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एक ऐतिहासिक उपन्यास...
Vaishali Vilay - A Hindi Book - by Gurudutt
वैशाली विलय
(बहती रेता)
तक्षशिला विश्वविद्यालय
1
तक्षशिला विश्वविद्यालय में वसंत महोत्सव मनाया जा रहा था। फाल्गुन सुदी पञ्चमी से यह उत्सव आरम्भ होकर दस दिन तक चला करता था। विश्वविद्यालय के विद्यार्थी-गण, अध्यापक-वर्ग और देश-विदेशों से आये हुए प्रतिष्ठित दर्शक इस महोत्सव में सरुचि भाग ले रहे थे।
धनुष-बाण के करतब, युद्ध व्यूह रचना, दौड़ इत्यादि के खेल, मल्ल-युद्ध रथों की दौड़, खड्ग तथा भालों के युद्ध इत्यादि शारीरिक व्यायामों में प्रतियोगिता के प्रदर्शन में आठ दिन लग गये। इन सब दिनों में कार्यक्रम इतना रोचक और उत्तेजक रहा कि दर्शक उत्सुकता और उद्वेग से उत्तेजित हो उठते थे। इन खेलों में विद्यार्थी भाग ले रहे थे और अध्यापक, दर्शक तथा अन्य विद्यार्थी देखने वाले थे।
फिर पढ़ने-लिखने के विषयों में भी प्रतियोगिता हुई। इसमें कवि समारोह, संगीत-सभा, राजनीतिक गोष्ठियाँ इत्यादि कार्यक्रम थे।
तक्षशिला विश्वविद्यालय के अधीन एक महिला महाविद्यालय भी था। महिला-आश्रम पुरुष-गृह से आधे कोस के अन्तर पर था और वहाँ शिक्षिकाएं भी महिलाएं ही थीं। कभी-कभी विशेष उत्सवों पर अथवा अन्य समारोह पर बालक-बालिकाएं, पुरुष-स्त्रियां, अध्यापक-अध्यापिकाएं एकत्रित होते थे। परीक्षा के समय भी लड़कियां विश्वविद्यालय के मुख्य भवन में आती थीं।
वसन्तोत्सव के समारोह में भी लड़कियां उचित भाग ले रही थीं। कुछ लड़कियों ने धनुष-बाण आदि खेलों में भी भाग लिया था। कवि-समारोह और संगीत-सभा में तो लड़कियों ने विशेष भाग लिया था।
फाल्गुन-पूर्णिमा को एक वृहत् यज्ञ का आयोजन था। प्रातःकाल से ही यज्ञ-मण्डप विद्यार्थियों-विद्यार्थिनियों, स्त्री-पुरुष दर्शकों और अध्यापक-अध्यापिकाओं से भरा हुआ था। यज्ञ-मण्डप में एक विशाल और छता हुआ चबूतरा था। छत सौ मीटर के बने खम्भों पर खड़ी थी। चबूतरा सौ हाथ लम्बा और अस्सी हाथ चौड़ा था। खम्भे बीस हाथ ऊंचे थे। मण्डप में उत्तर की ओर एक ऊंचा बना हुआ था। यह मंच मण्डप की पूरी चौड़ाई में था और बीस हाथ लंबाई की ओर था। इस ऊँचे मंच पर यज्ञशाला बनी हुई थी।
मंडप के दक्षिण की ओर दस हाथ आगे बढ़ी हुई परछत्त बनी थी। यह चबूतरे की भूमि से दस हाथ ऊंचाई पर थी। परछत्त दस हाथ मंडप के भीतर तक आई हुई थी। इसके आगे झरनेदार एक हाथ ऊंचे मुंड़ेर लगी थी।
मंडप तथा परछत्त की भूमि लाल रंग के पत्थर से बनी थी। परछत्त पर दरी कालीन और श्वेत चांदनियां बिछी थीं और उन पर प्रतिष्ठित दर्शकगण बैठे थे। मण्डप की भूमि पर भी सूती दरिया बिछी थीं। यहां मंच के आगे एक ओर विद्यार्थिनियां और महिला-दर्शक बैठी थीं, दूसरी ओर विद्यार्थी और साधारण दर्शक थे। दोनों के बीच में तीन हाथ चौड़ा मार्ग छोड़ा गया था। इस मार्ग पर दरी के अतिरिक्त लाल रंग का कपड़ा बिछा था। मार्ग, मंच से चलकर मंडप के दक्षिण द्वार तक बना था और स्त्रियां तथा पुरुष पृथक-पृथक मार्ग के दाहिने-बायें बैठे थे।
