उपन्यास >> गुनाह बेगुनाह गुनाह बेगुनाहमैत्रेयी पुष्पा
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मैत्रेयी पुष्पा का नवीनतम सामाजिक उपन्यास
Gunah Begunah - A Hindi Book - by Maitreyi Pushpa
भारतीय समाज में ताकत का सबसे नजदीकी, सबसे देशी और सबसे नृशंस चेहरा–पुलिस। कोई हिन्दुस्तानी जब कानून कहता है तब भी और जब सरकार कहता है तब भी, उसकी आँखों के सामने कुछ खाकी सा ही रहता है इसके बावजूद थाने की दीवारों के पीछे क्या होता है हम में से ज्यादातर नहीं जानते। यह उपन्यास हमें इसी दीवार के उस तरफ ले जाता है और उस रहस्यमय दुनिया के कुछ दहशतनाक दृश्य दिखाता है और सो भी एक महिला पुलिसकर्मी की नजरों से।
इला जो अपने स्त्री वजूद को अर्थ देने और समाज के लिए कुछ कर गुजरने का हौसला लेकर खाकी वर्दी पहनती है, वहाँ जाकर देखती है कि वह चालाक, कुटिल लेकिन डरपोक मर्दों की दुनिया से निकलकर कुछ ऐसे मर्दों की दुनिया में आ गई है जो और भी ज्यादा क्रूर, हिंसालोलुप और स्त्रीभक्षक हैं। ऐसे मर्द जिनके पास वर्दी और वेल्ट की ताकत भी है, अपनी अधपढ़ मर्दाना कुंठाओं का अंजाम देने की निरंकुश निर्लज्जता भी और सरकारी तंत्र की अबूझता से भयभीत समाज की नजरों से दूर, थाने की अँधेरी कोठरियों में मिलनेवाले रोज-रोज के मौके भी।
अपनी बेलाग और बेचैन कहने में यह उपन्यास हमें बताता है कि मनुष्यता के खिलाफ सबसे बीभत्स दृश्य कहीं दूर युद्धों के मोर्चों और परमाणु हमलों में नहीं यहीं हमारे घरों से कुछ ही दूर, सड़क के उस पार हमारे थानों में अंजाम दिए जाते हैं। और यहाँ उन दृश्यों की साक्षी है बीसवीं सदी में पैदा हुई वह भारतीय स्त्री जिसने अपने समाज के दयनीय पिछड़ेपन के बावजूद मनुष्यता के उच्चतर सपने देखने की सोची है। मर्दाना सत्ता की एक भीषण संरचना यानि भारतीय पुलिस के सामने उस स्त्री के सपनों को रखकर यह उपन्यास एक तरह से उसकी ताकत को भी आजमाता है और कितनी भी पीड़ाजन्य सही, एक उजली सुबह की तरफ इशारा करता है।
इला जो अपने स्त्री वजूद को अर्थ देने और समाज के लिए कुछ कर गुजरने का हौसला लेकर खाकी वर्दी पहनती है, वहाँ जाकर देखती है कि वह चालाक, कुटिल लेकिन डरपोक मर्दों की दुनिया से निकलकर कुछ ऐसे मर्दों की दुनिया में आ गई है जो और भी ज्यादा क्रूर, हिंसालोलुप और स्त्रीभक्षक हैं। ऐसे मर्द जिनके पास वर्दी और वेल्ट की ताकत भी है, अपनी अधपढ़ मर्दाना कुंठाओं का अंजाम देने की निरंकुश निर्लज्जता भी और सरकारी तंत्र की अबूझता से भयभीत समाज की नजरों से दूर, थाने की अँधेरी कोठरियों में मिलनेवाले रोज-रोज के मौके भी।
अपनी बेलाग और बेचैन कहने में यह उपन्यास हमें बताता है कि मनुष्यता के खिलाफ सबसे बीभत्स दृश्य कहीं दूर युद्धों के मोर्चों और परमाणु हमलों में नहीं यहीं हमारे घरों से कुछ ही दूर, सड़क के उस पार हमारे थानों में अंजाम दिए जाते हैं। और यहाँ उन दृश्यों की साक्षी है बीसवीं सदी में पैदा हुई वह भारतीय स्त्री जिसने अपने समाज के दयनीय पिछड़ेपन के बावजूद मनुष्यता के उच्चतर सपने देखने की सोची है। मर्दाना सत्ता की एक भीषण संरचना यानि भारतीय पुलिस के सामने उस स्त्री के सपनों को रखकर यह उपन्यास एक तरह से उसकी ताकत को भी आजमाता है और कितनी भी पीड़ाजन्य सही, एक उजली सुबह की तरफ इशारा करता है।
