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दिव्या

यशपाल

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :168
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2217
आईएसबीएन :00000

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ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर आधारित उपन्यास.....

Divya

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘दिव्या’ का कथानक बौद्धकाल की घटनाओं पर आधारित है। इस युग की राजनीतिक सामाजिक एवं धार्मिक परिस्थितियों का कुछ ऐसा सजीव चित्रण इन्होंने किया है कि सब कुछ काल्पनिक होते हुए भी यथार्थ-सा प्रतीत होता है। उपन्यास में वर्णित घटनाएँ पाठक के हृदय को गहराई से प्रभावित करती हैं।
‘दिव्या’ जीवन की आसक्ति का प्रतीक है।
 
तुमको......
निरंतर पराभव और अभिशाप सह कर भी
जिसका जीवन-दीप स्नेह से प्रज्वलित है-

यशपाल

प्राक्कथन

‘दिव्या’ इतिहास नहीं, ऐतिहासिक कल्पना मात्र है। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर व्यक्ति और समाज की प्रवृत्ति और गति का चित्र है। लेखक ने कला के अनुराग से काल्पनिक चित्र में ऐतिहासिक वातावरण के आधार पर यथार्थ का रंग देने का प्रयत्न किया है। चित्र में त्रुटि रह जाना सम्भव है। उस समय का हमारा इतिहास यथेष्ट प्राप्य नहीं। जो प्राप्य है, उस पर लेखक का विशेष अधिकार नहीं। अपनी यह न्यूनता जान कर भी लेखक ने कल्पना का आधार उसी समय को बनाया; कारण है-उस समय के चित्रमय ऐतिहासिक काल के प्रति लेखक का मोह। सूक्ष्मदर्शी पाठक के प्रति इनसे अन्याय हो सकता है। असंगति देख कर उन्हें विरक्ति हो सकती है।

अपने अतीत का मनन और मन्थन हम भविष्य के लिये संकेत पाने के प्रयोजन से करते हैं। वर्तमान में अपने आपको असमर्थ पाकर भी हम अपने अतीत में अपनी क्षमता का परिचय पाते हैं। इतिहास घटनाओं के रूप में अपनी पुनरावृत्ति नहीं करता। परिवर्तन का सत्य ही इतिहास का तत्त्व है परन्तु परिवर्तन की श्रृंखला में अपने अस्तित्व की रक्षा और विकास के लिये व्यक्ति और समाज का प्रयत्न निरन्तर विद्यमान रहा है। यही सब परिवर्तनों की मूल शक्ति है।
इतिहास का तत्त्व परिस्थितियों में व्यक्ति और समाज की रचनात्मक क्षमता का विश्लेषण करता है। मनुष्य केवल परिस्थितियों को सुलझाता ही नहीं, वह परिस्थितियों का निर्माण भी करता है। यह प्राकृतिक और भौतिक परिस्थितियों में परिवर्तन करता है, सामाजिक परिस्थितियों का वह सृष्टा है।

इतिहास विश्वास की नहीं, विश्लेषण की वस्तु है। इतिहास मनुष्य का अपनी परम्परा में आत्म-विश्लेषण है। जैसे नदी में प्रतिक्षण नवीन जल बहने पर भी नदी का अस्तित्व और उसका नाम नहीं बदलता वैसे ही किसी जाति में जन्म-मरण की निरन्तर क्रिया और व्यवहार के परिवर्तन से वह जाति नहीं बदल जाती। अतीत में अपनी रचनात्मक सामर्थ्य और परिस्थितियों के सुझाव के अपने प्रयत्नों के परिचय से जाति वर्तमान और भविष्य के सुलझाव और रचना के लिये निर्देश पाती है।

इतिहास के मन्थन से प्राप्त अनुभव के अनेक प्रयत्नों में सबसे प्रकाशमान तथ्य है-मनुष्य भोक्ता नहीं, कर्ता है। सम्पूर्ण माया मनुष्य की ही क्रीड़ा है। इसी सत्य को अनुभव कर हमारे विचारकों ने कहा था-‘‘न मानुषात् श्रेष्ठतर हि किंचित् !’’
मनुष्य से बड़ा है-केवल उसका अपना विश्वास और स्वयं उसका ही रचा हुआ विधान। अपने विश्वास और विधान के सम्मुख ही मनुष्य विवशता अनुभव करता है और स्वयं ही वह उसे बदल भी देता है। इसी सत्य को अपने चित्रमय अतीत की भूमि पर कल्पना में देखने का प्रयत्न ‘दिव्या’ है।