मंच पर एक कुंड बना था और उस कुंड के चारों ओर विश्वविद्यालय के आचार्य, अध्यापक तथा अध्यापिकाएं बैठी थीं। इनमें सबसे ऊंचा सिर किए एक भव्य मूर्ति बैठी थी, जिसकी दूध समान श्वेत दाढ़ी-मूंछे तथा जटाएं उसकी दीर्घ आयु का परिचय दे रही थीं। उसकी आंखों की बरौनियां तथा भौहें श्वेत हो रही थीं। इस भव्य मूर्ति के समीप एक वृद्धा, परन्तु अति ओजस्वी मुख वाली बैठी थी।
मंडप में डेढ़ सहस्र विश्वविद्यालय के विद्यार्थी-विद्यार्थिनियां और पांच सौ से ऊपर दर्शक-गण विद्यमान थे। मंडप, यज्ञ में सम्मिलित होने वालों से खचाखच भरा हुआ था और सब लोग श्रद्घा तथा रुचि से हवन होते देख रहे थे। हवन सूर्योदय से पूर्व ‘ओं भूर्भवः स्वद्यौंरिव भूम्नापृथिवीव व्यरिम्णा...’ इत्यादि मंत्रों से आरम्भ हुआ और दो मुहूर्तभर हवन होने के उपरांत ही ‘ओं द्यौः शांतिरन्तरिक्ष’...’ इत्यादि से समाप्त हुआ।
इस दिन हवन के पश्चात् पठन में उत्तीर्ण हो विश्वविद्यालय से जाने वाले विद्यार्थियों को उपाधि-वितरण का आयोजन भी था। इस समय तक मंडप, हवन में सुगंधित तथा पौष्टिक पदार्थों के होम से, सुगंध से भरपूर हो रहा था।
उपाधि वितरण का कार्यक्रम आरम्भ होने से पूर्व यजुर्वेद से मंत्र पाठ हुआ। उपरांत वह भव्य मूर्ति मंडप की भूमि पर तथा मंडप की परछत्त पर बैठे लोगों की ओर मुख करके बैठ गयी। इससे पूर्ण श्रोतागण दत्त-चित्त होकर सुनने लगे। सबके मन में विश्वविद्यालय के कुलपति वैवस्वत के लिए भारी श्रद्धा थी। किंवदंती थी कि मुनि वैवस्वत वेद-वेदांग तथा दर्शन-पुराण का ज्ञाता और आयु में दो सौ वर्ष से ऊपर था। ऐसे लोग दर्शकों में थे, जिनके, पितामह आचार्य से पढ़े थे। इस कारण जब आचार्य ने श्रोताओं की ओर मुख किया तो सब दत्त-चित्त शांत हो गये। मंडप में पूर्ण निस्तब्धता विराजमान हो गयी।
आचार्य ने दाहिना हाथ उठा उपस्थित समाज को कहना आरम्भ किया, ‘‘सभ्यगण! हमारे विश्वविद्यालय को कार्य करते हुए एक सहस्र वर्ष के लगभग हो रहा है। ऋषि भलन्दन ने उस समय इसे एक साधारण विद्यालय के रूप में स्थापित किया था। जब मैं इस विद्यालय में विद्यार्थी बनकर आया था, तो यह पूर्ण रूप से विकसित होकर एक विश्वविद्यालय बन चुका था। पश्चात् मैं इसमें आचार्य बना और एक सौ तीस वर्षों से यहां कुल पति के रूप में माता सरस्वती की आराधना कर रहा हूं।
‘‘लगभग एक सहस्र वर्षों से देश-देशांतर के बालक-बालिकाएं यहां शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। उनको विद्या-दान निःशुल्क दिया जाता है। विद्या दान के लिए शुल्क लेना भारत के नाम को कलंकित करना है। देश के धनी-मानी तथा राजा-महाराजाओं की उदारता से हम महायज्ञ सम्पन्न करते चले आ रहे हैं।