घर और गुफा हमें सुरक्षित रखते हैं
इस काम की तारीफ नहीं होगी। इस रवैए को भी बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। इला समझ रही थी।
और यही हुआ।
तब वह जबर्दस्त तरीके से विचलित हो उठी। अपने फैसले पर यकीन डगमगाने लगा। ‘कुछ बदलने वाला नहीं; मन ही मन कहा और उदासी में घिर गई वह।
सालारपुर थाना।
इस थाने पर कांस्टेबल की तरह ड्यूटी है इला चौधरी की। इसी कस्बे में एक टूटा-फूटा कमरा रिहाइश के रूप में इन्तजार करता है उसका। घबराहट भरे लमहे और कमरे में सनसनाती वीरानी। सूनेपन में किसको बताए कि उसकी जिन्दगी पर मजबूरी का कैसा जखीरा उतरा है! सहकर्मी हों या अफसर, साथ देनेवाले नहीं, कन्धे उचकाकर जता रहे हैं कि इला कसूरवार है और कोई भी कसूरवार अपने किए को सही सिद्ध करता रहता है।
तख्त पर बिछे बिस्तर को झाड़ा उसने। लेटकर दुखते सिर को राहत मिलेगी। पर वह लेटी नहीं, तनकर सीधी बैठी रही–‘बता देना चाहिए कि मैं किस मकसद से पुलिस में आई हूँ। मुझे गलत मान रहे हो तो मैं गलत रहकर ही दिखाऊँगी क्योंकि पुलिस नियमावली में फेर-बदल की सख्त जरूरत है।’
जयन्त याद आया उसे, अपना प्यारा दोस्त। वह क्या कहता इस वक़्त? यही कि तलकीफजदा बातों को जल्दी से जल्दी भूल जाना चाहिए। और इला मानती है कि तकलीफजदा बातें दिमाग में दूसरी बातों के लिए जगह नहीं छोड़तीं।
‘रंडी को गिरफ्तार करना है,’ सर ने कहा। उन्होंने इस तरह कहा कि इस शब्द को गर्द की तरह चारों ओर उड़ा दिया। गर्द सबके पाँवों तले कुचली जाती है, मगर जब हवा के साथ ऊपर उठने लगे तो आँखों को तकलीफ देने लगती है।
सर पढ़े-लिखे सभ्य व्यक्ति हैं। मगर औरत को वे...अफसोस कि उनकी भाषा का फूहड़पन अपने आपमें असभ्यता की मिसाल है।
‘रंडी!’ मेरे मुँह से निकला या इस शब्द पर मेरा एतराज दर्ज हुआ, एस. आई. सर ने इसे अपने रुतबे पर मेरा हमला माना।
‘क्यों? रंडी को रंडी न कहें तो क्या कहें मिस इला चौधरी?’’
इस समय प्यारे दोस्त जयन्त से कितना मेल खा रहा था सर का चेहरा। वह भी तो कहता है–‘रंडी’ शब्द तुम्हें तीर की तरह क्यों बेधता है? यह एक पेशागत नाम है और समाज की भाषा में सर्वमान्य तौर पर प्रचलित है। अंग्रेजी में सेक्स वर्कर कहो तो भी इसका अर्थ रंडी ही निकलता है।
अजीब हालत है, समाज की बदगुमानियों से निजात दिलानेवाला भी जयन्त ही है जिसकी ऐसी व्याख्याएँ मन में समाए प्रीति-प्यार को चीरकर रख देती हैं। अपनी कविताओं में यही जयन्त लड़की को उजले सपनों की उम्मीद बनाकर उतारता है। कागजी कार्यवाहियों के कमाल में ही तो इलाजयन्त की ओर बढ़ चली थी। सारी धरती को नापती हुई, आकाश को बाँहों में बाँधती हुई और सितारों को सुनहरी बिन्दियों की तरह दामन में समेटती हुई!