अपने ऐतिहासिक ज्ञान की न्यूनता को स्वीकार करता हूँ। यदि लखनऊ म्यूजियम के अध्यक्ष श्री वासुदेवशरण अग्रवाल, पी.एच.डी. और बम्बई प्रिंस-आफ वेल्स म्यूजियम, पुरातत्व विभाग के अध्यक्ष श्री मोतीचन्द, पी.एच.डी. तथा श्री भगवतशरण उपाध्याय का उदार सहयोग मुझे प्राप्त न होता तो पुस्तक सम्भवतः असह्य रूप से त्रटिपूर्ण होती। लखनऊ बौद्ध-विहार के वयोवृद्ध महास्थविर भदन्त बोधानन्द के प्रति भी मैं कृतज्ञ हूँ। उनकी कृपा से बौद्ध परिपाटी के विषय में जानने की सुविधा हुई।

बौद्धकालीन वेश-भूषा और वातावरण को हृदयंगम करने में विशेष सहायता अजन्ता और एलोरा की यात्रा से मिली। अजन्ता और एलोरा के कलाकारों के प्रति कलाप्रेमी संसार सदा आभारी रहेगा, परन्तु इस कला के दर्शन के लिए मैं अपने मित्र और चिकित्सक डाक्टर प्रेमलाल शाह का कृतज्ञ हूँ। बहुत समय से यह पुस्तक लिखने के लिये इस यात्रा का विचार था परन्तु कठिन समय में असुविधाओं के विचार से शैथिल्य और निरुत्साह रहा। डाक्टर ने घसीट कर कर्तव्य पूरा कराया। इसी से यह काल्पनिक चित्र पुस्तक का रूप ले पाया है।
सबसे अधिक आभारी हूँ मैं अपनी प्रेरणा के स्रोत अपने पाठकों का जिनके बिना कला की साधना सम्भव नहीं।
19 मई, 1945

-यशपाल


अतीत के रंग-रूप की रक्षा के लिए इस पुस्तक में कुछ असाधारण भाषा और शब्दों का प्रयोग आवश्यक हुआ है। इन शब्दों की अर्थसहित तालिका अंत में दे दी गई है। आवश्यकतानुसार उसका उपयोग किया जा सकता है।

(1)
मधुपर्व


कला की अधिष्ठात्री, राजनर्तकी देवी मल्लिका की युवा पुत्री रुचिरा अकाल में कालकवलित हो गयी थी। देवी इस शोक से अधीर होकर बहुत समय तक कला और समाज से विरक्त रहीं। सम्पूर्ण सागल नगरी मल्लिका के शोक से दो वर्ष तक शोकापुर और नीरस रहकर रात्रि में दीपहीन प्रदेश की भाँति निष्प्रभ बनी रही। देवी मल्लिका ने वीणापाणि देवी सरस्वती के प्रति कर्तव्यनिष्ठ हो अपना असह्य शोक सह कर मन को वश किया। उन्होंने निश्चय किया, चैत्र पूर्णिमा की संध्या, मधुपर्व उत्सव के समय समाज में पुनः प्रवेश करेंगी।

सागल के मनोहर और विशाल ताल पुष्पकरणी में जल और तट पर जन लहरें ले रहा था। सूर्यास्त में अभी एक पहर शेष था, परन्तु जहाँ तक दृष्टि जाती, जनसमूह उमड़ रहा था। उस बढ़ते हुए विस्तार में जन-उत्सव का मण्डप ऐसा लग रहा था जैसे वर्षाकाल की बाढ़ से दूर तक फैल गये नदी के जल में कोई छोटा-सा द्वीप हो। मण्डप कलशों, कदली-स्तम्भों तोरणों वसंत आरम्भ में पल्लवित आम्रपत्र के वन्दनवारों और मंजरियों से सुसज्जित था। वातावरण अनेक प्रकार के पुष्पों की गन्ध और सुरभित धूम्रों से सुरभित था। सिर पर ऊँचे शिरस्राण बाँधे, पीठ पर ढाल लटकाये, हाथ में भाला लिये राज-पुरुष उत्सकुता से उमड़ते जनप्रवाह के मण्डप के मार्ग और मण्डप में गण-परिषद् के सदस्यों सामन्तों अभिजात वंशजों अग्रश्रेष्ठियों और कुलनारियों के स्थानों की रक्षा कर रहे थे।