‘‘प्रतिवर्ष वसन्तोत्सव के अवसर पर उपाधि-वितरण का कार्य हुआ करता है। उन विद्यार्थियों को, जो शिक्षा समाप्त कर विश्वविद्यालय को छोड़ते हैं, इस बात का प्रमाण पत्र दिया जाता है। इस वर्ष जाने वाले विद्यार्थियों की संख्या दो सौ पच्चीस है। ये राजनीति, न्याय, संगीत-कला, युद्ध-कला, गृह-निर्माण कला, आयुर्वेद, धर्मशास्त्र, पुराण और वेद-वेदांग इत्यादि विषयों में निपुणता प्राप्त करके जा रहे हैं। इन सवा दो सौ स्नातकों में पांच ऐसे स्नातक भी हैं, जो अपने-अपने विषय में सर्वोत्तम प्रतिभा प्रकट करते रहे हैं। उनको प्रमाण पत्रों के अतिरिक्त विशेष प्रतिष्ठा प्रमाण तथा शास्त्रविज्ञ संज्ञक उत्तरीय कौशेय प्रदान किये जाएंगे।’’
इसके पश्चात् उपाधि वितरण कार्यक्रम प्रारम्भ हुआ। दो सौ पच्चीस विद्यार्थी तथा विद्यार्थिनियां बारी-बारी से मुनि वैवस्वत के सम्मुख आईं और उनके कर-कमलों से प्रमाण पत्र प्राप्त कर, चरण स्पर्श कर आशीर्वाद ले, अपने-अपने स्थान पर जाकर बैठ गयीं। प्रमाण पत्र भोज पत्र पर काली मसि से लिखे थे और लकड़ी की पाटी पर चिपकाए हुए थे। पाटी पर एक प्रकार का पार्दर्शक लेप किया हुआ था, जिससे पाटी और भोज पत्र तथा उस पर लिखावट के अक्षर चमक रहे थे। ये प्रमाण-पत्र रेशमी वस्त्र में लपेटे हुए थे।
अब उन पांच विद्यार्थियों की बारी आयी, जो अपने-अपने विषय में विशेष प्रतिभा प्रकट कर चुके थे। आचार्य ने ऊंचे स्वर में पुकारा, ‘‘वत्स भानुमित्र, काश्मीर-निवासी, राजनीति में विशेष विज्ञ सम्मुख आवें।’’
एक युवक दुबला-पतला, सिर मुंडाए हुए, सिर पर एक लंबी चोटी को गांठ दिए, लंबा मुख, छोटी-छोटी परन्तु तीव्र आंखें, ऊंचा मस्तक, तीखी नाक, कद का लंबा और लंबे-पतले हाथों वाला, विद्यार्थियों की पंक्तियों में से उठकर आचार्य के सम्मुख आ खड़ा हुआ। आचार्य ने उसका परिचय कराया, ‘‘यह बालक अति मेधावी राजनीतिज्ञ है। हमारे विश्वविद्यालय के एक स्नातक, काश्मीर निवासी पंडित महिदेव न्याय शास्त्री का सुपुत्र है। हमें पूर्ण आशा है कि भानुमित्र इस विश्वविद्यालय की कीर्ति को फैलाएगा। हमारे परीक्षक-मंडल ने इसे विशेष योग्यता के लिए यह पुरस्कार दिया है।’’
इतना कह चंदन की लकड़ी की बनी संदूकची और उस पर रखा रेशमी पूर्ण पहरावा उसे भेंट किया गया। भानुमित्र ने चरण-स्पर्श कर नमस्कार की। आचार्य ने उसे सिर पर हाथ रख आशीर्वाद दिया और वह वापस लौट अपने स्थान पर आकर बैठ गया। पश्चात् ‘दीर्घनाद’ का नाम लिया गया। एक और विद्यार्थी आचार्य के सम्मुख उपस्थित हुआ। उसे गृह-निर्माण विशेषज्ञ की उपाधि दी गयी। इसी प्रकार धर्म शास्त्र के विशेष ज्ञाता की उपाधि एक और बालक ‘निकुम्भ’ को मिली। दो बालिकाएं भी थीं, जिनको विशेष योग्यता का पुरस्कार दिया गया। इनमें एक का नाम मल्लिका था। उसे संगीत कला में विशेष ज्ञान के लिए उपाधि दी गयी। उसका परिचय देते हुए आचार्य ने बताया, ‘‘कुमारी मल्लिका गान्धार देश के एक व्यापारी की बहन है। भारतीय संगीत तथा नृत्य-कला में इसकी विशेष प्रतिभा के लिए इसे पारितोषिक दिया जाता है।’’
