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धरती और धन

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :339
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 8432
आईएसबीएन :0

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धरती और धन पुस्तक का आई पैड संस्करण

Dharti Aur Dhan

आई पैड संस्करण

प्रथम परिच्छेद


सन् 1631 की बात है। लाहौर रेलवे स्टेशन पर थर्ड क्लास के वेटिंग रूम में एक प्रौढ़ावस्था की स्त्री और उसके दो लड़के, एक दरी में लपेटे, रस्सी में बंधे, बड़े से बिस्तर पर बैठे, हाथ में रोटी लिए खा रहे थे। रोटी पर आम का अचार का एक-एक बड़ा टुकडा रखा था। स्त्री कुछ धीरे-धीरे चबा-चबाकर खा रही थी। वास्तव में वह अपने विचारों में लीन किसी अतीत स्मृति में खोई हुई थी। बड़ा लड़का पन्द्रह वर्ष की आयु का प्रतीत होता था। उसके अभी दाढ़ी मूँछे फूटी नहीं थीं। वह माँ को एक ओर बैठा जल्दी-जल्दी चबाकर रोटी खा रहा था। यह फकीर चन्द था। माँ के दूसरी ओर उसका दूसरा पुत्र, बिहारीलाल, ग्यारह वर्ष की आयु का, बैठा रोटी खा रहा था।

फकीरचन्द ने रोटी सबसे पहले समाप्त की और समीप रखे लोटे को ले, वेटिंग रूम के एक कोने में लगे नल से पानी लेने चला गया। नल के समीप पहुँच, हाथ का चुल्लू बना, उसने पानी पिया और लोटे को भली भाँति धो, भर, अपनी माता तथा भाई के लिए पानी ले आया।
माँ ने अभी तक रोटी समाप्त नहीं की थी। इस पर फकीरचन्द ने कहा, ‘‘मां गाड़ी का समय हो रहा है और तुमने अभी तक रोटी समाप्त नहीं की ? जल्दी करो न।’’
माँ ने फकीरचन्द के मुख पर देखा और खाना खाना बन्द कर दिया ‘‘इसको उस कुत्ते के आगे डाल दो। खाई नहीं जाती।’’
‘‘क्यों ?’’

‘‘कुछ नहीं बेटा ! वह देखो, लालसा-भरी दृष्टि से, मुख से जीभ निकाले इधर ही देख रहा है। लो इसे डाल दो।’’
बिहारीलाल ने हाथ से पानी लिया। माँ ने भी हाथ का चुल्लू बना पी लिया और स्वयं उठ रोटी कुत्ते को डालने चल पड़ी। फकीरचन्द मुख देखते रह गया।
माँ ने कुत्ते के आगे रोटी फेंकी और वह उसको उठाकर एक कोने में ले गया और खाने लगा। माँ आकर पुनः बिस्तर पर बैठ गई। फकीरचन्द अभी भी लोटा लिये वहीं खड़ा था। उसने कुछ भर्त्सना के भाव में कहा, ‘‘माँ ! इस प्रकार कब तक चलेगा। खाओगी नहीं तो बीमार पड़ जाओगी और फिर हमारा मन काम में कैसे लगेगा ?’’
‘‘मैं बीमार नहीं पड़ूँगी बेटा।’’
‘‘पर तुमने रोटी क्यों नहीं खाई !’’

माँ ने एक निःश्वास छोड़कर कहा, ‘‘तुम समझ नहीं सकोगे बेटा ! आज से सत्रह वर्ष पूर्व की बात स्मरण हो आई है। तब तुम्हारे पिता जी मुझको एमिनाबाद से विवाह कर लाये थे और मुझको इसी स्थान पर बैठाकर ताँगा-टमटम का प्रबन्ध करने चले गये थे।
‘‘मैं नव-वधुओं के से आभूषण और वस्त्र पहने हुई थी। तुम्हारे बाबा और तुम्हारे पिता के बड़े भाई तथा मेरी जेठानी और सास यहीं मेरे पास दरी बिछा कर बैठे थे। सास कह रही थी कि बाजे का प्रबन्ध होना चाहिए। जेठ ने कहा, ‘फजूल है। कौन बड़ा दहेज लेकर आई है, जो बाजे-गाजे से डोली ले जाएँ।’
‘‘आज सत्रह वर्ष के पश्चात इस नगर से ऐसे ही विदा हो रही हूँ। नहीं मालूम फिर कभी, यहाँ आने का अवसर मिलेगा अथवा नहीं।’’

