नारी विमर्श >> अगनपाखी अगनपाखीमैत्रेयी पुष्पा
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इदन्नमम, चाक, अल्मा कबूतरी, झूला नट के बाद यह कथा मैत्रेयी पुष्पा के औपन्यासिक यात्रा का एक जबर्दस्त मोड़...
Aganpakhi
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
भुवन मोहिनी की कथा नई नहीं है। अनेक उपन्यासों, फिल्मों और लोककथाओं में रूप बदल-बदलकर आती रही है। सम्पत्ति के लिए भाइयों में झगडे, पत्नियों और विधवाओं के हत्या-अनुष्ठान भारतीय सामंती परिवारों में हजारों बार दोहराए जाते रहे हैं। ऐसे ही एक सामंती परिवार के अधपगले लड़के भुवन का विवाह कर दिया जाता है और फिर वही सामंती दांवपेंच। मैत्रेयी पुष्पा ने अपनी पूर्व-परिचित दिलचस्प किस्सागोई के साथ इस कथा को एक नया कोण दिया है जिसके पीछे वृन्दावनलाल वर्मा के उपन्यास विराटा की पद्मिनी की अनुगूंजे हैं। इस तरह संस्कार बिम्बों को जगाती हुई यह कहानी नई-पुरानी दोनों एक साथ है। लोककथाओं-लोकगीतों से गुंथी अगनपाखी की भाषा फिर-फिर नई होती है-अपनी आग में जलकर जीवित हो उठने वाले पक्षी की तरह। इदन्नमम, चाक, अल्मा कबूतरी, झूला नट के बाद यह कथा मैत्रेयी पुष्पा के औपन्यासिक यात्रा का एक जबर्दस्त मोड़ है।
पुनर्नवा
एक रचना के कितने पाठ होते हैं ? शायद अनंत।
सुविधा के लिए कहूँ तो व्यक्तियों के अपने-अपने पाठ, समय के अपने-अपने पाठ और स्थितियों के अनुसार अलग-अलग पाठ। यह तो निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि एक रचना को हर पाठक अपनी अलग दृष्टि से देखता है, कहें कि पाठकीय रचनात्मकता से गुजरता है। अपनी एक रचना ‘स्मृतिदंश’ लिखने और छपकर आने के बाद मैं भी एक ऐसी पाठक बन गई, जो रचना का पुनःपाठ करता है। पढ़ते-पढ़ते बेचैनी बढ़ने लगती, लगता कि कहीं कुछ छूट गया है। फिर-फिर पढ़ना और छूटे हुए का रीतापन और बढ़ते जाना...लिखे हुए की ‘कमी’ बन गया। यों तो लेखक हर रचना के बाद उसका पुस्तकीय-पाठ करते हुए विचलित होता है। काश-काश करता हुए कराहता है कि अमुक प्रसंग ऐसे आता तो ? अमुक संवाद इन शब्दों को लेकर उतरता तो ? अमुक स्थिति को और गहरा किया जाता तो ? तो इस रचना का रुप और निखरता और सँवरता। लेकिन यह सिलसिला तो अनंत है। मूल बात यह है कि रचनाकार अपनी रचना से न कभी संतुष्ट होता है और न मुक्त।
मुझे ‘स्मृतिदंश’ के पुनःपाठ के लगभग झकझोर डाला और मैं यहाँ तक आ गई कि-यह तो वह है ही नहीं, जो मैं कहना चाहती थी-मेरे इस विचार को बल दिया इसी रचना की नायिका भुवन ने। परेशान कर डालने की सीमा तक उसने मेरे पीछा किया। जिद भी बड़ी अटपटी-कि उसे इस रूप में नहीं होना था। ऊपर से असहाय होने के कारण विनम्र दिखनेवाली स्त्री भीतर से किस ताकत का सपना देखती है, लेखिका यह क्यों नहीं समझी ? उसके साथ न्याय नहीं हुआ। मैं उन दिनों दूसरे उपन्यास लिख रही थी। दूसरी नायिकाएँ मेरे साथ थीं। उसी व्यस्तता और पात्रों के घेरे में भुवन की आवाज उठती, जो अलग से सुनाई पड़ती। पहले तो मैं घबरा जाती और फिर झुँझला उठती। न जाने कितने यत्नों-प्रयत्नों से उसे अनसुना करने की कोशिश करती। सचमुच वह मेरी सबसे ज्यादा कमजोर नायिका थी, मगर उतनी ही शक्ति से मुझे पुकारती। ऐसा करते-करते एक-दो साल नहीं, चार-छः वर्ष नहीं, पूरे ग्यारह साल बीतने को हैं। में उसे निरंतर टालती रही। एक दिन अचानक लगा कि उसने मेरी कलम पकड़ ली है। कागज पर कब्जा कर लिया है। लेखक के इन औजारों पर वह अपना हक जता रही है। आश्चर्य तब हुआ जब लिखते-लिखते लगा कि भुवन इन बीते वर्षों में मेरे भीतर नया आकार लेती रही। नया कलेवर उसने कैसे धारण किया ? उसका पहला रूप झूठा था, या यह दूसरा ? शायद यह मेरा उस समय का सच था, और यह आज का। मैं ही खुद को भुवन के रूप में रखकर अपने आप से लड़ रही थी और परिवर्तन के लिए विद्रोह तक जाने में कभी चार कदम बढ़ती तो कभी दो कदम पीछे हटती। अनुभव यह रहा कि सफर में मुसाफिर चले, थके, लड़खड़ाये या मुँह के बल गिरे, लक्ष्य बड़ा बेरहम होता है। संभवतः कथा का यही लक्ष्य-रूप मेरे भीतर रहा हो और उस समय व्यक्त न कर पाई हूँ। अब यह एक नया उपन्यास है। हो सकता है पात्रों के नाम और स्थान वही हों, मगर अब वहाँ का इसमें कुछ भी नहीं। अगर मैं पात्रों स्थानों के नाम बदल देती तो भी कोई अंतर न पड़ता। ‘अगनपाखी’ उतना ही नया होता। 26.6.2001 कचहरी।
सुविधा के लिए कहूँ तो व्यक्तियों के अपने-अपने पाठ, समय के अपने-अपने पाठ और स्थितियों के अनुसार अलग-अलग पाठ। यह तो निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि एक रचना को हर पाठक अपनी अलग दृष्टि से देखता है, कहें कि पाठकीय रचनात्मकता से गुजरता है। अपनी एक रचना ‘स्मृतिदंश’ लिखने और छपकर आने के बाद मैं भी एक ऐसी पाठक बन गई, जो रचना का पुनःपाठ करता है। पढ़ते-पढ़ते बेचैनी बढ़ने लगती, लगता कि कहीं कुछ छूट गया है। फिर-फिर पढ़ना और छूटे हुए का रीतापन और बढ़ते जाना...लिखे हुए की ‘कमी’ बन गया। यों तो लेखक हर रचना के बाद उसका पुस्तकीय-पाठ करते हुए विचलित होता है। काश-काश करता हुए कराहता है कि अमुक प्रसंग ऐसे आता तो ? अमुक संवाद इन शब्दों को लेकर उतरता तो ? अमुक स्थिति को और गहरा किया जाता तो ? तो इस रचना का रुप और निखरता और सँवरता। लेकिन यह सिलसिला तो अनंत है। मूल बात यह है कि रचनाकार अपनी रचना से न कभी संतुष्ट होता है और न मुक्त।
