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देखा सोचा समझा

यशपाल

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :168
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 8426
आईएसबीएन :0

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देखा सोचा समझा पुस्तक का आई पैड संस्करण

Dekha Socha Samjha

आई पैड संस्करण

सेवाग्राम के दर्शन

सन् 1939 में दूसरा महायुद्ध आरम्भ हुआ तो ब्रिटिश साम्राज्यशाही सरकार ने भारत की इच्छा के विरुद्ध भी देश को उस युद्ध में लपेट दिया। उस समय देश के सभी राजनैतिक दल युद्ध में भाग लेने के विरुद्ध थे। ब्रिटिश सरकार के इस अन्याय के विरोध में कांग्रेस मंत्रीमण्डलों ने शासन से असहयोग कर त्यागपत्र दे दिये। कांग्रेस ने गाँधी जी के नेतृत्व में युद्ध-विरोध का आन्दोलन तो आरम्भ किया परन्तु आन्दोलन को व्यक्तिगत सत्याग्रह की सीमा में ही रखा। वामपक्षी जनता, कम्युनिस्ट और श्री सुभाष बोस के अनुयायी-फारवर्ड ब्लाक के लोग-युद्ध का विरोध सार्वजनिक आन्दोलन के रूप में चाहते थे। मैं उन दिनों ‘विप्लव’ का सम्पादन और प्रकाशन कर रहा था और विप्लव में लगातार सार्वजनिक आन्दोलन के पक्ष में लिख रहा था।
मध्यप्रदेश1 के वामपक्षी लोगों ने साम्राज्यवादी युद्ध के विरोध में आन्दोलन को सार्वजनिक रूप देने की माँग के लिये एक प्रान्तीय सम्मेलन

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यह लेख सेवाग्राम से लौटने के कुछ ही समय पश्चात् लिखा गया था इसलिए क्रियाओं का व्यवहार भूतकाल में न होकर वर्तमान काल में ही मिलेगा।
1. अब मध्य भारत और बरार का प्रदेश।

का आयोजन किया था। इस सम्मेलन का सभापति उन्होंने मुझे बनाना चाहा। इसी प्रसंग में नागपुर गया था। नागपुर पहुँच कर सेवाग्राम लगभग सत्तावन-अट्ठावन मील ही रह गया। सेवाग्राम जाकर गाँधी जी का दर्शन करने की इच्छा हुई। गाँधी जी के मुख से ही समझना चाहता था कि साम्राज्य विरोधी युद्ध और स्वराज्य के सार्वजनिक उद्देश्यों से चलाये गये आन्दोलन को व्यक्तिगत सत्याग्रह का रूप देकर व्यक्तिगत प्रश्न क्यों बनाया जा रहा है ? दूसरी बात यह थी कि मनुष्य समाज ने सहस्रों वर्षों के प्रयत्न से जिस औद्योगिक सभ्यता का विकास किया है, उसे छोड़कर मनुष्य समाज के कल्याण के लिये उसे फिर से घुटने के बल रेंगने वाले चर्खषा और घरेलू उद्योग-धन्धों के युग में पहुँचा देने का यत्न करने वाले ‘महात्मा’ के दर्शन के अवसर की उपेक्षा करना भी उचित न जान पड़ा।