इतना कहते-कहते उस स्त्री की आँखों में आँसू भर आए। फकीरचन्द ने, माँ के समीप पुनः बिस्तर पर बैठते हुए कहा, ‘‘माँ ! बीती बात को स्मरण करने से क्या लाभ ? हमें आगे को देखना चाहिए। राह चलते पीछे को देखने लगे तो ठोकर खाकर गिर भी सकते हैं। माँ ! यदि तुम इस प्रकार करने लगीं तो हम अभी साहस छोड़ बैठेगे।’’
माँ ने पुत्र की यह बात सुन, अपने आँचल से आँसू पोंछते हुए कहा, ‘‘बेटा ! यह मन की दुर्बलता थी। तुम्हारे पिता का सौम्य मुख स्मरण हो आया था। वे देवता थे, अपने जीवन के अति कठिन समय में भी उनके माथे पर बल पड़ते नहीं देखा। अब वे नहीं है न। अच्छा, अब ऐसी दु्र्बलता मन में नहीं आने दूँगी। पता करो न, गाड़ी कब आएगी।’’
वेटिंग रूम में लगी घड़ी देखकर फकीरचन्द ने कहा, ‘‘मैं समझता हूँ कि अब प्लेटफार्म पर चलना चाहिए। दरवाजा तो खुल गया है।’’

‘‘पहले बाबू से तो पूछ लो। बेकार में सामान उठाकर आना जाना ठीक नहीं।’’
वेटिंग रूम के फाटक पर खड़े बाबू से फकीरचन्द ने पूछा, ‘‘बाबू जी ! झाँसी की गाड़ी कब तक आने वाली है ?’’
‘‘गाड़ी आने ही वाली है। प्लेटफार्म नम्बर तीन पर चले जाओ।’’
गाड़ी पेशावर से बम्बई जाती थी। इस औरत और इसके दो लड़को को झाँसी जाना था। झाँसी के ढाई टिकट इन्होंने खरीदे हुए थे।

फकीरचन्द ने बिस्तर उठा कंधे पर रख लिया। बिहारी ने ट्रंक, जो छोटा सा था, उठा लिया और माँ ने लोटे को पकड़ लिया। सब प्लेटफार्म की ओर चल पड़े।
प्लेटफार्म पर पहुँचते ही गाड़ी आ गई। प्रायः सभी डिब्बे खचा-खच भरे हुए थे। माँ और बेटे गाड़ी में चढ़ने का प्रयास कर रहे थे, परन्तु कहीं स्थान नहीं मिल रहा था। सवारियाँ जबरदस्ती गाड़ी में चढ़ने के लिए भीतर बैठी सवारियों से लड़ रही थीं।

बिस्तर उठाए हुए फकीरचन्द और उसके साथ-साथ हाथ में ट्रंक लटकाते हुए बिहारीलाल तथा उनके पीछे-पीछे हाथ में थैला लिए हुए उनकी मां, गाड़ी को एक सिरे से दूसरे सिरे तक देख गये। किसी डिब्बे में पाँव रखने तक भी जगह नहीं थी। इंजिन के पास फकीरचन्द को एक छोटा सा डिब्बा दिखाई दिया। वह लगभग खाली था। उसमें केवल चार सवारियां बैठी थीं। बिहारीलाल ने इसको देखा तो कह दिया, ‘‘भापा ! इसमें जगह है।’’
फकीरचन्द ने डिब्बे को देखा। थर्ड क्लास ही था और उस पर किसी प्रकार का ‘रिजर्वेशन’ का लेबल लगा हुआ नहीं था। फकीरचन्द को विस्मय हुआ कि यह डिब्बा खाली क्यों रह गया है, जबकि और डिब्बे लदे-फदे है। उसने माँ से कहा, ‘‘माँ ! दरवाजा खोलो तो।’’

बिस्तर उठाये होने के कारण उसके दोनों हाथ रुके हुए थे। बिहारीलाल ने दरवाजा खोलने का यत्न किया तो पता चला कि उसको चाबी लगी है। भीतर बैठे एक आदमी ने आवाज दे दी, ताली लगी है।’’
‘‘क्यों ?’’ बिहारीलाल ने पूछा।