मगर जब न तब ऐसा होता है कि जयन्त की कविताएँ और थाने पर तैनात पुलिसकर्मियों का व्यवहार आपस में टकराते हैं तो मन खंड-खंड और भावनाएँ किरच-किरच बिखर जाती हैं।
‘औरत को गिरफ्तार करना है’ क्या यह काफी नहीं है, मर्दानी पुलिस के लिए? नहीं है काफी क्योंकि यह जो अपमानमूलक शब्द तोहफे में मिला है, उसे औरत को भूलने नहीं दिया जाता। और मर्दानगी निरन्तर अपनी ताकत दिखाती रहती है।
कहाँ गई वह हँसी? इला जयन्त जैसे युवकों पर हँसती थी–‘पुलिस में आकर रायफल उठाने का ढोंग क्यों करते हो, तुम्हें तो कलम से कागज पर जेहाद छेड़नी है। सचमुच मुजरिम को हथकड़ी पहनाने के बदले संवेदनाओं में डूब जाओगे। सामाजिक नाइनसाफियों के समान पड़कर सिर झुका दोगे।’
‘संवेदना के बिना सिपाही नहीं बन सकती तुम,’ जयन्त कहता था तो फिर आज यहाँ वह बात उलटा असर क्यों दिखा रही है? हमदर्दी अपराध का रूप हो गई। इनसानी लगाव की बातें यहाँ एकदम बेमानी हैं।
किस मुगालते में थे हम उस दिन, जिस दिन हमारे ग्रुप का पास-आउट हुआ था? कितनी प्रतिज्ञाएँ की थीं, कितने संकल्प उठाए थे। वे शब्द और वाक्य थोथे पड़ते जा रहे हैं क्योंकि थाने कोतवालियों के लिए मानवता की व्याख्याएँ व्यर्थ का भूसा हैं।
इला ने अपने कड़े से तकिए पर करवट लिया–‘भाषा के स्तर पर व्यवहार’ यह तो अलग से एक विषय था, याद होगा जयन्त को भी फिर क्यों कह रहा है कि ‘रंडी’ शब्द सुनने की आदत डाल लो।
आदत! आदत थी जब इला अपने गाँव में रहती थी। दिन में दस बार रंडी, बेड़िनी शब्द सुनती थी। औरतों के शरीर पर गुजरनेवाली गालियाँ मर्दों की जबान पर चढ़ी थीं। तब किसी ने कहाँ बताया था कि इन शब्दों के पीछे औरत को कुचलने की साजिश है। ज्ञान कितना खतरनाक होता है, परतें उखाड़-उखाड़कर जाँचने के लिए उकसाता है। जिज्ञासाएँ और तर्कसम्मत बातें महसूस कराती हैं कि इनसान को दी जानेवाली यातनाएँ भयानक चीत्कारों के घेरे बनाकर उन्हें कैद कर रही हैं। हम साक्षी के रूप में प्रस्तुत जो हैं।
यों तो अब सोने का समय हो चला और इला ने अपनी हमदर्द भावनाओं को प्रार्थना की तरह दोहराया।
तभी मोबाइल फोन पर एस.एम.एस. का संकेत हुए। एस. एम. एस जयन्त का था–‘गुड नाइट, स्वीट ड्रीम!’