अपने सहृदय यजमान अर्थात् मेजबान के सम्मुख अपनी इच्छा प्रकट की। वे अपनी गाड़ी में सेवाग्राम तक पहुँचा देने के लिए तैयार हो गये। नागपुर नगर पठार के इलाके में होने के कारण खासी गरम जगह है। कड़कती धूप में सत्तावन-अट्ठावन मील का सफर विशेष आकर्षक न था परन्तु महात्मा जी के दर्शन स्वयं उन्हीं की कुटिया में करने का प्रलोभन भी प्रबल था। इसलिये चले।
धूप तेज थी, चारों ओर का प्रदेश खुश्क। यह इलाका संतरों के लिए प्रसिद्ध है। संतरों से लदे वृक्ष देखने में सुहावने भी खूब जान पड़ते थे परन्तु फल धूप की तेजी से फीके पड़ गये थे; जैसे सुन्दर वस्त्रों में लिपटी नगर की स्वास्थ्यहीन, निस्तेज नारियाँ। हाँ उन संतरों के बागों में पेड़ों की सींचने वाली और फल तोड़ इकट्ठे करने वाली ग्रामवधुयें वैसे विरस न थीं-छिलके पर कुछ हरियाली और रस में तुर्शी भी मौजूद थी।

चिलचिलाती धूप में सामने वर्षा से आने वाली लारियों से उड़ते गर्द के बादलों को पार करते चले जा रहे थे। उस तपी हुई सड़क पर खद्दर का कुर्ता, जाँघिया और गाँधी टोपी, पहने कंधे से कम्बल में लिपटता छोटा सा बिस्तर लटकाये, हाथ की लाठी पर तिरंगा फहराये चले आते चार सज्जन दिखाई दिये। अनुमान किया, सत्याग्रह का व्रत लेकर देहली की पैदल यात्रा करने वाले स्वयंसेवक होंगे। मध्यप्रदेश में इस प्रकार का सत्याग्रह प्राय: होता रहा है। इटारसी स्टेशन पर भी ऐसे एक सज्जन के दर्शन हुए थे। परिचय कराया गया था कि यह सज्जन पहले दो बार डेढ़-डेढ़ सौ मील की पैदल यात्रा कर प्रांत की सीमा पर पहुंच चुके थे। सीमा लांघने से पूर्व ही पुलिस इन्हें गिरफ्तार कर लेती है और रेल से सौ-डेढ़ सौ मील लौटा कर पुन: यात्रा आरम्भ करने के लिए छोड़ देती है। ये सज्जन ‘किंग आर्थर’ की मकड़ी की तरह अपना प्रयत्न फिर आरम्भ कर देते हैं।

ऐसे उत्साही और दृढ़ब्रती कार्यकर्ताओं के मन की भावना जानने की इच्छा हुई। ठीक उनके समीप पहुंच कर कार के सहसा रुक जाने से वे चकित भी हुये। गाड़ी से निकल कर उनसे अंग्रेजी में पूछा-‘‘आप कहाँ जा रहे हैं।’’
दृढ़ता से उन्होंने उत्तर दिया-‘‘हम लोग सत्याग्रही हैं। हम दिल्ली जा रहे हैं।’’
‘‘इससे क्या लाभ ?’’
‘‘हम जा रहे हैं, आप जो चाहें कर सकते हैं।’’ उन्होंने चुनौती दी। समझ में आया सत्याग्रहियों ने मुझे अपना मित्र नहीं समझा। कुछ आश्चर्य भी न हुआ क्योंकि गाँधी जी से मिलने जाते समय खद्दर का कुर्ता पहनना आवश्यक नहीं समझा था। मेरे यजमान श्री पी. वाई. देशपांडे और कामरेड मोटे भी कार से निकल आये। देशपाण्डे जी के खद्दर के कुर्ते-पायजामे से सत्याग्रहियों को संतोष हुआ और उन्होंने साधुता से बात करना आरम्भ किया।
प्रश्न किया-‘‘इस प्रकार कष्ट उठाकर गाँवों में प्रचार का उद्देश्य क्या है ? आप जनता को क्या संदेश देते हैं ?’’
‘‘युद्ध में सहायता न देने का प्रचार।’’