भीतर बैठे आदमी ने मुख मोड़ लिया। एक लड़का खिड़की के पास बैठा था। उसने कह दिया, ‘‘डिब्बा रिजर्व है।’’
इस पर फकीरचन्द ने डिब्बे को पुनः बाहर देखा। कुछ लिखा नहीं था। उसको सन्देह हो गया था कि यह झूठ बोल रहा है। उसने एक क्षण मन में विचार किया और फिर खिड़की में से बिस्तर भीतर फेंकने का यत्न किया। बिस्तर बड़ा था, इस कारण खिड़की में से भीतर जा नहीं सका। इस पर बिहारीलाल ने अपना छोटा सा ट्रंक खिड़की में से भीतर कर, माँ को कहा, ‘‘माँ ! तुम लपक कर चढ़ जाओ।’’

भीतर बैठे लड़के ने ट्रंक उठाकर बाहर फेंकने का यत्न किया। इस पर फकीरचन्द ने बिस्तर बाहर प्लेटफार्म पर रख दिया और लपककर खिड़की में से भीतर जा पहुंचा। उसने लड़के को एक ओर धकेल कर ट्रंक को खाली स्थान पर रख दिया और बिहारीलाल को हाथ पकड़ कर भीतर कर लिया। इसके बाद उसने माँ को कहा, ‘‘माँ ! बिस्तर खोल दो और एक-एक करके सामान पकड़ा दो।’’

माँ समझ गई कि बिस्तर खिड़की में से भीतर नहीं जा सकेगा। इस कारण उसने बिस्तर प्लेटफार्म पर ही खोल दिया।
‘‘ओ लड़के !’’ भीतर बैठे आदमी ने फकीरचन्द को कहा, ‘‘बाबू अभी आकर उतार देगा। क्यों सामान खोल रहे हो ?’’
फकीरचन्द ने उस आदमी को घूर कर देखा तो वह चुप कर गया। फकीरचन्द ने कहा, ‘‘जाओ बाबू को बुला लाओ।’’
‘‘वह तो करूँगा ही।’’

भीतर वालों के साथ एक स्त्री भी थी। उसने अपने आदमी को कहा, ‘‘फजूल का झगड़ा करते हो, आने दो न ?’’
इतने में माँ ने बिस्तर खोल दिया। वह सारा सामान उठा-उठाकर बिहारीलाल को पकड़ाने लग गई। बिहारीलाल उसको पकड़-पकड़ कर भीतर, ऊपर तख्ते पर रखने लग गया। इस पर भीतर बैठे आदमी ने कहा, ‘‘देखो, हमारा और अपना सामान मिला न देना।’’

फकीरचन्द की हँसी निकल गई। वह आदमी विस्मय से फकीरचन्द का मुख देखने लगा। फकीरचन्द ने उसकी अवहेलना करते हुए, सामन भीतर रख लिया और माँ का हाथ पकड़कर, उसको भीतर चढ़ा लिया। इस सब में पाँच मिनट लग गये। तब प्लेटफार्म की सवारियाँ गाड़ी में भर गई थीं। कोई बिरला अभी इधर-उधर भटक रहा था। कोई-कोई इस डिब्बे के पास भी आता था, परन्तु इसकी चाबी लगी देख लौट जाता था।
अब डिब्बे में सात प्राणी हो गये थे। यद्दपि वहाँ भीड़ नहीं थी, इस पर भी डिब्बा छोटा होने के कारण भरा हुआ-सा लगता था।

लाहौर स्टेशन पर गाड़ी आधा घंटा खड़ी रही। जब गाड़ी चली तो भीतर बैठे आदमी ने फकीरचन्द का नाम-धाम, गन्तव्य स्थान और काम पूछकर परिचय प्राप्त करना आरम्भ कर दिया।
‘‘कहाँ जा रहे हो जी ?’’
फकीरचन्द ‘जी’ सुनकर मुस्कराया और बोला, ‘‘झाँसी।’’
‘‘ओह, लम्बा सफर है !’’
‘‘जी।’’
‘‘लाहौर के रहने वाले हो ?’’
‘‘रहने वाले थे।’’
‘‘क्या मतलब ?’’
‘‘आज से लाहौर छोड़ रहे हैं। इरादा है कि लौटकर नहीं आएँगे।’’
‘‘ओह ! क्यों छोड़ रहे हो ?’’
‘‘जीविकोपोर्जन के लिए।’’
‘‘तो कहीं नौकरी लग गई है।’’