मुझे ‘स्मृतिदंश’ के पुनःपाठ के लगभग झकझोर डाला और मैं यहाँ तक आ गई कि-यह तो वह है ही नहीं, जो मैं कहना चाहती थी-मेरे इस विचार को बल दिया इसी रचना की नायिका भुवन ने। परेशान कर डालने की सीमा तक उसने मेरे पीछा किया। जिद भी बड़ी अटपटी-कि उसे इस रूप में नहीं होना था। ऊपर से असहाय होने के कारण विनम्र दिखनेवाली स्त्री भीतर से किस ताकत का सपना देखती है, लेखिका यह क्यों नहीं समझी ? उसके साथ न्याय नहीं हुआ। मैं उन दिनों दूसरे उपन्यास लिख रही थी। दूसरी नायिकाएँ मेरे साथ थीं। उसी व्यस्तता और पात्रों के घेरे में भुवन की आवाज उठती, जो अलग से सुनाई पड़ती। पहले तो मैं घबरा जाती और फिर झुँझला उठती। न जाने कितने यत्नों-प्रयत्नों से उसे अनसुना करने की कोशिश करती। सचमुच वह मेरी सबसे ज्यादा कमजोर नायिका थी, मगर उतनी ही शक्ति से मुझे पुकारती। ऐसा करते-करते एक-दो साल नहीं, चार-छः वर्ष नहीं, पूरे ग्यारह साल बीतने को हैं। में उसे निरंतर टालती रही। एक दिन अचानक लगा कि उसने मेरी कलम पकड़ ली है। कागज पर कब्जा कर लिया है। लेखक के इन औजारों पर वह अपना हक जता रही है। आश्चर्य तब हुआ जब लिखते-लिखते लगा कि भुवन इन बीते वर्षों में मेरे भीतर नया आकार लेती रही। नया कलेवर उसने कैसे धारण किया ? उसका पहला रूप झूठा था, या यह दूसरा ? शायद यह मेरा उस समय का सच था, और यह आज का। मैं ही खुद को भुवन के रूप में रखकर अपने आप से लड़ रही थी और परिवर्तन के लिए विद्रोह तक जाने में कभी चार कदम बढ़ती तो कभी दो कदम पीछे हटती। अनुभव यह रहा कि सफर में मुसाफिर चले, थके, लड़खड़ाये या मुँह के बल गिरे, लक्ष्य बड़ा बेरहम होता है। संभवतः कथा का यही लक्ष्य-रूप मेरे भीतर रहा हो और उस समय व्यक्त न कर पाई हूँ। अब यह एक नया उपन्यास है। हो सकता है पात्रों के नाम और स्थान वही हों, मगर अब वहाँ का इसमें कुछ भी नहीं। अगर मैं पात्रों स्थानों के नाम बदल देती तो भी कोई अंतर न पड़ता। ‘अगनपाखी’ उतना ही नया होता। 26.6.2001 कचहरी।
मैत्रेयी पुष्पा
हलफनामा। उज्रदारी।
मैं भुवनमोहिनी, पत्नी स्वर्गीय विजयसिंह वल्द स्वर्गीय दुरजयसिंह, निवासी ग्राम विराटा, जिला झाँसी, यह दावा करती हूँ कि मैं अपने पति के हिस्से की चल-अचल सम्पत्ति की हकदार हूँ। मुझे इत्तला मिली है कि मेरे पति के साथ मुझे भी मृतक दिखाया गया है और मेरे जेठ कुँवर अजयसिंह ने अपने अकेले का हक बरकरार रखा है। क्योंकि स्व. विजयसिंह की कोई सन्तान नहीं। कचहरी से अर्ज है कि अपने पति की जायदाद का हक सौंपा जाए। मैं कुँवर अजयसिंह की हकदारी पर सख्त एतराज करती हूँ।
बकलम खुद-भुवनमोहिनी
तहसील में जब अर्जी पढ़ी गयी तो जानकार लोग सन्न से रह गये। कुँवर अजयसिंह का चेहरा पीला पड़ गया जैसे उन्होंने सामने खड़ी बाघिन देख ली हो, जबकि वहाँ कोई स्त्री उपस्थित नहीं थी। जो कुछ उनसे पूछा गया, उसका वे जवाब दें, उससे पहले बोले, ‘‘मैं गाँव के लोगों को गवाहों के रूप में पेश करना चाहता हूँ। जिसने यह दरख्वास्त दी है, वह हमारा कोई छिपा हुआ दुश्मन है। मेरा भाई मर चुका है और उसकी घरवाली ने बेतवा नदीं में डूबकर जान दे दी थी। सारा गाँव साक्षी है। मुझे समय चाहिए।’’
गाँव में हल्ला हो गया, विजयसिंह की औरत ने देवी का अवतार ले लिया। कचहरी हिला दी। नहीं, उसका पुनर्जन्म हुआ है। कैसा पुनर्जन्म, चुड़ैंल योनि में आ गयी है।
महज चार महीना ! इतनी जल्दी अवतार लिया, कचहरी को ललकारने लगी ! चमत्कार हो गया। किसी किसी ने कहा-पुजारी मर गया, करामात छोड़ गया ! इलाके में हलचल है।
मंदिर में वह पुजारी नहीं, उसकी बदली हुई कथा नहीं, मगर पूजा देने वालों में भुवन का किस्सा है। कब से चला आ रहा इतिहास...दांगी की बेटी देवी दुर्गा की कथा और बलिदानों का सिलसिला पलटता है। भक्त जन आह भरते हैं-यह कैसा महापाप हुआ देवी !
मैं चन्दर !
ऑफिस में चन्द्रप्रकाश, महापाप की अपराधिनी भुवन की बहन का बेटा भक्तों का उतना ही अपराधी हूँ, जितनी कि भुवनमोहिनी। जनता की अदालत में मेरा हलफ बयान दर्ज हो।
जाड़े की दोपहर एक चिट्ठी मिली, डायरी के हिसाब से दिन था मंगलवार।
चिट्ठी में वह लिखा था, जो उसने मुँह से कभी कहा नहीं, शायद इसलिए ही चिट्ठी लिखी थी। मेरे बराबर की उम्रवाली मौसी की चिट्ठी कुछ इस तरह थी-
‘तुम मेरे सासरे वालों से डरते हो। वे क्या शेर हैं जो तुम्हें खा जाएँगे ? डर के मारे नहीं आते, मत जाओ। तुम सोचते हो मैं अकेली घबराकर अपनी बान से हट जाऊँगी, याद नहीं हो तो याद कर लेना मेरी माँ मुझे शिला पर कभी भरोसा नहीं था। सोचते होगे, मैं तुम्हारी राह देख रही हूँ, हट्ट ! मुझे तुम पर कभी भरोसा नहीं था। बस सोचा था, पढ़-लिखकर आदमी समझदार हो जाता है, लोग कहते हैं तो यह बात सच होगी। पर नहीं, तुमने लोगों की बात पर पानी फेर दिया। तुम्हें बुलाने का मकसद यह रहा कि आगरा जाकर डॉक्टरों की बात समझने और मुझे बताने के लिए तुम होते। चलो, अब मैं ही जेठ के संग चली जाऊँगी। घूँघट जेठ को करती हूँ, डाक्टरों का थोड़े ही करूँगी ? प्रार्थना करूँगी कि वे लोग मुझे आसान बोली में समझा दें, रोगी की हालत सुधरेगी कि नहीं सुधरेगी ? बता दें, आखिर मैं रोगी की घरवाली हूँ। दिन-रात उसके संग बिताने वाली हूँ। चन्दर, कई बार पछताती हूँ, जैसा चल रहा था, चलने क्यों नहीं दिया ? पर मन नहीं मानता। तुम मानो न मानो।’
चिट्ठी लिखी कि चुनौती दी ?
उसने बचपन से यही रवइया अपनाया है। चक्रव्यूह जैसी जगह घुसने से इन्कार नहीं करेगी, हालात काबू नहीं आएँगे, हमें उकसाएगी। हमें माने मैं और मेरा भाई बिरजू। हम भी क्या करें ? उसकी जेठ के सामने हमारी पिघ्घी बँध जाती थी। कारण कि वे वैभव सम्पन्न हवेली के मालिक, ऊपर से रिश्ते में भारी, किसी तरह की गुस्ताखी माफ नहीं करेंगे जो हमसे जो अनजाने ही गलती के रूप में हो जाएगी। वे हमें राजा सरीखे लगते। ऊपर से नानी कहती रहतीं-भुवन उनकी बहू है, वे जाने, भुवन जाने, हम कौन ? वैसे भी बेटीवाले होने के नाते हम कमजोर माने जाएँगे, कमजोर हैं भी।
मगर भुवन की चुनौती ?
मैं चलने का मन बनाता हूँ। बस में सवार होकर चलने की कल्पना करता हूँ, शरीर में काँटे खड़े हो जाते हैं। ठण्ड नहीं है, ठण्ड लगती है। नहीं, मुझे नहीं जाना। उसे तो खतरों में पड़ने के लिए बुलावा देने की आदत है। जानबूझकर साँप की बाँबी में हाथ दो, कहाँ की समझदारी है ?