1941 में गाँधी जी द्वारा आरम्भ किये गये युद्धविरोध व्यक्तिगत सत्याग्रह का यही रूप था। सत्याग्रही स्वयंसेवकों से फिर प्रश्न किया-‘‘इस प्रचार का उद्देश्य ?’’
‘‘हम अपने देश में विदेशी शासन नहीं चाहते स्वराज्य चाहते हैं।’’
‘‘आप जनता को स्वराज्य के लिये आन्दोलन करने का सन्देश देते हैं ?’’
‘‘हां।’’ स्वयंसेवकों ने स्वीकार किया।
‘‘परन्तु गाँधी जी की आज्ञा है कि फिलहाल युद्ध के समय आन्दोलन स्वराज्य के लिये नहीं केवल अहिंसा प्रचार के किये किया जा रहा है।’’
‘‘हम भी यही संदेश देते हैं।’’

‘‘फर्ज कीजिए, यदि स्वराज्य हिंसा के बिना न मिले तो आप स्वराज्य के लिये यत्न कीजियेगा या अहिंसा के लिये।’’
‘‘तो यह स्वराज्य के लिये प्रचार कैसे हुआ ?’’
‘‘स्वराज्य से अहिंसा हो जाएगी।’’
‘‘स्वराज्य हो जाने से इन गाँवों में किसानों और मिलों के मजदूरों पर होने वाली हिंसा कैसे रुकेगी ? जब तक उन्हें अपने परिश्रम का पूरा फल न मिले, उनकी अवस्था सुधर नहीं सकती। उन्हें अपने परिश्रम का पूरा फल उस समय तक नहीं मिलेगा जब तक उन्हें मालिकों के लाभ के लिये मालिकों की इच्छा से काम करना पड़ेगा और जब तक किसान-मजदूर का शोषण होगा, अहिंसा कायम हो नहीं सकती। किसान-मजदूर का शोषण भी तो हिंसा ही है। सात समुद्र पार जो हिंसा हो रही है, उसकी आपको कितनी चिन्ता है और आपके अपने देश में गाँव-गाँव, शहर-शहर शोषण के रूप में जो हिंसा है, उसकी आपको चिन्ता नहीं ?’’

‘‘परन्तु जब आप सबको समान करने का यत्न करेंगे तो मालिक श्रेणी के लोग, जो आज मजे से गुलछर्रे उड़ा रहे हैं, चिल्लायेंगे, हम पर हिंसा हो रही है, तो आप क्या कीजियेगा ? करोड़ों आदमियों पर होने वाली हिंसा को दूर करने के लिये सौ-पचास आदमियों को शक्ति प्रयोग से वश में रखना पड़ेगा तो आप क्या कीजियेगा ?’’
‘‘अभी तो हम लोग सत्याग्रह कर रहे हैं।’’ दल के नेता ने उत्तर दिया। नौजवान परस्पर एक दूसरे की ओर देखने लगे थे इसलिये नेता ने नमस्कार कर चलने की आज्ञा चाही।
अपने यजमान या मेजबान श्री पी. वाई. देशपाण्डे, एम. ए. एल. बी. का परिचय नहीं दिया है। आप मराठी के प्रमुख साहित्यिक हैं। कथा साहित्य में राजनैतिक प्रगति का पुट देने का आपको विशेष श्रेय है। नागपुर विश्वविद्यालय के लॉ कालिज में आप लेक्चरार भी हैं। शरीर से बहुत संक्षिप्त; मौके पर चुभती हुई कह देना आपकी प्रकृति का अंग है। देशपाण्डे विदा लेते हुए सत्याग्रही नवययुवकों को सम्बोधन कर बोले-‘‘संसार से विदाई माँगने वाले वृद्धों को अपना स्वर्ग संभालने दो ! तुम तो इस पार्थिव संसार की चिन्ता करो !’’ नवयुवकों ने केवल दुविधा के भाव से मुस्करा दिया।

