और कल्पनासिद्ध होते
तो हमें वह अस्थिर आधार छोड़ना पड़ता और किसी और तरह अपनी रक्षा करनी पड़ती।
पर यह न वह है न यह; क्योंकि जो चीज़ हमें मिलती है वह यह है कि विश्लेषण में
फिर से जोड़े गए या याद कराए गए बालकपन के अनुभव कभी-कभी बेशक मिथ्या होते
हैं, पर कभी-कभी वे इतने ही निश्चित रूप से बिलकुल सत्य भी होते हैं, और
अधिकतर उदाहरणों में झूठ और सच मिले हुए होते हैं। इस प्रकार लक्षण कभी तो सच
हुए अनुभवों के पुनरुत्पादन होते हैं जिनके बारे में यह कहा जा सकता है कि
उन्होंने राग की बद्धता पर प्रभाव डाला, और अगले ही क्षण, वे रोगी की
कल्पनाओं का पुनरुत्पादन-मात्र होते हैं जिनका कार्य-कारण विचार में कोई
महत्त्व मानना मुश्किल है। यहां कोई रास्ता नहीं सूझ पड़ता। शायद हमें इसी
तरह की खोज से कोई राह मिल सके कि बाल्यकाल की जो थोड़ी-सी स्मृतियां
विश्लेषण से बहुत पहले लोगों ने सचेत रूप में संरक्षित कर रखी हैं, वे भी इसी
तरह झूठी सिद्ध हो सकती हैं या कम-से-कम, उनमें भी सचाई और झूठ का ऐसा ही
बहुत अधिक मिश्रण हो सकता है। उनमें गलती प्रायः साफ दीख जाती है और इस
प्रकार हमें कम-से-कम यह तो निश्चय हुआ कि इस अकस्मात् आने वाली निराशा की
ज़िम्मेदारी विश्लेषण पर नहीं, बल्कि किसी-न-किसी रूप में, रोगी पर ही है।
थोड़ा सोचने पर हम आसानी से समझ सकते हैं कि इस मामले में इतनी विस्मय पैदा
करने वाली क्या चीज़ है। यह है यथार्थता को हीन या तुच्छ बना देना; यथार्थता
और कल्पना के फर्क को भुला देना। हमें रोगी पर इस कारण गुस्सा आता है कि उसने
मनगढन्त किस्सों से हमारा समय नष्ट किया। हमारी विचाररीति के अनुसार गप्प और
यथार्थता में आकाश-पाताल का अन्तर है और इन दोनों का मूल्य हम अलग-अलग ढंग से
आंकते हैं, यहां तक कि स्वयं रोगी भी प्रकृत रूप में विचार करते हुए इस तरह
सोचता है। जब वह ऐसी सामग्री पेश करता है, जिससे हम अभिलषित स्थितियों पर
पहुंचते हैं (जो लक्षणों की तह में होती है और बालकपन के अनुभवों पर खड़ी
होती हैं), तब निश्चित ही शुरू में हमें यह शक होने लगता है कि हमें यथार्थता
का अध्ययन करना है या कल्पनाओं का। इस प्रश्न का फैसला बाद में कुछ संकेतों
के द्वारा सम्भव हो जाता है और तब हमारे सामने इस परिणाम को रोगी को जतलाने
का काम आ पड़ता है। यह कभी भी बिना कठिनाई के पूरा नहीं हो जाता। हम शुरू में
उससे कहते हैं कि तुम अब वे कल्पनाएं हमारे सामने रखोगे, जिनमें तुमने अपने
बालकपन के इतिहास को छुपा रखा है, जैसे कि प्रत्येक जाति अपने भुलाए हुए
आरम्भिक इतिहास के बारे में पौराणिक कथाएं बना लेती है। तो, हम यह देखेंगे और
इससे हमें बड़ा असन्तोष होगा कि इस विषय को आगे चालू रखने में उसकी दिलचस्पी
एकाएक घट जाती है-वह भी तथ्य ही निकालना चाहता है, और जिसे 'कल्पना' कहा जाता
है, उससे नफरत करता है। पर यदि हम कार्य का यह हिस्सा पूरा होने से पहले यह
मानने की गुंजाइश दे दें कि हम उसके आरम्भिक जीवन की यथार्थ घटनाओं का पता
लगा रहे हैं, तो बाद में यह कहा जाएगा कि हमने गलती की, और हमें इतना
विश्वासी देखकर हमारी हंसी की जाएगी। उसे यह बात समझने में बहुत समय लगता है।
कल्पना और यथार्थता को एक जैसा मानकर चलना होगा, और शुरू में इस बात का कोई
महत्त्व नहीं है कि उसके जिन बालकपन के अनुभवों पर हम विचार कर रहे हैं, वे