मैं पढ़ा-लिखा हूँ, भुवन मुझे समझदार मान रही है। मैं जाकर रहूँगा।
कुँवर अजयसिंह के डर पर फतह पाने का भ्रम ओढ़ लेता हूँ तो उधर से पिताजी घर दबोचते हैं। देखते या सुनते ही कहेंगे-पागल हो गया है ? कुँवर ठीक ही कहते हैं कि चन्दर उसे शह देता है।
मैं पूछना चाहता था कि क्या शह दी ? उससे पहले ही पिताजी बोले थे-तुम्हारा जाना भी भुवन को शह देना माना जाएगा। मायके वालों को देखकर भी लड़की शेर हो जाती है। अनजाने ही ससुर-जेठ की मर्यादा भूल जाती है। मायके वालों की उपस्थिति में कितनी लड़कियाँ घूँघट करती हैं ? सो बेटा तुम न जाओ। भुवन के पीठ पीछे खड़े होकर कुँवर की ताकत न छिजाओ। समर्थ आदमी छीज जाए तो मौके पर तुम्हारे काम क्या आएगा ? ताकत में इजाफ़ा करो और ताकतवर के साथ शामिल हो जाओ, इतना नहीं जानते तो क्या पढ़े-लिखे हो ?
मैं आज बिलकुल चुप था। सफर के कोई लक्षण प्रकट नहीं किए। पिताजी के सामने पड़ूँ तो सिर झुका लूँ। सिर झुकाने वाले बेटे पर कौन-सा पिता निछावर न हो जाए ?
निछावर होकर उन्होंने पूछा था-क्या बात है ? डाकिया कोई चिट्ठी लाया था, किसकी थी ?-सुनकर मैं पिछली यादों से निकला। सामने मुकाबला था।
सत्य बोला-भुवन की थी। बुलाया है।
-जाओगे ?
-जाकर क्या करूँगा-यह वाक्य पिताजी को मोह लेगा, सोचकर कहा था।
-जो कर पाओ सो कर लेना। तुम उस घर के ढर्रे को कितना बदल पाओगे और क्यों बदलोगे, सोच लो।
मैं चुप था। लेकिन कहना चाहता था, कुछ नहीं बदल पाऊँगा, जानता हूँ फिर भी जाना चाहता हूँ क्योंकि वह मुझे देखकर बदलेगी नहीं सँभल तो जाएगी। किसी संकट में सँभल जाना भी क्या कोई अर्थ नहीं रखता ? कुछ न कर सका, इतना कर देना मुझे कुछ सन्तोष देगा।
मेरी चुप्पी इस समय पिताजी के लिए धृष्टता थी।
फिर भी उन्होंने कहा-चले जाओ। चले जाओ-उनकी आवाज में अनचाही लोच थी। भुवन के प्रति संवेदनशीलता है या नहीं, पर उजागर तो कर रहे हैं। शायद मुझे विमुख करना अब उन्हें गवारा नहीं। बेकार फालतू था तो गाली देकर बात कर लेते थे। जब से नौकरी लगी है, सम्मान सा देने लगे हैं, जो बड़ा अटपटा लगता है। मैं सहायक विकास अधिकारी (सहकारिता) क्या उनके लिए भी अफसर हूँ ? खैर !
नहीं, यह भी हो सकता है कि उन्हें अपने किए पर पछतावा हो, सो मुझे ज्यादा ही ताकतवर होने के लिए सलाह दे रहे हों। निश्चित ही पिछले किए की घबराहट का सोता फूटा है, वे कुँवर को पछाड़ना चाह रहे हों। भुवन के वर को नानी के सामने लाने वाले पिताजी ही थे। इसमें भी सन्देह नहीं कि पिताजी को सभी नहीं तो कुछ असलियतें मालूम जरूर होंगी और नानी ने अपने दामाद पर अंधभक्त की तरह विश्वास किया होगा। पिताजी ने असल कुछ बताया नहीं, तब क्या भूल भी गए ?
आज नानी जब यह कहती हैं कि बरजोर सिंह धनधान्य देखकर भुवन को हवेली में ऐसे दे आए, जैसे पहले लोग नामर्द राजाओं को अपनी बेटी ब्याह देते थे और राजा हो जाते थे, तो क्या गलत कहती हैं नानी ?
परन्तु ब्याह की गाँठ खोलना किसके बस की बात है ? राजा के बस की भी नहीं, भगवान के बस की भी नहीं। ये सब गाँठ को तोड़ भले ही दें।-यह नानी का मानना है।
मैं छटपटाता हूँ।
दिक्कत यहीं शुरू होती है कि मैं उसे भूल नहीं पाता। अपने प्यारे बचपन की तरह वह मैंने सीने से लगा रखी है। अनमोल याद सी मन में बसी है। मैं उसका पिता नहीं, भाई नहीं, पति नहीं, फिर क्या हूँ ? बहन के बेटे का रिश्ता कितने नजदीक होता है ?
मैं बचपन का गुलाम आज तक अपने लगाव की बेड़ियों में जकड़ा, अनेक दुखते निशानों, दागों को देखता रहता हूँ कि देखते रहना चाहता हूँ, ऐसी क्या मजदूरी है ?
भुवन के साथ बीते दिन। जब चोट, दर्द, आँसू भी खेल थे, खेल ही खुशी थी। हार भी जीत थी, जीत राजपाट थी।
भुवन, मेरी ननिहाल शीतलगढ़ी का राजपाट सँभाले रहती। शीतलगढ़ी, जो बरुआसागर से लगभग चालीस मील दूर थी। डेढ़ मील कच्चे रास्ते के बाद आती थी, जिसके पास बड़ा कस्बा मोंठ था। मेरे लिए मोंठ आते ही मानो शीतलगढ़ी शुरू हो जाती, क्योंकि मोंठ के बिसाइती, मोंठ के हलवाई, मोंठ के बजाजों का शीतलगढ़ी से लेनदेन के चलते उधारीवसूली का सबंध था। वे नानी को पहचानते थे। नानी इन दुकानों पर आया करती हैं, मैं बस में से झाँकता। कहीं नानी किसी दुकान पर तो नहीं बैठीं ? में अम्मा से किसी बूढ़ी को दिखाकर कहता-वोऽऽ नानी।
अम्मा बिना गौर किए ही सिर हिलातीं; जैसे वे नानी को बिना देखे ही पहचानती हों। मैं फिर भी बाज न आता, किसी छोटी लड़की को दिखाकर कहता-वो तो भुवन ही है।
‘‘हैऽ सिर्री’’अम्मा मुझे बेवकूफ कहकर छोड़ देतीं; जैसे वे अपनी बहन को भी बिना देखे ही पहचानती हों।
तब मैं कैसे कहूँ कि अम्मा, पहली रात से ही नानी और भुवन मेरे सपनों में डेरा जमाए हुए हैं। तुमसे ज्यादा मैं पहचानता हूँ। नानी सोने के लिए थपकी देती हैं तो भुवन आँखों के भीतर बवण्डर सी उठती है। वह रातभर सोने नहीं देती, ‘पकड़म-पकड़ाई’ खेलती है। मैंने भुवन का सपना देखा है। सपने की दुनिया उसके कब्जे में हैं, इसलिए मैं दिनभर उसके ख्यालों में खोया रहा और पिता के काम नहीं कर पाया। सुस्ती के बदले डाँट-फटकार खाता रहा। अम्मा, अब सपना नहीं, कल्पनाओं में घिरा हूँ और तुम मुझे मूर्ख कह रही हो। कहते हैं कि बच्चों के सपनों में परी आया करती है। पर मेरे सपनों में भुवन है और कल्पनाओं में भी भुवन...भले तुम उसे देवी भवानी और चुड़ैल कहो।
वह बचपन की बात थी, आज इस बात को क्या कहूँ ?...‘परी’ आकांक्षा का दूसरा नाम है। परी ने ही मुझे गड़ीवान बनने के लिए उकसाया था, आज बता सकता हूँ। पर अब यह बात पूछेगा कौन ? वह तो बचपन ही था कि अम्मा और पिताजी हर बात का जवाब माँगते थे-पढ़ेगा कि गाड़ी हाँकेगा ? यह चाव कहाँ से लगा ?