सूर्य क्षितिज से उतर जाने पर सुश्री प्रबल अश्वारोही भद्रगण के रथ, सुंदर वस्त्र धारण किये, द्रुतगामी शिविका-वाहकों के कंधों पर शिविका में और अश्वारोही भद्रगण जनप्रवाह के बीच सुरक्षित मार्ग से मण्डप की ओर आने लगे। मण्डप के सोपान पर खड़े चारण तुरही बजा-बजा कर उनका स्वागत कर रहे थे। गणपरिषद् के सदस्यों और विशिष्ट गण के मण्डप में प्रवेश करने पर चारण उनके नाम, वंश और पद की घोषणा करके उनके लिए निर्दिष्ट आसन देने लगे। भद्र समाज के रथ, अश्व और शिविकायें आरोहियों को मण्डप-द्वार पर छोड़कर उनके चँवरधारी दासों और कुंचकियों सहित मण्डप के दक्षिण भाग की परिक्रमा करके, पृष्ठ भाग में जा पंक्तिबद्ध खड़े होने लगे।

अभिजात पुरुष और कुलनारियाँ अपने वर्ण और वंश की स्थिति के अनुकूल और पर्व के योग्य वस्त्राभूषण धारण किये थीं। ब्राह्मण स्वर्ण के तार से कढ़े लाल रेशम के उष्णीयों से सिर के केशों को बाँधे थे। उनके मस्तक और भुजाओं पर श्वेत चन्दन का खौर था। उनके श्मश्रु मुड़ें हुए थे। उनके कण्ठ की मुक्ता मालओं में कृष्ण रुद्राक्ष शोभित था। कन्धों से लहराते उत्तरीय के नीचे अस्पष्ट झलकती कटि रेखा से नीचे स्वच्छ अन्तरवासक पर पीत यज्ञोपवीत के रूप में प्रकट थी। काँछ लगे स्वच्छ अन्तरवासक पादत्राण को स्पर्श कर रहे थे। क्षत्रिय स्वर्ण-खचित शुभ्र वस्त्र धारण किये थे। ऊँची लम्बी नाक के नीचे मूँछें दो बिच्छुओं के डंकों की भाँति गालों की ओर चढ़ी हुई थीं। उनके कानों कण्ठ, भुजा और कलाइयों पर रत्नजटित आभूषण थे। विस्तृत वक्षस्थल से सूक्ष्म कटि तक शरीर चुस्त अँगरखों में मढ़े थे। कटि से जानु तक काँछ कसे अन्तरवासक। पिंडलियाँ और पाँव पादत्राणों में कसे हुए थे। कटि से रत्न जटित मूठ के खड्ग झूल रहे थे। श्रेष्ठियों के वस्त्र बहुमूल्य परन्तु ढीले-ढाले थे। गणपरिषद् के सदस्य कन्धों पर केसरी कंचुक धारण किये थे। कुछ यवन सामन्तों के सिर पर चोटीदार, टोपियाँ घुटनों तक ढीले अँगरखे, पायजामे और पाँव में ढीले जूते थे। कुछ ने आर्य वेश अपना लिया था।

कुछ कुलनारियों के प्रसाधन और वेश-विन्यास में विशेष लालित्य था। मुक्ता-लड़ियों द्वारा विविध प्रकार से गूँथे गये उनके केशों पर पुष्पों के अर्धचन्द्र किरीट शोभायमान थे। मस्तक, कान, कण्ठ, बाहुमूल, कलाई और अँगुलियाँ, चंद्रिका, तूलिका, लेखन, कुण्डल, हार, माला, अंगद, वलय, और अगूठियों से सज्जित थे। उनके कन्धों पर अनेक बल खाये झीने उत्तरीय के नीचे मेरुदण्ड पर गाँठ बँधे कंचुक वस्त्र, सम्मुख वक्ष की ओर फैल कर, सुचिक्कण वर्तुलों में उभर आये थे। ऊपर पुष्ट उरोज और नीचे पुष्ट नितम्ब। डमरू मध्य के समान कटि पर स्वर्ण की मेखलायें रत्नजटित नीवीवंध से तीन लड़ियों में कटि, नितम्ब की लड़ियों में किंकिणियाँ झूल रही थीं। मेखलाबंध से उनके शाटक मयूरपुच्छ के रूप में फैल कर आलक्त-रंजित और आभूषणों से वेष्ठित चरणों के नीचे बिछे आस्तरणों का स्पर्श कर चरणों को छिपाये थे। उनके चारों ओर अनेक पुष्पों की सुगन्धियाँ दूर तक फैल रही थीं। प्रायः सभी यवन रमणियाँ आर्य स्त्रियों का वेश अपना चुकी थीं।