कल्पित हैं या यथार्थ; परन्तु फिर भी स्पष्टतः उसके मन की इन सृष्टियों के
प्रति एकमात्र सही रुख यही हो सकता है। उनमें सचमुच एक तरह की यथार्थता भी
है। यह तथ्य है कि इन कल्पनाओं का सृजन रोगी ने किया है, और स्नायु-रोग के
लिए यह तथ्य उतने ही महत्त्व का है जितने महत्त्व का दूसरा तथ्य-यदि उसने
वस्तुतः उनमें वर्णित बातों का अनुभव किया होता। भौतिक यथार्थता के मुकाबले
में इन कल्पनाओं में मनोधात्वीय या मानसिक यथार्थता है, और क्रमशः हम यह
समझने लगते हैं कि स्नायु-रोग की दुनिया में मनोधात्वीय या मानसिक यथार्थता
ही निर्धारक कारक है।
जो घटनाएं स्नाय-रोगी के बालकपन की कहानी में बीच-बीच में दहराती रहती हैं,
और जो सदा प्रायः हाज़िर रहती हैं, उनमें से कुछ विशेष अर्थपूर्ण होती हैं,
और इसलिए उनकी ओर मैं विशेष ध्यान खींचना चाहता हूं। इस तरह की घटनाओं के
नमूने मैं गिनाऊंगा : माता-पिता का सम्भोग देखना, वयस्क द्वारा फुसलाया जाना
और बधिया करने, अर्थात् लिंग काट लेने, की धमकी। यह समझना बड़ा गलत होगा कि
ये घटनाएं यथार्थ रूप में कभी नहीं होतीं। इसके विपरीत, अधिक उमर वाले
रिश्तेदारों की गवाही से उनकी प्रायः असंदिग्ध रूप में पुष्टि होती है। इस
प्रकार, उदाहरण के लिए, ऐसा बहुत बार होता है कि छोटे बालक को जो अपने शिश्न
से खेलने लगा है और जिसने अभी यह नहीं सीखा है कि उसे ऐसे कामों को छिपाना
चाहिए, माता-पिता या नर्से यह धमकी देती हैं कि उसका शिश्न या हाथ काट दिया
जाएगा। पूछने पर माता-पिता प्रायः इस तथ्य को स्वीकार करेंगे, क्योंकि वे
समझते हैं कि इस तरह डराना उचित था। बहुत-से लोगों को इस धमकी की स्पष्ट सचेत
स्मृति होती है, विशेष रूप से यदि यह बालकपन के पिछले हिस्से में दी गई है।
यदि यह धमकी माता या कोई और स्त्री देती है तो वह यह (धमकी में व्यस्त) कार्य
करने का भार किसी दूसरे पर डालती है अर्थात् यह कहती है कि पिता या डाक्टर यह
कार्य करेगा। बच्चों के चिकित्सक हाफमैन (फ्रांकफोर्ट वाले) की प्रसिद्ध रचना
स्टूवेलपीटर में, जिसकी लोकप्रियता का कारण यही है कि वह बालकों की यौन तथा
अन्य ग्रन्थियों को समझता था, आप देखेंगे कि बधिया करने के विचार का रूप
बदलकर उसके स्थान पर अंगूठा चूसते रहने की सज़ा अंगूठे काटना रख दी है। पर यह
बहुत असम्भाव्य है कि बधिया या लिंगच्छेद करने की धमकी इतनी बार दी गई हो,
जितना किसी स्नायु-रोगी के विश्लेषण से प्रतीत होता है। हमें इतना ही समझना
चाहिए कि बालक अपनी इस जानकारी में से कि आत्मकामिक सन्तष्टियों पर रोक है,
संकेतों और निर्देशों के आधार पर इस तरह की धमकी अपने मन से गढ़ लेता है, और
इस तरह की बात गढ़ने में वह स्त्री-जननेन्द्रिय को देखने पर प्राप्त संस्कार
से भी प्रभावित होता है। इसी तरह यह भी असम्भव नहीं है कि उस छोटे-से बच्चे
ने, जिसके बारे में यह कहा जाता है कि उसे न समझ है और न स्मृति है, अपने
माता-पिता को या गरीब मजदूरों के अलावा अन्य परिवारों के दूसरे वयस्कों को
सम्भोग करते देखा हो। और यह सोचना तर्कसंगत है कि इस समय प्राप्त संस्कार को
बालक बाद में समझ सकता है, और तभी इस पर प्रतिक्रिया कर सकता है, पर जब इस
सम्भोग-कार्य का वर्णन इतनी बारीक बातें विस्तार से बताकर किया जाता जो