वह भुवन थी, जिसने अपने शलवार शूट पर नया-नया दुपट्टा ओढ़ा था और बड़ी लड़की की तरह बोली थी-लड़का बनता है और गाड़ी हाँकना आता नहीं।
हाँ, ठीक तो कहा था उसने। हमारे गाँव के किसानों के लड़कों को गाड़ी हाँकना न आए तो वे खेती क्या खाक करेंगे, ऐसा कहा जाता था। मेरा खिंचाव बैलों की ओर हुआ।
सच में उस दिन की पढ़ाई से जी उचाट हो गया। चिकनी त्वचावाले और ऊँचे पुट्ठों के धौरे काले बैल मन मोहने लगे। मैं उनके सींगों में तेल मलने लगा। गले में पहनी हुई घंटियों को भाँजकर चमकाता। पीठ पर कसीदे वाली झूलें डालता। बैल थकें नहीं सो उनकी पूँछों के बालों को धोकर साफ करता। पिताजी से धीमे और विनम्र-स्वर में कहता-बैलों की नाथें पुरानी हो गयी हैं। रंगीन नाथ मँगा दो। पिताजी ने क्या कहा, मैं सुनना नहीं चाहता, और बैलों को दानापानी देकर उन्हें नमक चटाता।
हम ट्रैक्टर लेने की सोच रहे हैं, तू बैलों की टहल में लगा है।
मैं सोचता बैलों को अपने इशारे पर चलाना आसान है, लोहे का क्या भरोसा कब ठण्डा पड़ जाए ? रंगदार पहिए और नोकदार पैनिया लेकर बैलगाड़ी पर चढ़ता तो लगता, आसपास खड़ी फसलें मुझे झुक-झुककर जोहार कर रही हैं। मैं गैल पर नहीं, पानी पर गाड़ी को नाव की तरह तैरा रहा है।
बैलगाड़ी नहीं, यह बस थी। ब्रेक लगा और धक्के के साथ रुकी। झाँसी आ गया। मुझे उतरना है। विराटा जाने के लिए बस बलदनी है। हड़बड़ाता हुआ अपना बैग उठाने लगा, धोखे में किसी दूसरे का उठा लिया ! वह चिल्लाया-एऽऽ भाईसाब, उठाईगीरी और हमारी आँखों के सामने ?
मैं अपनी भूल पर शरमाया। कैसे बताता कि मैं गाड़ी के सपनों में खोया गाड़ीवान बना गीत गा रहा था-
‘गाड़ी वाले मसक दै बैल इतै पुरवइया के बादर झुकि आए’
पुरवइया माने भुवन।
बादर...कि उसकी आँखें !
सोलह साल का होते-होते मैं ऐसी मनोहारिणी कल्पनाएँ करने लगा था।
मैं अब विराटा जानेवाली बस में बैठा हूँ, भुवन की ससुराल पहुँचने तक का सफर...मगर संग-संग शीतलगढ़ी चल रही है, क्योंकि शीतलगढ़ी न होती तो भुवन न होता, तो मेरी माँ भी न होती और मैं भी न होता। हमारा होना हमारे गाँव का होना है, या हमारे गाँव का होना हमारा होना है ? इस समय शीतलगढ़ी गाँव और हम संग-संग थे।
माना कि हम तीन भाई, मैं, बिरजू और लल्लू पिताजी के गाँव बरुआसागर में पैदा हुए हैं, लेकिन अम्मा का संबंध तो इस गाँव से है। लोग मेरा गाँव बरुआसागर बताते रहें, मैंने शीतलगढ़ी को भी उसी दर्जे पर माना है। क्यों माना है, इस मुद्दे पर मैं गच्चा खा जाता हूँ। जन्मभूमि ही अपनी गाँव होती है, मैं यही मानकर चलता था, वह तो शैतान भुवन थी, जिसने एक दिन बहस में मुझे हराने के लिए कहा-लल्लू का जन्म अस्पताल में हुआ था, लल्लू की जन्मभूमि अस्पताल हुई। हुई न ?
भुवन उन दिनों पाँचवी कक्षा में पढ़ती थी और अपने मास्साब से तमाम सवाल-जवाब करती थी। उन्हीं सवाल-जवाबों में उसने मास्साब के साथ यह खोज निकाला था कि मातृभूमि सबसे बड़ी चीज है, जो माँ से जुड़ी होती है। माँ की तरह हमारे पालन-पोषण में शामिल होती है। यही बात उसने ठोक-ठोककर मेरे दिमाग में भर दी। मातृभूमि माने शीतलगढ़ी।
उसे बहस की बुरी आदत पड़ती जा रही है। मास्टर के मुँह लगती-लगती, वह नानी के मुँह लगने लगी है, यही देखकर नानी ने उसे स्कूल से बिठा लिया था, कहने को मास्टर जी ने उसे छठी कक्षा में दाखिल करने के लिए कहा था, मगर नानी राजी नहीं हुईं और यह कहकर मास्टर को चुप कर दिया कि-हमारे घर में हम दो ही हैं। भुवन पढ़ेगी तो काम कौन करेगा ? मैं घर में भी करूँ और खेत में भी ?
नानी की बात का काट किसके पास था ? खेत में काम करने वाले नाना आज होते तो नानी भुवन की पढ़ाई पर ऐसी कुल्हाड़ी न चलातीं। नाना तो बीच रास्ते क्या, भुवन का जीवन शुरू होते ही अपनी अंतिम यात्रा पर निकल गए। गाँव में कहावत है-‘कहाँ गए राजा अमान, जिनखों रोबें चिरइयां।’ नानी की कहावत को अपने आप से और भुवन से जोड़ती हैं।
राजा अमान के नामराशि नाना अमानसिंह कुछ दिन फौज में रहे, उनके पिता ने खेती सँभाली। नाना अपने पिता के मरने पर फौज से छुट्टी लेकर उनका क्रिया-कर्म करने आए थे, मगर लौटकर नहीं जा सके। इस्तीफा दे दिया और मजबूरी दिखाई-कच्ची गृहस्थी है, खेती है, पिता स्वर्ग सिधार गए हैं।
नाना किसान बनकर रह गए। किसान के शरीर में फौजी का बल था। बलशाली शरीर में हौसलेमन्द मन था। बुलन्द हौसला-मन में कोई भय न था।
मगर नानी में जितनी ताकत थी, धक्का उतने जोर का ही लगा। उन्होंने देखा, गाँव का मुखिया उन्हें फौजी हवलदार नहीं, किसानों की तरह भी नहीं, परदेसी मानकर जमीन का कुछ हिस्सा हथियाए ले रहा है। वर्दी उतार देने का मतलब ताकत उतार फेंकना नहीं मुखिया इस बात पर गौर नहीं कर रहा। नाना की ताकत तिलमिलाने लगी। उनका खून उबलने लगा। धमनियाँ फटने को आ गयीं...यह उल्टी गिनती का खेल ! वे तो देश के लिए लड़ने गए थे, यहाँ घर छिनने की नौबत है ! गाँव में लोग समर्थों के चलते लूट-खसोट की दर पर हैं, कीड़े-मकोड़े से बिलबिलाकर रह जाते हैं, तो वे मोर्चे पर किसे बचाने गए थे ?
नानी बताया करती है-रोष, ताकत और जोश नाना के भीतर धनुष की तरह तन गए। तूफान ऐसा उठा कि बहादुरी का मतलब बदल गया।
नाना ने मुखिया से कहा था-हमारे लिए यह जीना नहीं, खुदखुशी है। धरती हमारी माँ है, तभी किसानी हमारा मान है। फौज में नौकरी कर ली, तब क्या हम यह बात भूल गए ? तू और हम दोनों बुदेंले हैं। दोनों की माँ ने बचपन में रक्कम दिया था। दोनों माँओं ने गाँव की खेतों की सीमा दिखाकर कहा था-यह धरती तेरी है। यह धरती तेरी है। इसको कोई नुकसान न पहुँचाए। यह गाँव तुम्हारा है, इसकी सीमा की रक्षा तुम करोगे।–यह कहकर बुन्देली माँएँ अपने लड़कों की कमर में रक्कस का काला डोरा बाँधती हैं। धागे के जरिए लड़की की नन्ही तलवार लटकाती हैं। पूरी पपरिया और गुलगुला की पूजा देती हैं कि बेटों को जंग के लिए ललकारती हैं ! जानता है ?