आकाश में चैत्र की चाँदनी छिटक गई। वेदी के चारों ओर तथा मार्ग पर दीपदण्ड प्रज्वलित हो गये। वयोवृद्ध मिथोद्रस महाप्रतापी धार्मिक यनवराज मिलिन्द के राज्यकाल में मद्र साम्राज्य के सेनापति थे। मद्र के गणराज्य में उन्होंने गणपति का पद स्वीकार कर लिया। उनके आसन ग्रहण कर लेने पर मंगल वाद्य और मंगलाचरण आरम्भ हुआ। वेदी के सोपान पर खड़े चारण ने पुनः तूर्यनाद करके घोषणा की ‘‘कला की अधिष्ठात्री, नगरश्री राजनर्तकी देवी मल्लिका सभास्थल में पधार रही हैं।’’

जनसागर इस घोषणा के झंझावात से तरंगित हो उठा। जनसमूह की ग्रीवायें उठ गयीं और दृष्टि मार्ग के पश्चिम छोर की ओर चली गयी। दीप-दंडधारी अश्वारोहियों के पीछे रथ चले आ रहे थे और रथों के पीछे फिर दीप-दंडधारी अश्वारोही। रथ शीघ्र ही मण्डप के समीप जनप्रवाह में आ पहुंचे। सब ओर से कला की देवी नगरश्री देवी मल्लिका का जयघोष होने लगा। यत्न से रखे पुष्पों और मालाओं की वर्षा मल्लिका के रथ पर होने लगी। अधिकांश पुष्प और मालायें रथ को स्पर्श कर मार्ग पर गिर जाते। कुछ पुष्प और मालायें रथ के भीतर पहुँच पुष्पों के अम्बार पर गिर फिसल कर नीचे आ जातीं। मल्लिका कृतज्ञतापूर्ण नेत्रों से कर जोड़े, स्मितवदन, मस्तक नवा दृष्टि की पहुँच तक फैले उद्वेलित नरमुण्डों के सागर का अभिवादन स्वीकार कर रही थी। मण्डप में प्रवेश कर नर्तकी ने विशिष्ट पुरुषों का आदर ग्रहण किया और गणपति के समीप आसन पर बैठ गयी। देवी के पीछे छः रथों पर उनकी विशिष्ट शिष्यायें कला की प्रतियोगिता में भाग लेने के लिये आयी थीं।
 
चारण ने पुनः तूर्य बजाया। मंगल वाद्य रुक कर भेरी बजने लगी। नृत्य संगीत से पूर्व तक्षशिला और मगध से शस्त्र और शास्त्र की शिक्षा पूर्ण करके आये युवकों के शस्त्रकौशल की प्रतियोगिता का कार्यक्रम था। इस प्रतियोगिता के आधार पर ही अभिजात युवक मद्र गणराज्य की सेना में पदों के अधिकारी होते थे।
चारण ने घोषणा की-‘‘धर्मस्थ महापण्डित देव शर्मा के पौत्र आयुष्मान विनय शर्मा, महासामन्त सर्वार्थ के पुत्र आयुष्मान इन्द्रदीप, गणसंवाहक आचार्य प्रवर्धन के पुत्र आयुष्मान वसुधीर गणपूरक सामन्त कार्तवीर के पुत्र आयुष्मान सकृद, महाशाल समर्थक के पुत्र आयुष्मान वृष्णेश और महाश्रेष्ठी प्रेस्थ के पुत्र आयुष्मान पृथुसेन।’’