इस समय भीतर बैठी वह औरत भी फकीरचन्द की माँ से बातें करने लगी थी। वह पूछ रही थी, ‘‘क्या नाम है बहिन जी, आपका ?’’
‘‘रामरखी। पर बहिन जी !’’ उसने मुस्कराते हुए कहा, ‘‘आपने व्यर्थ में हमको कष्ट दिया है। देखो न, गाड़ी में चढ़ते समय घुटने छिल गए हैं।’’ इतना कह कर उसने सलवार उठाकर घुटने दिखा दिये। माँस छिल गया था और रक्त दिखाई दे रहा था।
इस पर औरत ने कहा, ‘‘हमारे पास चोट पर लगाने का तेल है। रामू !’’ उसने इस लड़के को, जो कह रहा था कि डिब्बा रिजर्व है, सम्बोधन कर कहा, ‘‘जरा मेरी अटैचीकेस में से लाल तेल की शीशी निकालना।’’
इस समय तक बिहारीलाल ने अपने बड़े बिस्तर का सामान समेटकर दो बिस्तर कर दिए थे। अब उसने अपने बड़े भाई को कहा ‘‘भापा ! अब ये खिड़की में से आसानी से निकल सकेंगे।’’

फकीरचन्द हँस पड़ा और बोला, ‘‘क्या मार्ग में सब स्थानों पर ऐसा ही झगड़ा होगा ?’’
‘‘हाँ, हो सकता है। मैं समझता हूँ कि हमको सदा तैयार रहना चाहिए।’’ इस पर दूसरे आदमी ने कह दिया, ‘‘लड़का ठीक कहता है। जीवन में बहुत मिलेंगे, जो बिना झगड़े के स्थान नहीं देंगे। प्रत्येक परिस्थिति के लिए सदा तैयार रहना चाहिए। क्या नाम है लड़के ?’’
उत्तर फकीरचन्द ने दिया, ‘‘मेरा छोटा भाई है बिहारीलाल।’’
‘‘देखो, मेरा नाम है करोड़ीमल। माता-पिता अति निर्धन थे। अपना मन बहलाने के लिए उन्होंने मेरा नाम करोड़ीमल रख दिया और अब वास्तव में मैं करोड़ीमल हूँ। देश-भर में पाँच कोठियाँ हैं और उन पर पाँचों में लाखों रुपयों का सामान भरा रहता है। माता-पिता से विनोद में दिये हुए नाम को मैंने पुरुषार्थ से संपर्क कर दिया है।’’

फकीरचन्द इस परिचय से करोड़ीमल और वास्तव में करोड़पति को विस्मय में देखने लगा। करोड़ीमल ने उसके विस्मय के कारण का अनुमान लगाते हुए कहा, ‘‘तुमको विश्वास नहीं आता न ?’’
‘‘जी नहीं ! आप थर्ड क्लास में यात्रा कर रहे हैं और फिर भी आपका हमारे प्रति व्यवहार देखकर तो ऐसा प्रतीत होता है कि....।’’ फकीरचन्द कहता-कहता रुक गया है।

इस पर करोड़ीमल हँस पडा और फकीरचन्द का वाक्य पूर्ण करते हुए बोला, ‘‘कोई कंगाल हूँ। ठीक है न ?’’
‘‘मैं तो आपको ऐसा नहीं कह सकता। मैं इतना जानता हूँ कि बड़े आदमी उदार हुआ करते हैं।’’
‘‘ठीक है, ठीक है। तुम्हारे स्कूल मास्टर ने ऐसा पढ़ाया है न ? परन्तु उसने एक बात नहीं पढ़ाई। अधिकारी के साथ दिखाई उदारता ही फल लाती है। अनधिकारी के साथ ऐसा व्यवहार तो पाप हो जाता है। जब मुझको पता चला कि तुम लोग अधिकारी हो, तो मैं चुप कर गया और मैंने तुमको भीतर आने और बैठने दिया।’’
अब हँसने की बारी फकीरचन्द की थी। इस पर उसने कुछ कहा नहीं। करोड़ीमल ने कहा, ‘‘देखो, क्या नाम है तुम्हारा ?’’