नाना ने मुखिया को याद दिलाया था-यह रिवाज अब की नहीं, तब की है जब मुगलमलेछों ने हमला किया था। हमलावरों को पराई धरती का क्या दर्द, हमें अपनी रक्षा में खड़े हो जाना होगा। यह बात मैं नहीं भूला तो तू भी नहीं भूला होगा मुखिया कि
बारह बरस तक कूकर जीवे, अरु तेरह लों जिए सियार।
बरस उठारह छत्री जीवे, आगे जीवे खों धिक्कार।।
धरती लेकर रहूँगा, पूरी की पूरी-नाना ने एलान कर दिया था।-नानी बताती हैं-नाना खुद से सवाल करते-मुगल कौन ? मलेच्छ कौन ? अंगरेज कौन ?-खुद ही जवाब देते-अन्यायी, अन्यायी, अन्यायी ! नाइंसाफी ही हमलावरी है।
अमानसिंह ने छाती ठोंककर अपना पूरा का पूरा खेत जोता, बोया। फसल तैयार कर ली। वे जब लहलहाते खेतों की ओर देखते तो कहते-गेहूँ सरसों की फसल नहीं झूम रही, मेरे पीछे-पीछे जवानों की टोली झूमती चली आ रही है। राइफल की जगह हल-फावड़ा है।
नानी कराहती हैं-गहरा साँस लेकर कहती हैं-उनकी माँ ने भी क्या नाम धरा था-अमान ! अमानसिंह ! -कहते हुए नानी के चेहरे पर चमक तो आती है, साथ ही आँखों में गीलापन छलकता है। अमान राजा के किस्से बुंदेलखंड में सावन महीने में घर-घर गाए जाते हैं। गीत-कथा का नायक राजा अमान सावन में अपनी बहन को लिवाने उसकी ससुराल गया था। बहनोई का नाम था धंधेरे ! धंधरे ने अमान की बड़ी खातिर की। जल झारी और छप्पन भोगों से स्वागत किया। तोषक कतिया पचरंग पलिका बिछवाए। ऊँची अटारी चौपड़ का इतंजाम किया।
बहन कितने सुख मे है, अमान को सन्तोष हुआ। लोग भी कितने भले हैं, यह भी सुख की बात थी। कायदा कद्र जानते हैं, सबसे बड़ी बात यही थी। आपस में खूब बातें हुईं। इलाके के राजाओं के बारे में बहसें हुईं। दोनों एक मत थे, सो खुश थे।
चौपड़ का खेल शुरू हुआ। दाँव लगे। पाँसे पलटे।-राजा अमान हारने लगे। लगा कि बहनोई अपने घर में हैं, मनमानी कर रहा है। बहनोई है बड़े रिश्ते में हैं, क्या किया जा सकता है ? लाँग-डाँट करेंगे तो वह बहन को सताएगा। हमारी चुटिया इसकी एड़ी तले है।
हार पर हार। धेधरे मुस्कराया।
मात पर मात। राजा अमान का चेहरा तमतमा गया। जी इतना दुखा कि दाँव भूल गए। क्या हो रहा है ? जीवन में मिली किसी हार ने अमान को चित्त करने में कामयाबी नहीं पाई। क्या सबंधियों से मात खाना जंग में हार जाने से ज्यादा दुखदायी होता है ? आत्मा कटने लगी...
बहनोई ने कटे पर नमक छिड़का-अमान राजा, तुम बुन्देला हो भी, या नहीं ? तुम तो किसी लोंडी बाँदी के जाए लगते हो।
गीत की कड़ी-अमान जू प्रान अंधेरे कौ राछरौ...
सचमुच राछरा ही कर डाला अमान ने। रगों में बहता खून था या आग ? माथा था या अंगार ? आँखें थीं कि बिजलियाँ ?-जो हम हुइहैं असल बुन्देला, लैलैहैं धंधेरे कौ मूँड़।–बहन ने सुना, सुहाग की भीख के लिए आँचल बिछा दिया।
-माँ से बड़ा बहन का सुहाग नहीं-कहकर अमान ने बहनोई का सिर उड़ा दिया।
अमान राजा का रूप अमानसिंह ! नानी बताती हैं, नाना कहते थे-धरती माँ से बड़ा कोई नहीं, उन्होंने मुखिया के लिए ताल ठोंक दी।
मुखिया भी अपमान जैसा रुतवा रखता था, धरती या धरती के बेटे से भला क्यों डरता ? खड़े-खड़े खेत से कटवा ली।
नाना की आगे कुछ न सूझा। अमानसिंह और सोच भी क्या सकते थे, सिवा इनके कि-जो हम हुइहैं असल बुंदेला लैलैहैं मुखिया कौ मूँड। किसी हथियार की तरूरत न पड़ी। हाथ हथौड़ा हो गए। लोहे का शिकंजा बन गए। गले का फंदा...मौंत के जितने साधन हो सकते थे, नाना के शरीर से ही बने। नानी बताती हैं-मुखिया ने दुनिया से विदा ली। सच ने अपना भाँडा खुद फोड़ा, नाना खुद ही कबूल गए-हाँ मैंने मारा है, क्योंकि मारने के काबिल था। अन्याय किसे अच्छा लगता है ? मैं कायर नहीं।
गाँव में हाहाकार मच गया। लोग कहने लगे-जंग में ऐसा जौहर दिखाते तो उन्हें बीरता के लिए, बहादुरी के लिए, साहस के लिए मातृभूमि के रक्षक बेटे की जगह खड़े करके पदक दिया जाता। देश के लिए बैरी को मार गिराना उनकी शानदार भेंट मानी जाती, मगर मुखिया बेईमान था पर था तो गाँव का ही। देश और गाँव का यह अन्तर नानी बताती हैं-वे गुनाह की जगह खड़े थे, कानून सामने था। कानून ने नाना कस लिए। बेईमानी को जड़ से उखाड़ना चाहते थे, खुद पर ही बन आई, सो घबराने लगे।
पड़ोस के भगवानदास के बाप समझाने लगे-अमान, अपने हक के लिए लड़ने से बड़ी कोई जंग नहीं। जाल में फँसे हो, ज्यों-ज्यों निकलना चाहोगे, उलझते जाओगे।
जाल क्या कटता, जवाब तक बन न पा रहा था। देवता नहीं थे सो अलोप हो जाते, भगवान भी नहीं कि रूप बदल लेते। साधुसंत चोला-बाना पहनकर असलियत छिपा लेते हैं और कुछ भी करते हैं। वे कहते-आदमी की जिदंगी मिली है, आदमी की तरह ही मरूँगा। मौत संग-संग चल रही है तो मैं भी पीछे नहीं हट रहा।
नानी बताती हैं-सामने वाले घर के पिरथीसिंह ने कहा था-अमान, तुम हाजिर हो जाओ, केस चलेगा, हम मुकदमा लड़ेंगे। यार, माना कि तुम फौज में रहे हो, पर किसान भी ऐसे कमजोर नहीं कि भेंड़ों की तरह कोई हाँक ले, आजमा लो हमें भी। सैसन से हाईकोर्ट तक जाएँगे, हाईकोर्ट तक हौसला न हारेंगे।
नाना बोले-यह जंग कचहरी का मुकदमा नहीं, सच्ची लड़ाई है। वकीलों की बकवास के दम पर अपना विश्वास नहीं हारना चाहता। अपील पुकार तो बुन्देला तब करता है, जब खुद पर से हौसला हार जाता है। मेरा अरमान पूरा हुआ, बाकी सबक लेंगे।
गाँव में हल्ला हो गया, विजयसिंह की औरत ने देवी का अवतार ले लिया। कचहरी हिला दी। नहीं, उसका पुनर्जन्म हुआ है। कैसा पुनर्जन्म, चुड़ैंल योनि में आ गयी है।
महज चार महीना ! इतनी जल्दी अवतार लिया, कचहरी को ललकारने लगी ! चमत्कार हो गया। किसी किसी ने कहा-पुजारी मर गया, करामात छोड़ गया ! इलाके में हलचल है।
मंदिर में वह पुजारी नहीं, उसकी बदली हुई कथा नहीं, मगर पूजा देने वालों में भुवन का किस्सा है। कब से चला आ रहा इतिहास...दांगी की बेटी देवी दुर्गा की कथा और बलिदानों का सिलसिला पलटता है। भक्त जन आह भरते हैं-यह कैसा महापाप हुआ देवी !
मैं चन्दर !