मुश्किल से ही देखी जा सकती थीं, या जब ऐसा प्रतीत होता है, जैसा बहुत बार
होता है, कि सम्भोग पीछे से किया गया है, तब इसमें कोई शक नहीं रहता कि यह
कल्पना सम्भोग करते हुए पशुओं (कुत्तों) को देखने से पैदा हुई है, और इसका
प्रेरक बल बालक की अतृप्त दर्शनेच्छा में मौजूद है। इस तरह की कल्पना का सबसे
बड़ा चमत्कार यह है कि रोगी कहता है कि मैंने अपने जन्म से पहले माता के गर्भ
में रहते हुए ही माता-पिता का सम्भोग देखा था।
फुसलाने की कल्पना विशेष दिलचस्प है, क्योंकि अधिकतर यह कल्पना नहीं होती
बल्कि वास्तविक स्मरण होती है : पर सौभाग्य से, यह उतने उदाहरणों में यथार्थ
नहीं होती जितने में यह पहले विश्लेषण के परिणामों से प्रतीत होती थी।
वयस्कों की अपेक्षा उसी आयु के या कुछ अधिक आयु के बालकों द्वारा फुसलाने की
बात अधिक होती है, और जब लड़कियां, जो अपने बालकपन की कहानी में प्रायः सदा
इस घटना को पेश करती हैं, पिता को फुसलाने वाला बतलाती हैं, तब न तो इस कथन
के कल्पित होने में सन्देह किया जा सकता है और न इसके पीछे क्रियाशील प्रेरक
भाव में। जब फुसलाने की बात बहुत नहीं हुई है तब कल्पना प्रायः बचपन की
आत्मकामिता वाली यौन चेष्टा को ढकने के लिए प्रयुक्त की जाती है। बालक
आत्मकामिता के बारे में शर्म की भावना से बचने के लिए, कल्पना से, बिलकुल
शुरू के काल में किसी वांछित आलम्बन की बात बना लेता है। परन्तु यह मत समझिए
कि निकटतम पुरुष रिश्तेदारों द्वारा बालकों का यौन दुरुपयोग पूरी तरह
कल्पना-लोक की ही उड़ान है; अधिकतर विश्लेषकों ने ऐसे रोगियों का इलाज किया
होगा, जिसके साथ सचमुच ऐसी घटनाएं हुई थीं और जो असंदिग्ध रूप से सिद्ध की जा
सकती थीं। पर फिर भी वे बचपन के पिछले वर्षों की घटनाएं थीं और वे पहले के
समय की बता दी गई थीं।
इस सबसे एक ही धारणा बनती है, कि स्नायु-रोग के लिए इस तरह के बालकपन के
अनुभव किसी-न-किसी रूप में आवश्यक है कि वे इसकी स्थायी सूची में आते हैं।
यदि वे यथार्थ घटनाओं में मिलते हैं तो अच्छा है, पर यदि यथार्थता में वे
नहीं हैं तो उन्हें संकेतों में से निकलकर कल्पना द्वारा बढ़ा लिया जाएगा।
परिणाम वही है, और आज भी हमें परिणामों में कोई भिन्नता पाने में सफलता नहीं
हुई, चाहे इन अनुभवों में कल्पना ने मुख्य कार्य किया हो या यथार्थता ने। यह
भी उन पूरक श्रेणियों में से एक है, जिनकी पहले इतनी बार चर्चा की गई है।
निश्चित रूप से यह उन सबसे विचित्र है। उन कल्पनाओं की आवश्यकता और सामग्री
कहां से आती हैं? निसर्ग-वृत्ति-स्रोतों के बारे में कोई सन्देह नहीं हो
सकता, पर इस बात की कैसे व्याख्या की जाएगी कि समान कल्पनाएं सदा उसी वस्तु
से बन जाती हैं। इसका मेरे पास एक ही उत्तर है, और मैं यह जानता हूं कि वह
आपको बड़ा साहसिक लगेगा। मेरा विश्वास है कि ये आदिम कल्पनाएं1 (मैं इन्हें
तथा कुछ और कल्पनाओं को भी यह नाम देना चाहता हूं) जातिचरितीय सम्पत्ति हैं।
उनमें मनष्य का अपना अनभव जहां कहीं नाकाफी रहा, वहां वह इससे बाहर निकलकर
अपने-आपको अतीत के युगों के अनुभवों तक फैला लेता है। मुझे यह बिलकुल सम्भव
मालूम होता है कि आज विश्लेषण में कल्पना के रूप में जो कुछ बताया जाता
है-बचपन में फुसलाना, माता-पिता के मैथुन को देखकर यौन उत्तेजना का पैदा
होना, लिंगच्छेद की धमकी, या स्वयं लिंगच्छेद भी वह मानव कुटम्ब के