गाँधी जी से मुलाकात हो जाना बहुत सरल नहीं है। यदि उनके मंत्रियों ने इन्कार कर दिया तो क्या करना होगा ? भगवान राम के चरणों को धोने का सौभाग्य पाने के लिये केवट को छल करना पड़ा था। क्या हमें भी महात्मा जी के दर्शनों का पुण्य संचय करने के लिये किसी छल का पाप करना पड़ेगा ? इसी विषय पर परिहास करते उस धूप में चले आ रहे थे।
धूप की गरमी का प्रभाव श्री देशपाण्डे के सूक्ष्म शरीर पर भी पड़ रहा था। वे गाड़ी की रफ्तार बढ़ाते जा रहे थे। 40 से 45, 45 से 50 और आगे भी। भारी गाड़ी होती तो बात थी। भय था, हल्के शरीर की गाड़ी कहीं कलाबाजी न खा जाए। ‘हिंसा’ की सम्भावना की ओर ध्यान दिला उन्हें रफ्तार कम करने के लिये कहा। उत्तर मिला-‘‘स्पीड से मुझे कुछ इमोशनल अटैचमेण्ट है (तीव्र गति से कुछ भावानुरक्ति है)। इसीलिये गाँधीवाद, जो समाज को पीछे की ओर खींच रहा है, मुझे नहीं सुहाता।’’
निवेदन किया-‘‘गांधीवाद अपने को भी मंजूर नहीं परन्तु उसका विरोध करने के लिए गाड़ी उलट कर प्राण दे देने के त्याग की भावना का भी स्वागत नहीं कर सकते !’’

वर्धा कुछ ही दूर रह गया था। खयाल आया कि गांधी जी के प्रांत और नगरी में गांधीवाद का प्रभाव कितना है, इस बात की आजमाइश कर लेना भी उचित होगा। वर्धा ने दो-तीन मील इधर ही एक गाँव में जाकर गाँधी जी और उनके उपदेश के प्रभाव के विषय में कुछ जानना चाहा। चर्खे का वहाँ कुछ भी प्रचार नहीं। खद्द का व्यवहार रुपये में दो आने होगा। वह खद्द शुद्ध था या जापानी, कहना कठिन है। जब चर्खा नहीं तो शुद्ध खद्दर कहाँ से होगा ?
स्वयं वर्धा में जमनालाल जी बजाज का एक मन्दिर है। सुना कि बजाज जी ने अछूतों को अपने मंदिर में प्रवेश करने की आज्ञा दे दी है परन्तु अछूत लोग स्वयं ही मन्दिर में नहीं जाते। जाते क्यों नहीं ? इस प्रश्न का कुछ उत्तर नहीं मिला। या तो अछूते मन्दिर में जाने का कोई लाभ नहीं समझते या उन्हें साहस नहीं होता। इस जिक्र में याद आ गई राहुल जी की एक बात। गांधी जी द्वारा अछूतों के लिये मन्दिर प्रवेश आन्दोलन पर राय देते हुए आपने कहा था-अछूत मन्दिर में जाकर ही क्या कर लेंगे ? सवाल तो है उनके पेट में रोटी जाने का। इससे तो कहीं अच्छा होता यदि गाँधी जी सम्पूर्ण देश को उपदेश देते कि लोग अण्डे खाया करें। इससे देशवासियों का स्वास्थ्य सुधरेगा और देश भर के लिये मुर्गी पाल कर अण्डे पैदा करने का ठेका रहता अछूतों के पास ताकि इससे उनकी आर्थिक अवस्था सुधर सकती।