धनुष-बाण के करतब, युद्ध व्यूह रचना, दौड़ इत्यादि के खेल, मल्ल-युद्ध रथों की दौड़, खड्ग तथा भालों के युद्ध इत्यादि शारीरिक व्यायामों में प्रतियोगिता के प्रदर्शन में आठ दिन लग गये। इन सब दिनों में कार्यक्रम इतना रोचक और उत्तेजक रहा कि दर्शक उत्सुकता और उद्वेग से उत्तेजित हो उठते थे। इन खेलों में विद्यार्थी भाग ले रहे थे और अध्यापक, दर्शक तथा अन्य विद्यार्थी देखने वाले थे।
फिर पढ़ने-लिखने के विषयों में भी प्रतियोगिता हुई। इसमें कवि समारोह, संगीत-सभा, राजनीतिक गोष्ठियाँ इत्यादि कार्यक्रम थे।
तक्षशिला विश्वविद्यालय के अधीन एक महिला महाविद्यालय भी था। महिला-आश्रम पुरुष-गृह से आधे कोस के अन्तर पर था और वहाँ शिक्षिकाएं भी महिलाएं ही थीं। कभी-कभी विशेष उत्सवों पर अथवा अन्य समारोह पर बालक-बालिकाएं, पुरुष-स्त्रियां, अध्यापक-अध्यापिकाएं एकत्रित होते थे। परीक्षा के समय भी लड़कियां विश्वविद्यालय के मुख्य भवन में आती थीं।
वसन्तोत्सव के समारोह में भी लड़कियां उचित भाग ले रही थीं। कुछ लड़कियों ने धनुष-बाण आदि खेलों में भी भाग लिया था। कवि-समारोह और संगीत-सभा में तो लड़कियों ने विशेष भाग लिया था।
फाल्गुन-पूर्णिमा को एक वृहत् यज्ञ का आयोजन था। प्रातःकाल से ही यज्ञ-मण्डप विद्यार्थियों-विद्यार्थिनियों, स्त्री-पुरुष दर्शकों और अध्यापक-अध्यापिकाओं से भरा हुआ था। यज्ञ-मण्डप में एक विशाल और छता हुआ चबूतरा था। छत सौ मीटर के बने खम्भों पर खड़ी थी। चबूतरा सौ हाथ लम्बा और अस्सी हाथ चौड़ा था। खम्भे बीस हाथ ऊंचे थे। मण्डप में उत्तर की ओर एक ऊंचा बना हुआ था। यह मंच मण्डप की पूरी चौड़ाई में था और बीस हाथ लंबाई की ओर था। इस ऊँचे मंच पर यज्ञशाला बनी हुई थी।
मंडप के दक्षिण की ओर दस हाथ आगे बढ़ी हुई परछत्त बनी थी। यह चबूतरे की भूमि से दस हाथ ऊंचाई पर थी। परछत्त दस हाथ मंडप के भीतर तक आई हुई थी। इसके आगे झरनेदार एक हाथ ऊंचे मुंड़ेर लगी थी।
मंडप तथा परछत्त की भूमि लाल रंग के पत्थर से बनी थी। परछत्त पर दरी कालीन और श्वेत चांदनियां बिछी थीं और उन पर प्रतिष्ठित दर्शकगण बैठे थे। मण्डप की भूमि पर भी सूती दरिया बिछी थीं। यहां मंच के आगे एक ओर विद्यार्थिनियां और महिला-दर्शक बैठी थीं, दूसरी ओर विद्यार्थी और साधारण दर्शक थे। दोनों के बीच में तीन हाथ चौड़ा मार्ग छोड़ा गया था। इस मार्ग पर दरी के अतिरिक्त लाल रंग का कपड़ा बिछा था। मार्ग, मंच से चलकर मंडप के दक्षिण द्वार तक बना था और स्त्रियां तथा पुरुष पृथक-पृथक मार्ग के दाहिने-बायें बैठे थे।