प्रागैतिहासिक कालों में यथार्थतः था, और बालक अपनी कल्पना में अपने सच्चे
व्यक्तिगत अनुभवों के खाली स्थानों के सच्चे प्रागैतिहासिक अनुभवों से
पूर्तिमात्र कर देता है। हमें बार-बार यह सन्देह करने का मौका आया कि मानव
परिवर्धन के आद्यकालीन रूपों की सबसे अधिक जानकारी हमारे लिए स्नायु-रोगों के
मनोविज्ञान में ही संचित है, हमारी गवेषणा के किसी अन्य क्षेत्र में नहीं।
अब जिन बातों पर हम विचार कर रहे हैं, उनके लिए उस मानसिक व्यापार के उद्गम
और अर्थ पर अधिक बारीकी से विचार करने की आवश्यकता है, जिसे 'कल्पना-निर्माण'
कहते हैं। साधारणतया, जैसा कि आप जानते हैं, इसे बड़ा सम्मान प्राप्त है,
यद्यपि मानसिक जीवन में इसका स्थान स्पष्ट रूप से नहीं समझा गया। मैं इसके
बारे में आपको इतना ही बता सकता हूं : आप जानते हैं कि बाहरी आवश्यकता के
प्रभाव से मनुष्य का अहम् धीरे-धीरे इस तरह प्रशिक्षित हो जाता है कि वह
यथार्थता का महत्त्व ग्रहण कर सके और यथार्थता सिद्धान्त पर चल सके, और ऐसा
करने में इसे अपनी सुख की इच्छा के न केवल यौन बल्कि और बहत-से आलम्बन और
उद्देश्य स्थायी रूप से या अस्थायी रूप से त्यागने होंगे। पर सुख का त्याग
मनुष्य के लिए सदा बड़ा कठिन रहा है। वह किसी-न-किसी तरह की क्षति-पूर्ति के
बिना इसे नहीं कर पाता। इसलिए, उसने अपने वास्ते एक ऐसे मानसिक व्यापार का
विकास कर लिया है जिसमें सुख के ये सब त्यागे हुए साधन और सन्तुष्टि के छोड़े
हुए मार्ग अपना ऐसा अस्तित्व बनाए रख सकते हैं, जिसमें वे यथार्थता की
आवश्यकताएं पूरी करने से फारिग रहते हैं, और जिसे हम ‘प्रयोगशील यथार्थता'1
का प्रयोग कहते हैं उससे मुक्त रहते हैं। प्रत्येक लालसा शीघ्र ही अपनी
पूर्ति के मनोबिम्ब में रूपान्तरित हो जाती है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि
कल्पना में इच्छा-पूर्ति करने से तृप्ति होती है, यद्यपि यह ज्ञान कि यह
यथार्थता नहीं है इसके द्वारा ढक नहीं जाता। इसलिए कल्पना में मनुष्य उस
बाहरी जगत् की पकड़ से आज़ादी का मज़ा लेता रह सकता है, जिसे असल में उसने
बहुत पहले त्याग दिया है। उसने अपने-आपको इस तरह का बना लिया है कि वह कभी
सुखार्थी प्राणी और कभी तर्कसंगत मनुष्य बनता रहे, क्योंकि यथार्थता से जो
थोड़ी-सी सन्तुष्टि वह कर पाता है, वह उसे भूखा और अतृप्त छोड़ जाती है।
फौन्टेन ने कहा था, 'सहायक निर्माणों के बिना कोई भी कार्य नहीं किया जाता।'
कल्पना के मनोराज्य की सृष्टि में ऐसे स्थानों पर 'संरक्षित वनों' और
'प्राकृतिक वाटिकाओं' की स्थापना अच्छी तरह की जाती है, जहां खेती, यातायात
या उद्योग के विस्तार के कारण धरती का असली चेहरा बड़ी तेजी से एक अजनबी चीज
में बदलने का खतरा मौजूद है। 'संरक्षित वन' है वस्तओं की पुरानी अवस्था को
कायम रखना, जिसे और सब जगह, खेद के साथ आवश्यकता पर बलि चढ़ा दिया गया है।
वहां प्रत्येक वस्तु, यहां तक कि बेकार और हानिकारक वस्तु भी, मनचाहे तौर से
बढ़ और फैल सकती है। कल्पना का मनोराज्य भी ऐसा ही संरक्षित वन है, जिसे
यथार्थतावाद की घुसपैठ से बचाकर हरा-भरा किया गया है।
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1. Primal phantasies
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