इसके बाद फोन बज उठा, स्क्रीन पर आया–थाना कॉलिंग
‘हलो।’
‘इल्ला चौधरी,’
‘सर, जयहिन्द सर,’
‘कम सून। एक मुजरिम गिरफ्तार करनी है।’
‘यस सर, कमिंग सर।’
‘अब तो खुश, देखो, मैंने औरत को रंडी नहीं कहा।’
सर का व्यंग्य, इला समझती है जताना चाहते हैं, रंडी नहीं कहा तो भी क्या फर्क पड़ता है? धन्धा करनेवाली औरत को सती देवी तो नहीं मान लिया जाएगा।
हाँ, नहीं माना जाएगा क्योंकि अपनी देह से श्रम करो, सेक्स करो और समर्पण भी, मगर सब कुछ मुफ्त करो तो तुम सती भी हो और देवी भी। नहीं तो कुलटा वेश्या...बाय द वे, मर्द का क्या नाम होना चाहिए जो अपनी हवस के लिए औरत खरीदता है? धन्धे के अगुआ का कोई ऐसा घिनौना नाम नहीं, बस इसलिए कि वह धन का मालिक है?
‘ओ इला, प्लीज...’ उसकी दोस्त समीना होती तो उसे सवालों के बीहड़ों से खींच लेती।
इला उस खूँटी की ओर दो कदम बढ़ी, जिस पर उसकी बेशिकन कड़क वर्दी टँगी है। उसने वर्दी का स्पर्श किया, मन का मंजर बदल गया। यह वर्दी ही हमारा वजूद है, इसके सामने अँधेरे का डर, अकेलेपन की दहशत टिक नहीं पाती। इसमें ईमानदारी की ताकत समाई हुई है।
उसने वर्दी पहनी, बदन में फुर्तीली लहरें उठने लगीं। पाँवों में बूट डाले, कमजोरी उड़न-छू हो गई। मजबूती का मोहक आलम, इसके लिए ही तो जिन्दगी से खेलने का संकल्प लिया था। इला अब घबरा नहीं रही, न खुद को गुनाहगार मान रही, बराबर आगे बढ़ रही है। कितना अच्छा हुआ, अपने अफसर की भाषा को बदल दिया! सर का आदेश डराने-दहलानेवाला लावा बनकर कानों को नहीं कोंच रहा, पिघले हुए सोने की रंगत में उसकी बेल्ट पर दमक रहा है।
‘बहस करती है, नसीहत देगी हमें, डिसिप्लिन तोड़ेगी तो फिर पनिशमेंट के लिए तैयार रह, समझी?’ कहनेवाले एस. आई. सर अब शान्त हैं या उदास? इला को सबक सिखाने के लिए उपाय खोज रहे हैं।
और यही हुआ।
तब वह जबर्दस्त तरीके से विचलित हो उठी। अपने फैसले पर यकीन डगमगाने लगा। ‘कुछ बदलने वाला नहीं; मन ही मन कहा और उदासी में घिर गई वह।
सालारपुर थाना।
इस थाने पर कांस्टेबल की तरह ड्यूटी है इला चौधरी की। इसी कस्बे में एक टूटा-फूटा कमरा रिहाइश के रूप में इन्तजार करता है उसका। घबराहट भरे लमहे और कमरे में सनसनाती वीरानी। सूनेपन में किसको बताए कि उसकी जिन्दगी पर मजबूरी का कैसा जखीरा उतरा है! सहकर्मी हों या अफसर, साथ देनेवाले नहीं, कन्धे उचकाकर जता रहे हैं कि इला कसूरवार है और कोई भी कसूरवार अपने किए को सही सिद्ध करता रहता है।
तख्त पर बिछे बिस्तर को झाड़ा उसने। लेटकर दुखते सिर को राहत मिलेगी। पर वह लेटी नहीं, तनकर सीधी बैठी रही–‘बता देना चाहिए कि मैं किस मकसद से पुलिस में आई हूँ। मुझे गलत मान रहे हो तो मैं गलत रहकर ही दिखाऊँगी क्योंकि पुलिस नियमावली में फेर-बदल की सख्त जरूरत है।’
जयन्त याद आया उसे, अपना प्यारा दोस्त। वह क्या कहता इस वक़्त? यही कि तलकीफजदा बातों को जल्दी से जल्दी भूल जाना चाहिए। और इला मानती है कि तकलीफजदा बातें दिमाग में दूसरी बातों के लिए जगह नहीं छोड़तीं।
‘रंडी को गिरफ्तार करना है,’ सर ने कहा। उन्होंने इस तरह कहा कि इस शब्द को गर्द की तरह चारों ओर उड़ा दिया। गर्द सबके पाँवों तले कुचली जाती है, मगर जब हवा के साथ ऊपर उठने लगे तो आँखों को तकलीफ देने लगती है।
सर पढ़े-लिखे सभ्य व्यक्ति हैं। मगर औरत को वे...अफसोस कि उनकी भाषा का फूहड़पन अपने आपमें असभ्यता की मिसाल है।
‘रंडी!’ मेरे मुँह से निकला या इस शब्द पर मेरा एतराज दर्ज हुआ, एस. आई. सर ने इसे अपने रुतबे पर मेरा हमला माना।
‘क्यों? रंडी को रंडी न कहें तो क्या कहें मिस इला चौधरी?’’