छः युवक सैनिक वेश में शरीर पर वर्म और सिर पर शिरस्त्राण पहने, कंधे पर धनुष-तूणीर बाँधे, कमर से खड्ग लटकाये, हाथ में भाला लिये वेदी पर आये। युवकों ने मद्र के गणराज्य के गणपति और महासेनापति वयोवृद्ध मिथोद्रस के आसन के सम्मुख उपस्थित होकर नासिका के सम्मुख अपनी खड्ग सीधी कर मस्तक झुकाकर निवेदन किया-‘‘मद्र के गणराज्य की सागल नगरी का निवासी मैं अमुक नाम, अमुक पुत्र शस्त्र-शास्त्र की शिक्षा प्राप्त कर मद्र के गणराज्य की सेवा के लिये प्रस्तुत हूँ। गण मेरी योग्यता की परीक्षा कर मुझे सैनिक-कार्य में मेरे योग्य पद प्रदान करे।’’

गणपति ने युवकों को लक्ष्यबेध की परीक्षा के लिए सावधान होने का आदेश देकर सेवा में उपस्थित सैनिक को संकेत किया। युवकों के धनुषों पर बाण खिंचे थे। सैनिक ने मण्डप के वितान की ओर अनेक रंग के कंदुक उछालने आरम्भ किये। जनसमूह कठिन लक्ष्यबेध के प्रति कौतुक से और लक्ष्यभ्रष्ट बाणों की आशंका से सिहर उठा। युवक अनेक कंदुकों को अधर में ही बेध रहे थे। सेनापति और निर्यणाक ध्यान से देख रहे थे-कौन युवक कितने बाणों से कितने कंदुकों को बेधता है। महासेनापति ने हाथ उठा कर लक्ष्यबेध-परीक्षा समाप्त होने का संकेत किया।

महासेनापति ने युवकों को कवच उतार अपने विशेष भरोसे का एक-एक शस्त्र चुन लेने की आज्ञा दी; आयुष्मान इन्द्रदीप और विनय शर्मा ने भाले लिये और शेष युवकों ने खड्ग। महासेनापति ने निर्देश दिया-‘‘प्रत्येक आयुष्मान शेष युवकों को आक्रमणकारी मानकर अपनी रक्षा करता हुआ आक्रमणकारियों पर आघात करे। उन्होंने चेतावनी दी। ‘‘आघात करने का अर्थ गहरा आघात करना नहीं। कोई युवक किसी प्रकार की अभिसन्धि या पक्षपात का व्यवहार न करे। यह दोनों कार्य गणराज्य के धर्मास्थान द्वारा अपराध रूप में दण्डनीय होंगे।’’

महासेनापति ने वायु में उत्तरीय हिला कर युद्धारम्भ का संकेत किया। मंडप में अनेक विद्युत शिखायें चमक गयीं और फिर छः युवक छः स्थानों पर, आक्रमण के लिए पीठ के धनुषाकार किये, नख और दाँत निकाले व्याघ्रों की भाँति काँपने लगे। प्रत्येक की दृष्टि सब की ओर थी। उनके हाथों के अस्त्र क्षण भर के लिए वितान के नीचे प्रकाश की रेखायें-सी कौंधा कर पुनः कंपित दीपशिखा की भाँति उनके हाथों में स्थिर हो जाते। स्तब्ध श्वास, आँखें फैलाये विशाल जनसमूह योद्धाओं की सूक्ष्मतम गतियों और इंगितों के प्रति सतर्क था। वे रह-रहकर झपटते। दर्शकों के शरीर कण्टकित हो उठते। योद्धाओं के स्थान बदल जाते और वे मन्द वायु से स्फुरित दूर्वा-तृणों की भाँति काँपते रह जाते। कुछ ही क्षण में उनकी तनी हुई ग्रीवा, वस्त्ररहित भुजदण्ड, लोमपूर्ण वक्षस्थल और गहरी पीठ पर स्वेदविन्दु छलक कर धारायें बह निकलीं। उनके शरीरों पर कई स्थानों में लाल रेखायें फूट कर रक्त बह गया। स्वेद में रक्त फैल जाने से उनके शरीर से पुते जान पड़ने लगे।