गांधी जी स्वयं रहते हैं सेवाग्राम में परन्तु उनका सेक्रेटरियट वर्धा में है। सेवाग्राम में अंग्रेज सरकार बहादुर ने टेलीफोन लगवा दिया है इसलिये गाँधी जी के सेक्रेटरियों और अखिल भारतीय काँग्रेस के मंत्री तथा कार्यकर्ताओं, अखिल भारतीय चर्खा संघ, उनके प्रकाशन विभाग आदि के प्रबन्धकर्ताओं को गाँधी जी से बातचीत करने में आसनी रहती है। गाँधी जी तक पहुँच पाने के लिये पहले सेठ जमनालाल जी बजाज की कोठी की ओर चले। अखिल भारतीय काँग्रेस का कार्यालय बजाज जी की कोठी पर है। आशा थी, वहां कृपालानी जी से भेंट होने पर गाँधी जी तक पहुंचने का कोई रास्ता निकल आयेगा। कृपालानी जी से अपनी फरारी के दिनों से ही कुछ परिचय था।
कृपालानी जी के दर्शन कोठी के बरामदे में ही हो गये। मुझे देखते ही पुकार उठे-‘‘अरे तुम कहाँ ? तुझे तो जेल में होना चाहिए था।’’ उनका मतलब था, व्यक्तिगत सत्याग्रह में भाग लेकर।

‘‘पर आप भी तो जेल के बाहर ही हैं।’’ उत्तर दिया। अपनी तुलना इतने बड़े व्यक्ति से करने पर स्वयं ही झेंप भी मालूम हुई इसलिये कहा, ‘‘दादा, यह तो व्यक्तिगत सत्याग्रह है। इसमें बड़े-बड़े व्यक्तियों का भाग लेना ही शोभा देता है। हम तो जनता हैं। जब आन्दोलन सार्वजनिक होगा, तभी भाग ले सकेंगे।’’
‘‘हूँ, कैसे आया ? उन्होंने फिर प्रश्न किया।
‘‘महात्माजी के दर्शन की इच्छा है।’’
‘‘पहले से समय निश्चय कर लिया है ?’’

‘‘नहीं। यहाँ नागपुर आने पर खयाल आया।’’
‘‘तो महादेव से मिलकर पूछो।’’
गाँधी जी के प्राइवेट सेक्रेटरी श्री महादेव देसाई वर्धा में मौजूद नहीं थे। उनकी जगह काम कर रहे थे श्री किशोरीलाल मशरूवाला। उनसे मिलकर गाँधी जी के दर्शन प्रार्थना करने पर उत्तर मिला कि कायदे से हमें पहले समय निश्चित कर लेना चाहिये था। अपनी गलती स्वीकार
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1. उस समय कृपलानी जी अखिल भारतीय कांग्रेस के जनरल सेक्रेटरी थे।
(दूसरे संस्करण के समय दिया गया नोट)

की और फिर भी प्रार्थना की कि बहुत दूर से आये हैं, फिर आ सकने के अवसर की आशा नहीं।
मशरूवाला जी ने फोन पर बात कर समय निश्चित कर लिया। मालूम हुआ कि सेवाग्राम में बाहर से आने वाले व्यक्तियों के लिये भोजन की दुकान या होटल की कोई व्यवस्था नहीं है इसलिये स्टेशन के रिफ्रेशमेंट रूम में मिसिर ‘केलनर एण्ड स्पेंसर’ का प्रसाद पाने के लिए जाना पड़ा।