ऑफिस में चन्द्रप्रकाश, महापाप की अपराधिनी भुवन की बहन का बेटा भक्तों का उतना ही अपराधी हूँ, जितनी कि भुवनमोहिनी। जनता की अदालत में मेरा हलफ बयान दर्ज हो।
जाड़े की दोपहर एक चिट्ठी मिली, डायरी के हिसाब से दिन था मंगलवार।
चिट्ठी में वह लिखा था, जो उसने मुँह से कभी कहा नहीं, शायद इसलिए ही चिट्ठी लिखी थी। मेरे बराबर की उम्रवाली मौसी की चिट्ठी कुछ इस तरह थी-
‘तुम मेरे सासरे वालों से डरते हो। वे क्या शेर हैं जो तुम्हें खा जाएँगे ? डर के मारे नहीं आते, मत जाओ। तुम सोचते हो मैं अकेली घबराकर अपनी बान से हट जाऊँगी, याद नहीं हो तो याद कर लेना मेरी माँ मुझे शिला पर कभी भरोसा नहीं था। सोचते होगे, मैं तुम्हारी राह देख रही हूँ, हट्ट ! मुझे तुम पर कभी भरोसा नहीं था। बस सोचा था, पढ़-लिखकर आदमी समझदार हो जाता है, लोग कहते हैं तो यह बात सच होगी। पर नहीं, तुमने लोगों की बात पर पानी फेर दिया। तुम्हें बुलाने का मकसद यह रहा कि आगरा जाकर डॉक्टरों की बात समझने और मुझे बताने के लिए तुम होते। चलो, अब मैं ही जेठ के संग चली जाऊँगी। घूँघट जेठ को करती हूँ, डाक्टरों का थोड़े ही करूँगी ? प्रार्थना करूँगी कि वे लोग मुझे आसान बोली में समझा दें, रोगी की हालत सुधरेगी कि नहीं सुधरेगी ? बता दें, आखिर मैं रोगी की घरवाली हूँ। दिन-रात उसके संग बिताने वाली हूँ। चन्दर, कई बार पछताती हूँ, जैसा चल रहा था, चलने क्यों नहीं दिया ? पर मन नहीं मानता। तुम मानो न मानो।’
चिट्ठी लिखी कि चुनौती दी ?
उसने बचपन से यही रवइया अपनाया है। चक्रव्यूह जैसी जगह घुसने से इन्कार नहीं करेगी, हालात काबू नहीं आएँगे, हमें उकसाएगी। हमें माने मैं और मेरा भाई बिरजू। हम भी क्या करें ? उसकी जेठ के सामने हमारी पिघ्घी बँध जाती थी। कारण कि वे वैभव सम्पन्न हवेली के मालिक, ऊपर से रिश्ते में भारी, किसी तरह की गुस्ताखी माफ नहीं करेंगे जो हमसे जो अनजाने ही गलती के रूप में हो जाएगी। वे हमें राजा सरीखे लगते। ऊपर से नानी कहती रहतीं-भुवन उनकी बहू है, वे जाने, भुवन जाने, हम कौन ? वैसे भी बेटीवाले होने के नाते हम कमजोर माने जाएँगे, कमजोर हैं भी।
मगर भुवन की चुनौती ?
मैं चलने का मन बनाता हूँ। बस में सवार होकर चलने की कल्पना करता हूँ, शरीर में काँटे खड़े हो जाते हैं। ठण्ड नहीं है, ठण्ड लगती है। नहीं, मुझे नहीं जाना। उसे तो खतरों में पड़ने के लिए बुलावा देने की आदत है। जानबूझकर साँप की बाँबी में हाथ दो, कहाँ की समझदारी है ?
मैं पढ़ा-लिखा हूँ, भुवन मुझे समझदार मान रही है। मैं जाकर रहूँगा।
कुँवर अजयसिंह के डर पर फतह पाने का भ्रम ओढ़ लेता हूँ तो उधर से पिताजी घर दबोचते हैं। देखते या सुनते ही कहेंगे-पागल हो गया है ? कुँवर ठीक ही कहते हैं कि चन्दर उसे शह देता है।
मैं पूछना चाहता था कि क्या शह दी ? उससे पहले ही पिताजी बोले थे-तुम्हारा जाना भी भुवन को शह देना माना जाएगा। मायके वालों को देखकर भी लड़की शेर हो जाती है। अनजाने ही ससुर-जेठ की मर्यादा भूल जाती है। मायके वालों की उपस्थिति में कितनी लड़कियाँ घूँघट करती हैं ? सो बेटा तुम न जाओ। भुवन के पीठ पीछे खड़े होकर कुँवर की ताकत न छिजाओ। समर्थ आदमी छीज जाए तो मौके पर तुम्हारे काम क्या आएगा ? ताकत में इजाफ़ा करो और ताकतवर के साथ शामिल हो जाओ, इतना नहीं जानते तो क्या पढ़े-लिखे हो ?
मैं आज बिलकुल चुप था। सफर के कोई लक्षण प्रकट नहीं किए। पिताजी के सामने पड़ूँ तो सिर झुका लूँ। सिर झुकाने वाले बेटे पर कौन-सा पिता निछावर न हो जाए ?
निछावर होकर उन्होंने पूछा था-क्या बात है ? डाकिया कोई चिट्ठी लाया था, किसकी थी ?-सुनकर मैं पिछली यादों से निकला। सामने मुकाबला था।
सत्य बोला-भुवन की थी। बुलाया है।
-जाओगे ?
-जाकर क्या करूँगा-यह वाक्य पिताजी को मोह लेगा, सोचकर कहा था।
-जो कर पाओ सो कर लेना। तुम उस घर के ढर्रे को कितना बदल पाओगे और क्यों बदलोगे, सोच लो।
मैं चुप था। लेकिन कहना चाहता था, कुछ नहीं बदल पाऊँगा, जानता हूँ फिर भी जाना चाहता हूँ क्योंकि वह मुझे देखकर बदलेगी नहीं सँभल तो जाएगी। किसी संकट में सँभल जाना भी क्या कोई अर्थ नहीं रखता ? कुछ न कर सका, इतना कर देना मुझे कुछ सन्तोष देगा।
मेरी चुप्पी इस समय पिताजी के लिए धृष्टता थी।
फिर भी उन्होंने कहा-चले जाओ। चले जाओ-उनकी आवाज में अनचाही लोच थी। भुवन के प्रति संवेदनशीलता है या नहीं, पर उजागर तो कर रहे हैं। शायद मुझे विमुख करना अब उन्हें गवारा नहीं। बेकार फालतू था तो गाली देकर बात कर लेते थे। जब से नौकरी लगी है, सम्मान सा देने लगे हैं, जो बड़ा अटपटा लगता है। मैं सहायक विकास अधिकारी (सहकारिता) क्या उनके लिए भी अफसर हूँ ? खैर !
नहीं, यह भी हो सकता है कि उन्हें अपने किए पर पछतावा हो, सो मुझे ज्यादा ही ताकतवर होने के लिए सलाह दे रहे हों। निश्चित ही पिछले किए की घबराहट का सोता फूटा है, वे कुँवर को पछाड़ना चाह रहे हों। भुवन के वर को नानी के सामने लाने वाले पिताजी ही थे। इसमें भी सन्देह नहीं कि पिताजी को सभी नहीं तो कुछ असलियतें मालूम जरूर होंगी और नानी ने अपने दामाद पर अंधभक्त की तरह विश्वास किया होगा। पिताजी ने असल कुछ बताया नहीं, तब क्या भूल भी गए ?
आज नानी जब यह कहती हैं कि बरजोर सिंह धनधान्य देखकर भुवन को हवेली में ऐसे दे आए, जैसे पहले लोग नामर्द राजाओं को अपनी बेटी ब्याह देते थे और राजा हो जाते थे, तो क्या गलत कहती हैं नानी ?
परन्तु ब्याह की गाँठ खोलना किसके बस की बात है ? राजा के बस की भी नहीं, भगवान के बस की भी नहीं। ये सब गाँठ को तोड़ भले ही दें।-यह नानी का मानना है।
मैं छटपटाता हूँ।
दिक्कत यहीं शुरू होती है कि मैं उसे भूल नहीं पाता। अपने प्यारे बचपन की तरह वह मैंने सीने से लगा रखी है। अनमोल याद सी मन में बसी है। मैं उसका पिता नहीं, भाई नहीं, पति नहीं, फिर क्या हूँ ? बहन के बेटे का रिश्ता कितने नजदीक होता है ?
मैं बचपन का गुलाम आज तक अपने लगाव की बेड़ियों में जकड़ा, अनेक दुखते निशानों, दागों को देखता रहता हूँ कि देखते रहना चाहता हूँ, ऐसी क्या मजदूरी है ?