इस समय प्यारे दोस्त जयन्त से कितना मेल खा रहा था सर का चेहरा। वह भी तो कहता है–‘रंडी’ शब्द तुम्हें तीर की तरह क्यों बेधता है? यह एक पेशागत नाम है और समाज की भाषा में सर्वमान्य तौर पर प्रचलित है। अंग्रेजी में सेक्स वर्कर कहो तो भी इसका अर्थ रंडी ही निकलता है।
अजीब हालत है, समाज की बदगुमानियों से निजात दिलानेवाला भी जयन्त ही है जिसकी ऐसी व्याख्याएँ मन में समाए प्रीति-प्यार को चीरकर रख देती हैं। अपनी कविताओं में यही जयन्त लड़की को उजले सपनों की उम्मीद बनाकर उतारता है। कागजी कार्यवाहियों के कमाल में ही तो इलाजयन्त की ओर बढ़ चली थी। सारी धरती को नापती हुई, आकाश को बाँहों में बाँधती हुई और सितारों को सुनहरी बिन्दियों की तरह दामन में समेटती हुई!
मगर जब न तब ऐसा होता है कि जयन्त की कविताएँ और थाने पर तैनात पुलिसकर्मियों का व्यवहार आपस में टकराते हैं तो मन खंड-खंड और भावनाएँ किरच-किरच बिखर जाती हैं।
‘औरत को गिरफ्तार करना है’ क्या यह काफी नहीं है, मर्दानी पुलिस के लिए? नहीं है काफी क्योंकि यह जो अपमानमूलक शब्द तोहफे में मिला है, उसे औरत को भूलने नहीं दिया जाता। और मर्दानगी निरन्तर अपनी ताकत दिखाती रहती है।
कहाँ गई वह हँसी? इला जयन्त जैसे युवकों पर हँसती थी–‘पुलिस में आकर रायफल उठाने का ढोंग क्यों करते हो, तुम्हें तो कलम से कागज पर जेहाद छेड़नी है। सचमुच मुजरिम को हथकड़ी पहनाने के बदले संवेदनाओं में डूब जाओगे। सामाजिक नाइनसाफियों के समान पड़कर सिर झुका दोगे।’
‘संवेदना के बिना सिपाही नहीं बन सकती तुम,’ जयन्त कहता था तो फिर आज यहाँ वह बात उलटा असर क्यों दिखा रही है? हमदर्दी अपराध का रूप हो गई। इनसानी लगाव की बातें यहाँ एकदम बेमानी हैं।
किस मुगालते में थे हम उस दिन, जिस दिन हमारे ग्रुप का पास-आउट हुआ था? कितनी प्रतिज्ञाएँ की थीं, कितने संकल्प उठाए थे। वे शब्द और वाक्य थोथे पड़ते जा रहे हैं क्योंकि थाने कोतवालियों के लिए मानवता की व्याख्याएँ व्यर्थ का भूसा हैं।
इला ने अपने कड़े से तकिए पर करवट लिया–‘भाषा के स्तर पर व्यवहार’ यह तो अलग से एक विषय था, याद होगा जयन्त को भी फिर क्यों कह रहा है कि ‘रंडी’ शब्द सुनने की आदत डाल लो।
आदत! आदत थी जब इला अपने गाँव में रहती थी। दिन में दस बार रंडी, बेड़िनी शब्द सुनती थी। औरतों के शरीर पर गुजरनेवाली गालियाँ मर्दों की जबान पर चढ़ी थीं। तब किसी ने कहाँ बताया था कि इन शब्दों के पीछे औरत को कुचलने की साजिश है। ज्ञान कितना खतरनाक होता है, परतें उखाड़-उखाड़कर जाँचने के लिए उकसाता है। जिज्ञासाएँ और तर्कसम्मत बातें महसूस कराती हैं कि इनसान को दी जानेवाली यातनाएँ भयानक चीत्कारों के घेरे बनाकर उन्हें कैद कर रही हैं। हम साक्षी के रूप में प्रस्तुत जो हैं।
यों तो अब सोने का समय हो चला और इला ने अपनी हमदर्द भावनाओं को प्रार्थना की तरह दोहराया।
तभी मोबाइल फोन पर एस.एम.एस. का संकेत हुए। एस. एम. एस जयन्त का था–‘गुड नाइट, स्वीट ड्रीम!’