‘‘फकीरचन्द।’’
‘‘देखो, फकीरचन्द ! विश्वास करो कि मैं करोड़पति हूँ। इसपर भी मैं अपना धन व्यर्थ नहीं गंवाता। यदि मैं थर्ड क्लास में सवार होकर बम्बई पहुँच सकता हूँ, तो सैकण्ड और फर्स्ट क्लास में चढ़ना व्यर्थ समझता हूँ। यदि मैं सारे डिब्बे में बैठ सकता बूँ तो, मैं किसी दूसरे को डिब्बे में आने नहीं देता। जब पैसा कमाने का कोई उपाय सूझता हो, तो मैं उस उपाय को निस्संकोच प्रयोग में लाता हूँ। जब मैं देखता हूँ कि पैसा खर्च करने के लिए विवश हूँ तो फिर खर्च भी कर देता हूँ।’’
फकीरचन्द इस स्वनिर्मित धनी की जीवन-मीमांसा का दर्शन कर विस्मय कर रहा था। उसकी शिक्षा इससे भिन्न थी।

: 2 :


फकीरचन्द के पिता का नाम धनराज था। वह म्युनिसिपल कमेटी लाहौर में चुंगी का मुन्शी था। उसका देहान्त तपेदिक से सन् 1924 में हो गया था। तब वह चालीस रुपया वेतन पाता था।
सन् 1941 में, जब उसका विवाह हुआ था, धनराज केवल तीस रुपये ही वेतन पाता था। इस पर भी उसके विवाह का प्रबन्ध हो गया। जर्मन और अंग्रेजो के प्रथम युद्ध से पहिले पंजाब में जीवन अति सुलभ था। उस समय तीस रुपये वेतन एक जागीर समझी जाती थी। अतः जब धनराज का विवाह हुआ तो वह बहुत प्रसन्न था। कूचा कट्ठा सहगल की गली में, एक मकान, जिसमें उसका पिता और बड़ा भाई रहते थे, उसको भी पत्नी के साथ रहने के लिए एक तंग, बिना खिड़की वाला कमरा मिल गया।

जर्मनी से युद्ध हुआ तो वस्तुएँ मँहगी होनी आरम्भ हो गईं। लट्ठा, जो पहले तीन और चार आने गज था, 1916 में आठ और दस आने गज हो गया। गेहूँ जो पहिले ढाई रुपये मन था, अब छः और सात रुपये मन बिकने लगा। दूध, जो एक तथा डेढ़ आने सेर था, अब पाँच और छः आना सेर हो गया।
1916 में जब फकीरचन्द का जन्म हुआ था धनराज को निर्वाह में कठिनाई अनुभव होने लगी थी।
यह काल था, जब जनता की आवाज अधिकारियों तक पहुँच नहीं सकती थी और ईमानदारी, कम वेतनधारियों की कठिनाईयों का ज्ञान अंग्रेज अफसरों को नहीं हो सकता था। अतः उस युद्ध-काल में न तो मँहगाई भत्ते का कोई प्रबन्ध किया गया और न ही किसी प्रकार से वेतन में वृद्धि का आयोजन हुआ।