महासेनापति के संकेत से चारण ने तूर्य बजा कर युद्ध-कौशल समाप्त होने की घोषणा कर दी। युवक परीक्षा के लिये महासेनापति के आसन के सम्मुख उपस्थित हुए। आयुष्मान सकृद और पृथुसेन के शरीर पर केवल दो रक्त-चिह्न थे। आयुष्मान वृष्णेव के शरीर पर तीन और शेष युवकों के शरीर पर चार चार।
गणपरिषद् के सदस्यों से परामर्श कर महासेनानी बोले-‘‘गणपरिषद् और जन सुनें। आयुष्मान सकृद और पृथुसेन ने शस्त्र-संचालन में विशेष कौशल प्रकट किया सदस्यों के विचार से पृथुसेन का ही स्थान प्रथम होता, परन्तु आयुष्मान ने अपने वामपक्ष में अनेक व्यर्थ प्रहार कर अपनी शक्ति का अपव्यय किया। आयुष्मान पृथुसेन में सतर्कता की इस न्यूनता के कारण गण सर्वश्रेष्ठ खड्गधारी का सम्मान आयुष्मान सकृद को देता है।’’

महासेनापति ने श्वेत पुष्पों और हरित किसलय से बने मुकुट की ओर संकेत किया, बोले-‘‘नगरश्री देवी मल्लिका की शिष्याओं में जो युवती हाथों की प्रतियोगिता में ‘सरस्वती पुत्री’ का सम्मान प्राप्त करेगी, वही अपने हाथों यह मुकुट सर्वश्रेष्ट खड्गधारी को प्रदान करेगी।’’
चारण के तूर्यनाद करने पर जनसमूह में आनन्दोल्लास से जय-जय का कोलाहल उठ खड़ा हुआ। युवक अभिवादन कर वेदी के नीचे आ गये, परन्तु आयुष्मान पृथुसेन महासेनापति के आसन के सम्मुख खड़ा रहा। खड्ग नासिका के सम्मुख सीधी रख, मस्तक झुका कर पृथुसेन ने प्रार्थना की-‘‘मैं, महाश्रेष्ठी का पुत्र, पृथुसेन परमभट्टारक गणपति के सम्मुख निवेदन की आज्ञा चाहता हूँ।’’

महासेनानी की जिज्ञासापूर्ण दृष्टि के उत्तर में पृथुसेन ने निवेदन किया-‘‘मैं पृथुसेन, परमभट्टारक गणपति की आज्ञा से गण के विचारार्थ निवेदन करता हूँ-मैंने अपने वामपक्ष में व्यर्थ प्रहार कर अपनी शक्ति का अपव्यय नहीं किया। गणपति और सदस्य देखें, मैंने केवल पाँच शत्रुओं का नहीं अपितु कदली स्तम्भ के रूप में छठे शत्रु का भी सामना किया है। महासेनापति की अनुमति से मैं दिखाना चाहता हूँ।’’ पृथुसेन ने मण्डप की वाम दिशा में स्तम्भ के समीप जाकर उसके आश्रित खड़े कदली वृक्ष को हिला दिया। कदली स्तम्भ खण्ड-खण्ड होकर गिर पड़ा।
जनसमूह से इस अपूर्व खड्ग-कौशल और हस्त-लाघव की प्रशंसा में साधुवाद के उल्लास का रव उठ खड़ा हुआ। विनय से मस्तक झुकाकर पृथुसेन ने महासेनापति का सम्बोधन किया-‘‘देव, इस शत्रु का भी मैंने पराभव किया है। मैं देव का निर्णय चाहता हूँ।’’

महासेनापति विस्मय से उच्छवास में अपने आसन से उठ कर पृथुसेन के कंधे पर हाथ रख कर बोले-‘‘मेरे निर्णय में भूल थी। आयुष्मान पृथुसेन सागल का सर्वश्रेष्ठ खड्गधारी हैं।’’
गणपरिषद् ने ‘साधु-साधु ! तथास्तु !’ कहकर समर्थन में सिर हिलाये। जनसमुदाय उल्लास से पुनः हिलोर उठा परन्तु गणपरिषद की पंक्ति में से गणसंवाह आचार्य प्रवर्धन ने उठकर आपत्ति की-‘‘परिषिद के सदस्य विचार करें, क्या गणपति का एक बार दिया निर्णय परिवर्तित हो सकता है ?’’