इसके बाद फोन बज उठा, स्क्रीन पर आया–थाना कॉलिंग
‘हलो।’
‘इल्ला चौधरी,’
‘सर, जयहिन्द सर,’
‘कम सून। एक मुजरिम गिरफ्तार करनी है।’
‘यस सर, कमिंग सर।’
‘अब तो खुश, देखो, मैंने औरत को रंडी नहीं कहा।’
सर का व्यंग्य, इला समझती है जताना चाहते हैं, रंडी नहीं कहा तो भी क्या फर्क पड़ता है? धन्धा करनेवाली औरत को सती देवी तो नहीं मान लिया जाएगा।
हाँ, नहीं माना जाएगा क्योंकि अपनी देह से श्रम करो, सेक्स करो और समर्पण भी, मगर सब कुछ मुफ्त करो तो तुम सती भी हो और देवी भी। नहीं तो कुलटा वेश्या...बाय द वे, मर्द का क्या नाम होना चाहिए जो अपनी हवस के लिए औरत खरीदता है? धन्धे के अगुआ का कोई ऐसा घिनौना नाम नहीं, बस इसलिए कि वह धन का मालिक है?
‘ओ इला, प्लीज...’ उसकी दोस्त समीना होती तो उसे सवालों के बीहड़ों से खींच लेती।
इला उस खूँटी की ओर दो कदम बढ़ी, जिस पर उसकी बेशिकन कड़क वर्दी टँगी है। उसने वर्दी का स्पर्श किया, मन का मंजर बदल गया। यह वर्दी ही हमारा वजूद है, इसके सामने अँधेरे का डर, अकेलेपन की दहशत टिक नहीं पाती। इसमें ईमानदारी की ताकत समाई हुई है।
उसने वर्दी पहनी, बदन में फुर्तीली लहरें उठने लगीं। पाँवों में बूट डाले, कमजोरी उड़न-छू हो गई। मजबूती का मोहक आलम, इसके लिए ही तो जिन्दगी से खेलने का संकल्प लिया था। इला अब घबरा नहीं रही, न खुद को गुनाहगार मान रही, बराबर आगे बढ़ रही है। कितना अच्छा हुआ, अपने अफसर की भाषा को बदल दिया! सर का आदेश डराने-दहलानेवाला लावा बनकर कानों को नहीं कोंच रहा, पिघले हुए सोने की रंगत में उसकी बेल्ट पर दमक रहा है।
‘बहस करती है, नसीहत देगी हमें, डिसिप्लिन तोड़ेगी तो फिर पनिशमेंट के लिए तैयार रह, समझी?’ कहनेवाले एस. आई. सर अब शान्त हैं या उदास? इला को सबक सिखाने के लिए उपाय खोज रहे हैं।
किसी ने नहीं कहा कि बहादुर बनो
यह तब की बात है, जब हमारा हरियाणा प्रदेश इक्कीसवीं सदी का पहला दशक खत्म होते-होते ‘स्त्री संहार’ के लिए दुनिया भर में मशहूर हो गया था। यहाँ तक कि जो वर्ग धार्मिक जागरण में लगा हुआ था, वहाँ भी उपदेशों के बाद बाकायदा गुरुओं की भीतरी शीतल गुफाओं में बलात्कारों के नियमित कार्यक्रम चलते थे। यह आधुनिक भारत का नवजागरण था। न जाने कितने मठ, कितने आश्रम, कितने पीठ कुकुरमुत्तों की तरह उदय हुए, जो किलों, गढ़ों और दुर्गों में बदल गए!