परिणाम यह हुआ कि मनुष्य प्रकृति ने जो विकट कठिनाइयों में भी अपना मार्ग निकाल लेती है, अपना काम आरम्भ किया। प्रायः कर्मचारी जो किसी भी प्रकार के जन सम्पर्क कार्य में काम करते थे, अपनी आय की वृद्धि करने का यत्न करने लगे। चुंगी एकत्रित करने वाले बाबुओं के लिए तो ऊपर की आय करने का सहज मार्ग निकल आया। पाँच रुपये के चुंगी माल की एक रुपये की रसीद काटकर और दो रुपये लेकर माल छोड़ा जाने लगा।
इन दिनों धनराज के सामने भी यह प्रलोभन आया। महीने के अन्तिम दिन थे। वेतन समाप्त हो चुका था और बच्चे के लिए दूध पिलाने की बोतल चाहिए थी, जो सात आने की आती थी। धनराज की जेब में पैसे नहीं थे। रामरखी ने, यह धनराज की स्त्री का नाम था, अपने पति से कहा, ‘‘बोतल रात टूट गई है, ले आइयेगा। बच्चा चम्मच से दूध नहीं पीता।’’
धनराज बिना उत्तर दिये, गम्भीर विचार में मग्न काम पर जा पहुँचा। उन दिनों उसकी शेरां वाले दरवाजे के बाहर वाली चुंगी पर नियुक्ति थी। जब वह काम पर पहुँचा तो पहले बाबू ने, जिसकी ड्यूटी समाप्त हो गई थी, धनराज को कहा, ‘‘यह पाँच गाड़ी माल है। दो की चुंगी मैं काट चुका हूँ। शेष तीन की तुम ले लेना। देखो, एक-एक रुपये की रसीद काट देना और वे दो-दो रुपये दे जाएँगे।’’
‘‘क्यों ?’’

‘‘इसलिए कि माल बीस मन है और चुंगी बनती है पाँच रुपए प्रति गाड़ी। तीन रुपये उसको बच जाएंगे और एक रुपया तुमको।’’
धनराज समझा तो घबरा उठा। जाने वाले बाबू ने कहा, ‘‘समझ गये धनराज ?’’
‘‘समझ गया।’’ धनराज ने कुर्सी पर बैठते हुए कहा। जब वह चला गया तो चपरासी, जिसको मालिक चार आना प्रति गाड़ी दे रखे थे, खिड़की पर आया और कहने लगा, ‘‘बाबू जी ! तीन गाड़ियों की रसीद काट दो। माल साढे छः मन, चुंगी एक रुपया।’’

इतना कह चपरासी ने खिड़की में से छः रुपये आगे कर दिये। धनराज ने यह रुपये पकड़े तो उसका हाथ काँप उठा। वह समझ गया कि यह पाप कर्म है। इस समय उसको बच्चे के लिए बोतल ले जाने का स्मरण हो आया। उसके मन में द्वन्द्व चल पड़ा। एक ओर धर्म संकट था, वह सरकार की ओर से चुंगी एकत्रित करने के लिए नियुक्त था, चुंगी लगभग पन्द्रह रुपये की बनती थी। दूसरी ओर उसके हाथ में छः रुपये चमचमाते हुए रखे थे। इनमें से, तीन उसकी जेब में जाने वाले थे और उन तीन रुपयों से न केवल दूध की बोतल खरीदी जा सकती है, प्रत्युत उसकी पत्नी के लिए धोती भी ली जा सकती है। साथ ही वह विचार कर रहा था कि इस प्रकार एक नियत आय बन सकती है, जिससे कुछ ही महीनों में वह पैसे वाला हो सकता है और किसी खुली हवादार जगह पर मकान लेकर जीवन को सुखमय कर सकता है।

उसने रुपये वाले हाथ की मुट्ठी बन्द कर ली। इस समय उसके हृदय-स्थल पर एक टीस उठी। उसने मुट्ठी खोल दी। उसके मुख की मुद्रा दृढ़ बन गई और उसने रुपयों को काउण्टर पर रखकर चपरासी को कहा, ‘‘गाड़ियों को लाकर तुलाओ।’’
चपरासी ने मुस्कराते हुए धनराज की ओर देखकर कहा, ‘‘बाबू जी ! यह...।’’ उसने रुपयों की ओर संकेत किया।
धनराज के मन में फिर विचार आया, ‘कौन देखता है !’ परन्तु अगले ही क्षण उसने कुर्सी उठते हुए कहा, ‘‘गाड़ी को काटे पर लाओ। मैं बाहर आ रहा हूँ।’’

उसकी अन्तरात्मा की पुकार प्रबल सिद्ध हुई और वह गुमटी से बाहर चला आया। गाड़ियाँ तोली गईं और सत्रह रुपये आठ आने चुंगी वसूल कर ली गई। पूर्ण रकम की रसीद बना दी गई।
इसी प्रकार दिन-भर चलता रहा। सायंकाल वह घर पहुँचा तो उसकी पत्नी ने बच्चे के दूध पिलाने की बोतल माँगी। पत्नी का उदास मुख देख उसका उत्साह भंग हो गया।


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