गाँधी जी से मुलाकात का समय निश्चित हुआ था, संध्या चार बजे परन्तु यह लोग सेवाग्राम जा पहुँचे लगभग दो ही बजे। आखिर करते भी क्या...? वर्धा से गाँधी जी के आश्रम तक डिस्ट्रिक्ट बोर्ड ने सड़क बनवा दी है। आश्रम के लिये जगह चुनने में प्राकृतिक सौंदर्य का किस दृष्टिकोण से विचार किया गया है, कहना कठिन है। सुदूर क्षितिज पर पठार के टीलों की अस्पष्ट रेखा जरूर दिखाई देती है। और कुछ नहीं था। लम्बे-चौड़े, धूप से तपते हुए मैदान में दो-तीन वृक्ष हैं। कुटियाँ मामूली तौर पर फूस की हैं। गाँधी जी की कुटिया और आश्रम के हस्पताल की दीवारें अलबत्ता मिट्टी की हैं। गाँधी जी की कुटिया की छत अच्छी मोटी-भारी और मजबूत है। शेष कुटियाँ ऐसी हैं कि अच्छी जोरदार आँधी चलने पर उनके फूस का भी पता चलना कठिन होगा। आश्रम कुछ सूना सा जान पड़ा। शायद बहुत से लोग सत्याग्रह में जेल चले गये थे।
आश्रम के मैनेजर का पता पूछा। मैनेजर श्री शाह एक कुटिया में लेटे हुए थे। कुटिया में खाट जरूर थी परन्तु खाट बान से न बुनकर उस पर तख्ते डाल दिये गये थे। तख्तों पर बिछे खद्दर के बिस्तर पर शाह साहब उस्तरे से घुटे हुये सिर पर भीगा तौलिया रखे दुपहर की नींद ले रहे थे। उनकी निद्रा भंग करने की हिंसा के सिवा उपाय न था, सो करना ही पड़ा। प्रार्थना की कि आश्रम को देखना और उसके विषय में कुछ जानना चाहते हैं।

‘‘देख लीजिये।’’ शाह साहब ने लेटे ही उत्तर दे दिया।
फिर विनय की कि देखने से मतलब फूस की झोपड़ियाँ देख लेने से नहीं है। ऐसी झोपड़ियाँ तो अनेक अवसरों पर देखी हैं। प्रयोजन है, उस विचार-धारा को जानने का जिसके कारण आप लोग यह कष्टमय जीवन बिताना उचित समझते हैं।’’
‘‘हमें तो इसमें कोई कष्ट जान नहीं पड़ता ?’’ शाह साहब ने लेटे ही लेटे उत्तर दिया।
‘‘परन्तु आपका तरीका असाधारण है। यह भी नहीं कि आप आराम से रह न सकते हों।’’
शाह साहब ने कृपापूर्वक अपने विचार समझाना स्वीकार किया। उन्होंने बैठ जाने के लिये नहीं कहा। बैठ सकने की अनुमति माँगने पर उन्होंने हमें नीचे बिछी चटाई पर बैठ सकने का संकेत कर दिया। कुछ खला तो जरूर पर बैठ गये। उन्होंने बताया कि अपनी इच्छा से गरीबी की हालत में रहने का कारण यह है कि हमारा देश बहुत गरीब है, झोपड़ियों में रहता है और गरीबों के प्रति सहानुभूति होने के कारण हम उन्हीं की तरह रहना चाहते हैं।

निवेदन किया-‘‘इसमें सन्देह नहीं कि आप गरीबों की तरह रहने का प्रयत्न करते हैं परन्तु आप उनकी तरह रह नहीं पाते। सबसे बड़ा अन्तर तो यह है कि गरीब लोग अपनी इच्छा या शौक से गरीबी में नहीं रहते। वे दोपहर की धूप में सिर पर भीगा तौलिया रखकर आराम से लेट भी नहीं सकते। आपके स्वयं गरीबी की तरह रहने से तो गरीबों का कुछ कल्याण नहीं हो सकता, उनकी भलाई तो उनकी वर्तमान आर्थिक अवस्था में कुछ सुधार होने से हो सकती है।’’
‘‘गरीबों की आर्थिक अवस्था में सुधार करने के लिये हमारा चर्खे का तथा घरेलू उद्योग-धन्धों का कार्यक्रम है।’’ मैनेजर साहब ने उत्तर दिया।
कामरेड मोटे बोले-‘प्रश्न घरेलू धन्धों और मिलों के धन्धों का नहीं। प्रश्न तो यह है कि व्यवस्था ऐसी हो कि मजदूर या किसान लोग अपने परिश्रम से जो पैदावार करें, उसे वे अपने व्यवहार में ला सकें। नये रोजगार बढ़ाने की भी आवश्यकता है ताकि बेकार लोग रोजी पा सकें।’’






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