भुवन के साथ बीते दिन। जब चोट, दर्द, आँसू भी खेल थे, खेल ही खुशी थी। हार भी जीत थी, जीत राजपाट थी।
भुवन, मेरी ननिहाल शीतलगढ़ी का राजपाट सँभाले रहती। शीतलगढ़ी, जो बरुआसागर से लगभग चालीस मील दूर थी। डेढ़ मील कच्चे रास्ते के बाद आती थी, जिसके पास बड़ा कस्बा मोंठ था। मेरे लिए मोंठ आते ही मानो शीतलगढ़ी शुरू हो जाती, क्योंकि मोंठ के बिसाइती, मोंठ के हलवाई, मोंठ के बजाजों का शीतलगढ़ी से लेनदेन के चलते उधारीवसूली का सबंध था। वे नानी को पहचानते थे। नानी इन दुकानों पर आया करती हैं, मैं बस में से झाँकता। कहीं नानी किसी दुकान पर तो नहीं बैठीं ? में अम्मा से किसी बूढ़ी को दिखाकर कहता-वोऽऽ नानी।
अम्मा बिना गौर किए ही सिर हिलातीं; जैसे वे नानी को बिना देखे ही पहचानती हों। मैं फिर भी बाज न आता, किसी छोटी लड़की को दिखाकर कहता-वो तो भुवन ही है।
‘‘हैऽ सिर्री’’अम्मा मुझे बेवकूफ कहकर छोड़ देतीं; जैसे वे अपनी बहन को भी बिना देखे ही पहचानती हों।
तब मैं कैसे कहूँ कि अम्मा, पहली रात से ही नानी और भुवन मेरे सपनों में डेरा जमाए हुए हैं। तुमसे ज्यादा मैं पहचानता हूँ। नानी सोने के लिए थपकी देती हैं तो भुवन आँखों के भीतर बवण्डर सी उठती है। वह रातभर सोने नहीं देती, ‘पकड़म-पकड़ाई’ खेलती है। मैंने भुवन का सपना देखा है। सपने की दुनिया उसके कब्जे में हैं, इसलिए मैं दिनभर उसके ख्यालों में खोया रहा और पिता के काम नहीं कर पाया। सुस्ती के बदले डाँट-फटकार खाता रहा। अम्मा, अब सपना नहीं, कल्पनाओं में घिरा हूँ और तुम मुझे मूर्ख कह रही हो। कहते हैं कि बच्चों के सपनों में परी आया करती है। पर मेरे सपनों में भुवन है और कल्पनाओं में भी भुवन...भले तुम उसे देवी भवानी और चुड़ैल कहो।
वह बचपन की बात थी, आज इस बात को क्या कहूँ ?...‘परी’ आकांक्षा का दूसरा नाम है। परी ने ही मुझे गड़ीवान बनने के लिए उकसाया था, आज बता सकता हूँ। पर अब यह बात पूछेगा कौन ? वह तो बचपन ही था कि अम्मा और पिताजी हर बात का जवाब माँगते थे-पढ़ेगा कि गाड़ी हाँकेगा ? यह चाव कहाँ से लगा ?
वह भुवन थी, जिसने अपने शलवार शूट पर नया-नया दुपट्टा ओढ़ा था और बड़ी लड़की की तरह बोली थी-लड़का बनता है और गाड़ी हाँकना आता नहीं।
हाँ, ठीक तो कहा था उसने। हमारे गाँव के किसानों के लड़कों को गाड़ी हाँकना न आए तो वे खेती क्या खाक करेंगे, ऐसा कहा जाता था। मेरा खिंचाव बैलों की ओर हुआ।
सच में उस दिन की पढ़ाई से जी उचाट हो गया। चिकनी त्वचावाले और ऊँचे पुट्ठों के धौरे काले बैल मन मोहने लगे। मैं उनके सींगों में तेल मलने लगा। गले में पहनी हुई घंटियों को भाँजकर चमकाता। पीठ पर कसीदे वाली झूलें डालता। बैल थकें नहीं सो उनकी पूँछों के बालों को धोकर साफ करता। पिताजी से धीमे और विनम्र-स्वर में कहता-बैलों की नाथें पुरानी हो गयी हैं। रंगीन नाथ मँगा दो। पिताजी ने क्या कहा, मैं सुनना नहीं चाहता, और बैलों को दानापानी देकर उन्हें नमक चटाता।
हम ट्रैक्टर लेने की सोच रहे हैं, तू बैलों की टहल में लगा है।
मैं सोचता बैलों को अपने इशारे पर चलाना आसान है, लोहे का क्या भरोसा कब ठण्डा पड़ जाए ? रंगदार पहिए और नोकदार पैनिया लेकर बैलगाड़ी पर चढ़ता तो लगता, आसपास खड़ी फसलें मुझे झुक-झुककर जोहार कर रही हैं। मैं गैल पर नहीं, पानी पर गाड़ी को नाव की तरह तैरा रहा है।
बैलगाड़ी नहीं, यह बस थी। ब्रेक लगा और धक्के के साथ रुकी। झाँसी आ गया। मुझे उतरना है। विराटा जाने के लिए बस बलदनी है। हड़बड़ाता हुआ अपना बैग उठाने लगा, धोखे में किसी दूसरे का उठा लिया ! वह चिल्लाया-एऽऽ भाईसाब, उठाईगीरी और हमारी आँखों के सामने ?
मैं अपनी भूल पर शरमाया। कैसे बताता कि मैं गाड़ी के सपनों में खोया गाड़ीवान बना गीत गा रहा था-
‘गाड़ी वाले मसक दै बैल इतै पुरवइया के बादर झुकि आए’
पुरवइया माने भुवन।
बादर...कि उसकी आँखें !
सोलह साल का होते-होते मैं ऐसी मनोहारिणी कल्पनाएँ करने लगा था।
मैं अब विराटा जानेवाली बस में बैठा हूँ, भुवन की ससुराल पहुँचने तक का सफर...मगर संग-संग शीतलगढ़ी चल रही है, क्योंकि शीतलगढ़ी न होती तो भुवन न होता, तो मेरी माँ भी न होती और मैं भी न होता। हमारा होना हमारे गाँव का होना है, या हमारे गाँव का होना हमारा होना है ? इस समय शीतलगढ़ी गाँव और हम संग-संग थे।
माना कि हम तीन भाई, मैं, बिरजू और लल्लू पिताजी के गाँव बरुआसागर में पैदा हुए हैं, लेकिन अम्मा का संबंध तो इस गाँव से है। लोग मेरा गाँव बरुआसागर बताते रहें, मैंने शीतलगढ़ी को भी उसी दर्जे पर माना है। क्यों माना है, इस मुद्दे पर मैं गच्चा खा जाता हूँ। जन्मभूमि ही अपनी गाँव होती है, मैं यही मानकर चलता था, वह तो शैतान भुवन थी, जिसने एक दिन बहस में मुझे हराने के लिए कहा-लल्लू का जन्म अस्पताल में हुआ था, लल्लू की जन्मभूमि अस्पताल हुई। हुई न ?
भुवन उन दिनों पाँचवी कक्षा में पढ़ती थी और अपने मास्साब से तमाम सवाल-जवाब करती थी। उन्हीं सवाल-जवाबों में उसने मास्साब के साथ यह खोज निकाला था कि मातृभूमि सबसे बड़ी चीज है, जो माँ से जुड़ी होती है। माँ की तरह हमारे पालन-पोषण में शामिल होती है। यही बात उसने ठोक-ठोककर मेरे दिमाग में भर दी। मातृभूमि माने शीतलगढ़ी।
उसे बहस की बुरी आदत पड़ती जा रही है। मास्टर के मुँह लगती-लगती, वह नानी के मुँह लगने लगी है, यही देखकर नानी ने उसे स्कूल से बिठा लिया था, कहने को मास्टर जी ने उसे छठी कक्षा में दाखिल करने के लिए कहा था, मगर नानी राजी नहीं हुईं और यह कहकर मास्टर को चुप कर दिया कि-हमारे घर में हम दो ही हैं। भुवन पढ़ेगी तो काम कौन करेगा ? मैं घर में भी करूँ और खेत में भी ?
नानी की बात का काट किसके पास था ? खेत में काम करने वाले नाना आज होते तो नानी भुवन की पढ़ाई पर ऐसी कुल्हाड़ी न चलातीं। नाना तो बीच रास्ते क्या, भुवन का जीवन शुरू होते ही अपनी अंतिम यात्रा पर निकल गए। गाँव में कहावत है-‘कहाँ गए राजा अमान, जिनखों रोबें चिरइयां।’ नानी की कहावत को अपने आप से और भुवन से जोड़ती हैं।
राजा अमान के नामराशि नाना अमानसिंह कुछ दिन फौज में रहे, उनके पिता ने खेती सँभाली। नाना अपने पिता के मरने पर फौज से छुट्टी लेकर उनका क्रिया-कर्म करने आए थे, मगर लौटकर नहीं जा सके। इस्तीफा दे दिया और मजबूरी दिखाई-कच्ची गृहस्थी है, खेती है, पिता स्वर्ग सिधार गए हैं।
नाना किसान बनकर रह गए। किसान के शरीर में फौजी का बल था। बलशाली शरीर में हौसलेमन्द मन था। बुलन्द हौसला-मन में कोई भय न था।
मगर नानी में जितनी ताकत थी, धक्का उतने जोर का ही लगा। उन्होंने देखा, गाँव का मुखिया उन्हें फौजी हवलदार नहीं, किसानों की तरह भी नहीं, परदेसी मानकर जमीन का कुछ हिस्सा हथियाए ले रहा है। वर्दी उतार देने का मतलब ताकत उतार फेंकना नहीं मुखिया इस बात पर गौर नहीं कर रहा। नाना की ताकत तिलमिलाने लगी। उनका खून उबलने लगा। धमनियाँ फटने को आ गयीं...यह उल्टी गिनती का खेल ! वे तो देश के लिए लड़ने गए थे, यहाँ घर छिनने की नौबत है ! गाँव में लोग समर्थों के चलते लूट-खसोट की दर पर हैं, कीड़े-मकोड़े से बिलबिलाकर रह जाते हैं, तो वे मोर्चे पर किसे बचाने गए थे ?