गणपरिषद् के सदस्य, विशिष्ट समाज और जन-समूह विस्मय और आशंका से मौन रह कर आचार्य की ओर देखने लगे।
वयोवृद्ध महासेनापति ने अपना आसन ग्रहण करने से पूर्व ऊर्ध्वबाहु होकर विशिष्ट गण और जन को सम्बोधन किया-‘‘गणपरिषद्, सामन्तगण अभिजात, कुल और सागल का जनसमाज महापण्डित गणसंवाहक आचार्य प्रवर्धन की आपत्ति सुनें और विचार करें। मेरी परख में जो भूल हुई उसे मैं स्वीकार करता हूँ। वृद्धावस्था के कारण मेरे नेत्रों की ज्योति मन्द हो चुकी है। मेरे दृष्टिदोष के कारण आयुष्मान के प्रति अन्याय उचित नहीं। यदि गण को मुझ पर विश्वास है तो भ्रान्तिमार्जन का अवसर मुझे दें।’’

गणपरिषद् के सदस्य और विशिष्ट जन अवाक् परस्पर प्रश्नात्मक दृष्टि से देखने लगे और जनसमूह उत्सुकता से विशिष्ट समाज की ओर। महासेनापति अपने आसन के समीप वेदी पर खड़े रहे। उन्होंने पुनः सम्बोधित किया-‘‘गणपरिषद् निर्णय करे, उन्हें मेरे भ्रान्तिमार्जन करने में आपत्ति है ?’’
महासेनापति ने सभी ओर अनुमति के संकेत में सिर हिलते देखकर पुनः घोषणा की-‘‘मैं मद्र के गणराज्य की परिषद् का गणपति मिथोद्रस, महासेनापति की स्थिति में किये गये अपने निर्णय में महासेनापति की स्थिति से किये गये मार्जन को स्वीकार करता हूँ। जिस आयुष्मान को आपत्ति हो, प्रकट करे।’’ सब ओर मौन देखकर उन्होंने पुनः आसन ग्रहण किया। जन समूह ने एक अस्पष्ट गुंजन द्वारा अपना संतोष और अनुमति प्रकट की।

पुनः चारण का तूर्य बजा और वेदी से अनेक प्रकार की वीणाओं, वंशियों, मुरजों कांस्यतालों और मृदंगों की ध्वनि उठने लगी। यह नृत्य-संगीत आरम्भ होने की सूचना थी। वाद्यों के स्वर मिल जाने पर मल्लिका ने शिष्यारूपी उडुगण के मध्य चन्द्र के समान सुशोभित होकर, कोकिल विनिन्दित स्वर में श्यामकल्याण का आलाप उठाया। आलाप के पूर्ण हो जाने पर उनकी शिष्याओं ने स्थायी और अंतरा में सहयोग देकर सभास्थल को गुँजा दिया। देवी मल्लिका मूर्तिमान राग के रूप में अपनी किसलय कोमल अँगुलियों और मृणाल बाहुओं से संगीत के आरोहावरोह को इंगित कर रही थीं। शिष्याओं के कण्ठ और वादकों के यन्त्र से निकली ध्वनि और जनसमूह का श्वास उनके इंगितों का अनुसरण कर रहे थे। सभास्थल घनीभूत संगीत की लहरों से भर गया। राग समाप्त हो जाने पर भी जनसमूह मंत्रमुग्ध सहस्रशीर्ष शेषनाग की भाँति स्तब्ध और एकप्राण बना रहा।

वाद्य अब षाड्जी के स्वर बजा रहे थे। मल्लिका से संकेत पाकर मादुलिका ने आलाप आरम्भ किया। मादुलिका के पश्चात् कुसुमसेना और उसके पश्चात् दिव्या ने। इनके पश्चात् नर्तकी वसुमित्रा ने अपने समाज सहित गायन किया। आत्मविस्तृत जन, स्वर द्वारा उत्पन्न भाव की लहरों में बहा जा रहा था।
देवी मल्लिका ने आसन से उठकर जन का अभिवादन कर कृतज्ञता से मृदु स्वर में सूचना दी-‘कलाविद् समाज अनुमति दे तो संगीत समारोह समाप्त कर नृत्य आरम्भ किया जाये।’’
मंत्र के सम्मोहन से मुक्त होकर सभा ने अपने स्वास की अवरुद्ध गति को स्वतंन्त्रता दी। दीपदण्डधारियों ने अपने दीपों में यथेष्ट तेल देने का अवसर पाया। दीप तेल के अभाव से मन्द हो गये थे।

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