मंच पर एक कुंड बना था और उस कुंड के चारों ओर विश्वविद्यालय के आचार्य, अध्यापक तथा अध्यापिकाएं बैठी थीं। इनमें सबसे ऊंचा सिर किए एक भव्य मूर्ति बैठी थी, जिसकी दूध समान श्वेत दाढ़ी-मूंछे तथा जटाएं उसकी दीर्घ आयु का परिचय दे रही थीं। उसकी आंखों की बरौनियां तथा भौहें श्वेत हो रही थीं। इस भव्य मूर्ति के समीप एक वृद्धा, परन्तु अति ओजस्वी मुख वाली बैठी थी।
मंडप में डेढ़ सहस्र विश्वविद्यालय के विद्यार्थी-विद्यार्थिनियां और पांच सौ से ऊपर दर्शक-गण विद्यमान थे। मंडप, यज्ञ में सम्मिलित होने वालों से खचाखच भरा हुआ था और सब लोग श्रद्घा तथा रुचि से हवन होते देख रहे थे। हवन सूर्योदय से पूर्व ‘ओं भूर्भवः स्वद्यौंरिव भूम्नापृथिवीव व्यरिम्णा...’ इत्यादि मंत्रों से आरम्भ हुआ और दो मुहूर्तभर हवन होने के उपरांत ही ‘ओं द्यौः शांतिरन्तरिक्ष’...’ इत्यादि से समाप्त हुआ।
इस दिन हवन के पश्चात् पठन में उत्तीर्ण हो विश्वविद्यालय से जाने वाले विद्यार्थियों को उपाधि-वितरण का आयोजन भी था। इस समय तक मंडप, हवन में सुगंधित तथा पौष्टिक पदार्थों के होम से, सुगंध से भरपूर हो रहा था।
उपाधि वितरण का कार्यक्रम आरम्भ होने से पूर्व यजुर्वेद से मंत्र पाठ हुआ। उपरांत वह भव्य मूर्ति मंडप की भूमि पर तथा मंडप की परछत्त पर बैठे लोगों की ओर मुख करके बैठ गयी। इससे पूर्ण श्रोतागण दत्त-चित्त होकर सुनने लगे। सबके मन में विश्वविद्यालय के कुलपति वैवस्वत के लिए भारी श्रद्धा थी। किंवदंती थी कि मुनि वैवस्वत वेद-वेदांग तथा दर्शन-पुराण का ज्ञाता और आयु में दो सौ वर्ष से ऊपर था। ऐसे लोग दर्शकों में थे, जिनके, पितामह आचार्य से पढ़े थे। इस कारण जब आचार्य ने श्रोताओं की ओर मुख किया तो सब दत्त-चित्त शांत हो गये। मंडप में पूर्ण निस्तब्धता विराजमान हो गयी।
आचार्य ने दाहिना हाथ उठा उपस्थित समाज को कहना आरम्भ किया, ‘‘सभ्यगण! हमारे विश्वविद्यालय को कार्य करते हुए एक सहस्र वर्ष के लगभग हो रहा है। ऋषि भलन्दन ने उस समय इसे एक साधारण विद्यालय के रूप में स्थापित किया था। जब मैं इस विद्यालय में विद्यार्थी बनकर आया था, तो यह पूर्ण रूप से विकसित होकर एक विश्वविद्यालय बन चुका था। पश्चात् मैं इसमें आचार्य बना और एक सौ तीस वर्षों से यहां कुल पति के रूप में माता सरस्वती की आराधना कर रहा हूं।
‘‘लगभग एक सहस्र वर्षों से देश-देशांतर के बालक-बालिकाएं यहां शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। उनको विद्या-दान निःशुल्क दिया जाता है। विद्या दान के लिए शुल्क लेना भारत के नाम को कलंकित करना है। देश के धनी-मानी तथा राजा-महाराजाओं की उदारता से हम महायज्ञ सम्पन्न करते चले आ रहे हैं।