राजनीति का अर्थ है, गिरोहबन्द अपराधों को कानूनी मान्यता के रूप में सरंजाम देना। दरअसल सरकारों के धन्धे पूरी तरह भ्रष्टाचार पर टिके थे। अलबत्ता राजनीतिज्ञों ने इन्हें ‘आम आदमी’ से जोड़ रखा था। इन राजनीतिज्ञों में हरियाणा की तीनों पार्टियों के कर्ता धर्ता और प्रमुख अपनी पूरी शक्ति के साथ शामिल थे। तभी तो वे सब कन्या हत्या या स्त्री-हन्ता होने को लगभग समर्थन दे रहे थे। आखिर उन्हें भी तो अपनी ‘इज्जत’ का खयाल था।
उन्हीं दिनों हरियाणा प्रदेश में स्त्री जाति ने उपद्रव शुरू कर दिया। एक बार को तो लगा कि वे पूरी ताकत से दबाई गई स्प्रिंग की भाँति धरती से चिपकी रहीं, लेकिन जैसे ही मौका खोजा, अवसर मिला, इतने वेग से उछलीं कि उन्हें काबू करना मुश्किल हो गया। ताज्जुब नहीं कि जितनी हत्याएँ इज्जत के नाम पर हरियाणा में हुईं, पूरे देश में नहीं हुईं। संहार स्त्री के अपने फैसले की सजा था।
ऐसे में ही इला ने अपने जीवन-मूल्यों को अपनी तरह से चयनित किया। पारम्परिक संस्कारों की पुण्यभूमि के दलदल से निकलना आसान नहीं था। जद्दोजहद भी हाँफकर दम तोड़ने लगी क्योंकि नाबालिग उम्र में जो होना था वही हुआ।
राजनीति का अर्थ है, गिरोहबन्द अपराधों को कानूनी मान्यता के रूप में सरंजाम देना। दरअसल सरकारों के धन्धे पूरी तरह भ्रष्टाचार पर टिके थे। अलबत्ता राजनीतिज्ञों ने इन्हें ‘आम आदमी’ से जोड़ रखा था। इन राजनीतिज्ञों में हरियाणा की तीनों पार्टियों के कर्ता धर्ता और प्रमुख अपनी पूरी शक्ति के साथ शामिल थे। तभी तो वे सब कन्या हत्या या स्त्री-हन्ता होने को लगभग समर्थन दे रहे थे। आखिर उन्हें भी तो अपनी ‘इज्जत’ का खयाल था।
उन्हीं दिनों हरियाणा प्रदेश में स्त्री जाति ने उपद्रव शुरू कर दिया। एक बार को तो लगा कि वे पूरी ताकत से दबाई गई स्प्रिंग की भाँति धरती से चिपकी रहीं, लेकिन जैसे ही मौका खोजा, अवसर मिला, इतने वेग से उछलीं कि उन्हें काबू करना मुश्किल हो गया। ताज्जुब नहीं कि जितनी हत्याएँ इज्जत के नाम पर हरियाणा में हुईं, पूरे देश में नहीं हुईं। संहार स्त्री के अपने फैसले की सजा था।
ऐसे में ही इला ने अपने जीवन-मूल्यों को अपनी तरह से चयनित किया। पारम्परिक संस्कारों की पुण्यभूमि के दलदल से निकलना आसान नहीं था। जद्दोजहद भी हाँफकर दम तोड़ने लगी क्योंकि नाबालिग उम्र में जो होना था वही हुआ।
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