‘‘प्रतिवर्ष वसन्तोत्सव के अवसर पर उपाधि-वितरण का कार्य हुआ करता है। उन विद्यार्थियों को, जो शिक्षा समाप्त कर विश्वविद्यालय को छोड़ते हैं, इस बात का प्रमाण पत्र दिया जाता है। इस वर्ष जाने वाले विद्यार्थियों की संख्या दो सौ पच्चीस है। ये राजनीति, न्याय, संगीत-कला, युद्ध-कला, गृह-निर्माण कला, आयुर्वेद, धर्मशास्त्र, पुराण और वेद-वेदांग इत्यादि विषयों में निपुणता प्राप्त करके जा रहे हैं। इन सवा दो सौ स्नातकों में पांच ऐसे स्नातक भी हैं, जो अपने-अपने विषय में सर्वोत्तम प्रतिभा प्रकट करते रहे हैं। उनको प्रमाण पत्रों के अतिरिक्त विशेष प्रतिष्ठा प्रमाण तथा शास्त्रविज्ञ संज्ञक उत्तरीय कौशेय प्रदान किये जाएंगे।’’
इसके पश्चात् उपाधि वितरण कार्यक्रम प्रारम्भ हुआ। दो सौ पच्चीस विद्यार्थी तथा विद्यार्थिनियां बारी-बारी से मुनि वैवस्वत के सम्मुख आईं और उनके कर-कमलों से प्रमाण पत्र प्राप्त कर, चरण स्पर्श कर आशीर्वाद ले, अपने-अपने स्थान पर जाकर बैठ गयीं। प्रमाण पत्र भोज पत्र पर काली मसि से लिखे थे और लकड़ी की पाटी पर चिपकाए हुए थे। पाटी पर एक प्रकार का पार्दर्शक लेप किया हुआ था, जिससे पाटी और भोज पत्र तथा उस पर लिखावट के अक्षर चमक रहे थे। ये प्रमाण-पत्र रेशमी वस्त्र में लपेटे हुए थे।
अब उन पांच विद्यार्थियों की बारी आयी, जो अपने-अपने विषय में विशेष प्रतिभा प्रकट कर चुके थे। आचार्य ने ऊंचे स्वर में पुकारा, ‘‘वत्स भानुमित्र, काश्मीर-निवासी, राजनीति में विशेष विज्ञ सम्मुख आवें।’’
एक युवक दुबला-पतला, सिर मुंडाए हुए, सिर पर एक लंबी चोटी को गांठ दिए, लंबा मुख, छोटी-छोटी परन्तु तीव्र आंखें, ऊंचा मस्तक, तीखी नाक, कद का लंबा और लंबे-पतले हाथों वाला, विद्यार्थियों की पंक्तियों में से उठकर आचार्य के सम्मुख आ खड़ा हुआ। आचार्य ने उसका परिचय कराया, ‘‘यह बालक अति मेधावी राजनीतिज्ञ है। हमारे विश्वविद्यालय के एक स्नातक, काश्मीर निवासी पंडित महिदेव न्याय शास्त्री का सुपुत्र है। हमें पूर्ण आशा है कि भानुमित्र इस विश्वविद्यालय की कीर्ति को फैलाएगा। हमारे परीक्षक-मंडल ने इसे विशेष योग्यता के लिए यह पुरस्कार दिया है।’’
इतना कह चंदन की लकड़ी की बनी संदूकची और उस पर रखा रेशमी पूर्ण पहरावा उसे भेंट किया गया। भानुमित्र ने चरण-स्पर्श कर नमस्कार की। आचार्य ने उसे सिर पर हाथ रख आशीर्वाद दिया और वह वापस लौट अपने स्थान पर आकर बैठ गया। पश्चात् ‘दीर्घनाद’ का नाम लिया गया। एक और विद्यार्थी आचार्य के सम्मुख उपस्थित हुआ। उसे गृह-निर्माण विशेषज्ञ की उपाधि दी गयी। इसी प्रकार धर्म शास्त्र के विशेष ज्ञाता की उपाधि एक और बालक ‘निकुम्भ’ को मिली। दो बालिकाएं भी थीं, जिनको विशेष योग्यता का पुरस्कार दिया गया। इनमें एक का नाम मल्लिका था। उसे संगीत कला में विशेष ज्ञान के लिए उपाधि दी गयी। उसका परिचय देते हुए आचार्य ने बताया, ‘‘कुमारी मल्लिका गान्धार देश के एक व्यापारी की बहन है। भारतीय संगीत तथा नृत्य-कला में इसकी विशेष प्रतिभा के लिए इसे पारितोषिक दिया जाता है।’’
2
यज्ञ तथा उपाधि वितरण का कार्यक्रम एक प्रहर दिन गये तक चलता रहा। इसके समाप्त होने पर सबसे प्रथम आचार्य मुनि वैवस्वत अपने स्थान से उठे। इस पर सब उपस्थितगण अपने-अपने स्थान पर उठ खड़े हुए। यह यहां की प्रथा थी कि सभा विसर्जन होने पर प्रधान आचार्य तथा अध्यापकों को मंडप से बाहर जाने का अवसर सर्वप्रथम दिया जाता था। अतः मुनि वैवस्वत, पीछे उनके समीप बैठी हुई वृद्धा विदुषी महामाई, मंडप के बीचोंबीच, रिक्त छोड़े हुए मार्ग से बाहर निकले। उनके पीछे मंच पर बैठी अध्यापिकाएं तथा अध्यापक निकले। इसके उपरांत विश्वविद्यालय की छात्राएं गईं और पीछे दर्शनगण तथा छात्र थे।
परछत्त से उतरने के लिए मंडप के दक्षिण बाजूकी ओर बाहर, सीढ़ियां बनी थीं। परछत्त पर प्रतिष्ठित दर्शक बैठे थे। जब तक आचार्य इत्यादि लोग मंडप से बाहर निकलते रहे, ये लोग भी अपने-अपने स्थान पर खड़े रहे। उनके निकल जाने पर परछत्त से बाहर आ, जूते पहन सीढ़ियों के नीचे उतरने लगे।
इन प्रतिष्ठित लोगों में देश-विदेश के कई नरेश भी थे। पाञ्चाल नरेश, गान्धार का गणपति, वैशाली का महासेठ, अवध के महाराज, विदेह के गणपति इत्यादि अनेक विशिष्ट जन उपस्थित थे।
सीढ़ियों से उतरते हुए अवध नरेश मुरहारी विक्रम ने अपने एक साथी को सम्बोधन कर कहा, ‘‘चूमुचूड़!’’
‘‘हां महाराज!’’
‘‘कुमारी मल्लिका को देखा है?’’
‘‘अद्वितीय सुंदरी है!’’
‘‘हम उसे पटरानी बनावेंगे।’’
‘‘परन्तु महाराज, यह तो उसकी इच्छा से ही हो सकेगा।’’
‘‘हां, देखो, उससे मिलकर बात करने का यत्न करो। नहीं तो गुरुवर कुलपतिजी से सहायता मांगनी पड़ेगी।’’
चमुचूड़ ने सिर हिलाकर आज्ञा पालन करने का संकेत दिया। सीढ़ियां उतर चमुचूड़ महाराज को अपने निवास-गृह की ओर जाते देख, पृथक् हो वहां जा पहुंचा, जहां छात्राएं अपने-अपने प्रमाण पत्र लिए निकल रही थीं।
परछत्त से उतरने के लिए मंडप के दक्षिण बाजूकी ओर बाहर, सीढ़ियां बनी थीं। परछत्त पर प्रतिष्ठित दर्शक बैठे थे। जब तक आचार्य इत्यादि लोग मंडप से बाहर निकलते रहे, ये लोग भी अपने-अपने स्थान पर खड़े रहे। उनके निकल जाने पर परछत्त से बाहर आ, जूते पहन सीढ़ियों के नीचे उतरने लगे।
इन प्रतिष्ठित लोगों में देश-विदेश के कई नरेश भी थे। पाञ्चाल नरेश, गान्धार का गणपति, वैशाली का महासेठ, अवध के महाराज, विदेह के गणपति इत्यादि अनेक विशिष्ट जन उपस्थित थे।
सीढ़ियों से उतरते हुए अवध नरेश मुरहारी विक्रम ने अपने एक साथी को सम्बोधन कर कहा, ‘‘चूमुचूड़!’’
‘‘हां महाराज!’’
‘‘कुमारी मल्लिका को देखा है?’’
‘‘अद्वितीय सुंदरी है!’’
‘‘हम उसे पटरानी बनावेंगे।’’
‘‘परन्तु महाराज, यह तो उसकी इच्छा से ही हो सकेगा।’’
‘‘हां, देखो, उससे मिलकर बात करने का यत्न करो। नहीं तो गुरुवर कुलपतिजी से सहायता मांगनी पड़ेगी।’’
चमुचूड़ ने सिर हिलाकर आज्ञा पालन करने का संकेत दिया। सीढ़ियां उतर चमुचूड़ महाराज को अपने निवास-गृह की ओर जाते देख, पृथक् हो वहां जा पहुंचा, जहां छात्राएं अपने-अपने प्रमाण पत्र लिए निकल रही थीं।
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