नानी बताया करती है-रोष, ताकत और जोश नाना के भीतर धनुष की तरह तन गए। तूफान ऐसा उठा कि बहादुरी का मतलब बदल गया।
नाना ने मुखिया से कहा था-हमारे लिए यह जीना नहीं, खुदखुशी है। धरती हमारी माँ है, तभी किसानी हमारा मान है। फौज में नौकरी कर ली, तब क्या हम यह बात भूल गए ? तू और हम दोनों बुदेंले हैं। दोनों की माँ ने बचपन में रक्कम दिया था। दोनों माँओं ने गाँव की खेतों की सीमा दिखाकर कहा था-यह धरती तेरी है। यह धरती तेरी है। इसको कोई नुकसान न पहुँचाए। यह गाँव तुम्हारा है, इसकी सीमा की रक्षा तुम करोगे।–यह कहकर बुन्देली माँएँ अपने लड़कों की कमर में रक्कस का काला डोरा बाँधती हैं। धागे के जरिए लड़की की नन्ही तलवार लटकाती हैं। पूरी पपरिया और गुलगुला की पूजा देती हैं कि बेटों को जंग के लिए ललकारती हैं ! जानता है ?
नाना ने मुखिया को याद दिलाया था-यह रिवाज अब की नहीं, तब की है जब मुगलमलेछों ने हमला किया था। हमलावरों को पराई धरती का क्या दर्द, हमें अपनी रक्षा में खड़े हो जाना होगा। यह बात मैं नहीं भूला तो तू भी नहीं भूला होगा मुखिया कि
बारह बरस तक कूकर जीवे, अरु तेरह लों जिए सियार।
बरस उठारह छत्री जीवे, आगे जीवे खों धिक्कार।।
धरती लेकर रहूँगा, पूरी की पूरी-नाना ने एलान कर दिया था।-नानी बताती हैं-नाना खुद से सवाल करते-मुगल कौन ? मलेच्छ कौन ? अंगरेज कौन ?-खुद ही जवाब देते-अन्यायी, अन्यायी, अन्यायी ! नाइंसाफी ही हमलावरी है।
अमानसिंह ने छाती ठोंककर अपना पूरा का पूरा खेत जोता, बोया। फसल तैयार कर ली। वे जब लहलहाते खेतों की ओर देखते तो कहते-गेहूँ सरसों की फसल नहीं झूम रही, मेरे पीछे-पीछे जवानों की टोली झूमती चली आ रही है। राइफल की जगह हल-फावड़ा है।
नानी कराहती हैं-गहरा साँस लेकर कहती हैं-उनकी माँ ने भी क्या नाम धरा था-अमान ! अमानसिंह ! -कहते हुए नानी के चेहरे पर चमक तो आती है, साथ ही आँखों में गीलापन छलकता है। अमान राजा के किस्से बुंदेलखंड में सावन महीने में घर-घर गाए जाते हैं। गीत-कथा का नायक राजा अमान सावन में अपनी बहन को लिवाने उसकी ससुराल गया था। बहनोई का नाम था धंधेरे ! धंधरे ने अमान की बड़ी खातिर की। जल झारी और छप्पन भोगों से स्वागत किया। तोषक कतिया पचरंग पलिका बिछवाए। ऊँची अटारी चौपड़ का इतंजाम किया।
बहन कितने सुख मे है, अमान को सन्तोष हुआ। लोग भी कितने भले हैं, यह भी सुख की बात थी। कायदा कद्र जानते हैं, सबसे बड़ी बात यही थी। आपस में खूब बातें हुईं। इलाके के राजाओं के बारे में बहसें हुईं। दोनों एक मत थे, सो खुश थे।
चौपड़ का खेल शुरू हुआ। दाँव लगे। पाँसे पलटे।-राजा अमान हारने लगे। लगा कि बहनोई अपने घर में हैं, मनमानी कर रहा है। बहनोई है बड़े रिश्ते में हैं, क्या किया जा सकता है ? लाँग-डाँट करेंगे तो वह बहन को सताएगा। हमारी चुटिया इसकी एड़ी तले है।
हार पर हार। धेधरे मुस्कराया।
मात पर मात। राजा अमान का चेहरा तमतमा गया। जी इतना दुखा कि दाँव भूल गए। क्या हो रहा है ? जीवन में मिली किसी हार ने अमान को चित्त करने में कामयाबी नहीं पाई। क्या सबंधियों से मात खाना जंग में हार जाने से ज्यादा दुखदायी होता है ? आत्मा कटने लगी...
बहनोई ने कटे पर नमक छिड़का-अमान राजा, तुम बुन्देला हो भी, या नहीं ? तुम तो किसी लोंडी बाँदी के जाए लगते हो।
गीत की कड़ी-अमान जू प्रान अंधेरे कौ राछरौ...
सचमुच राछरा ही कर डाला अमान ने। रगों में बहता खून था या आग ? माथा था या अंगार ? आँखें थीं कि बिजलियाँ ?-जो हम हुइहैं असल बुन्देला, लैलैहैं धंधेरे कौ मूँड़।–बहन ने सुना, सुहाग की भीख के लिए आँचल बिछा दिया।
-माँ से बड़ा बहन का सुहाग नहीं-कहकर अमान ने बहनोई का सिर उड़ा दिया।
अमान राजा का रूप अमानसिंह ! नानी बताती हैं, नाना कहते थे-धरती माँ से बड़ा कोई नहीं, उन्होंने मुखिया के लिए ताल ठोंक दी।
मुखिया भी अपमान जैसा रुतवा रखता था, धरती या धरती के बेटे से भला क्यों डरता ? खड़े-खड़े खेत से कटवा ली।
नाना की आगे कुछ न सूझा। अमानसिंह और सोच भी क्या सकते थे, सिवा इनके कि-जो हम हुइहैं असल बुंदेला लैलैहैं मुखिया कौ मूँड। किसी हथियार की तरूरत न पड़ी। हाथ हथौड़ा हो गए। लोहे का शिकंजा बन गए। गले का फंदा...मौंत के जितने साधन हो सकते थे, नाना के शरीर से ही बने। नानी बताती हैं-मुखिया ने दुनिया से विदा ली। सच ने अपना भाँडा खुद फोड़ा, नाना खुद ही कबूल गए-हाँ मैंने मारा है, क्योंकि मारने के काबिल था। अन्याय किसे अच्छा लगता है ? मैं कायर नहीं।
गाँव में हाहाकार मच गया। लोग कहने लगे-जंग में ऐसा जौहर दिखाते तो उन्हें बीरता के लिए, बहादुरी के लिए, साहस के लिए मातृभूमि के रक्षक बेटे की जगह खड़े करके पदक दिया जाता। देश के लिए बैरी को मार गिराना उनकी शानदार भेंट मानी जाती, मगर मुखिया बेईमान था पर था तो गाँव का ही। देश और गाँव का यह अन्तर नानी बताती हैं-वे गुनाह की जगह खड़े थे, कानून सामने था। कानून ने नाना कस लिए। बेईमानी को जड़ से उखाड़ना चाहते थे, खुद पर ही बन आई, सो घबराने लगे।
पड़ोस के भगवानदास के बाप समझाने लगे-अमान, अपने हक के लिए लड़ने से बड़ी कोई जंग नहीं। जाल में फँसे हो, ज्यों-ज्यों निकलना चाहोगे, उलझते जाओगे।
जाल क्या कटता, जवाब तक बन न पा रहा था। देवता नहीं थे सो अलोप हो जाते, भगवान भी नहीं कि रूप बदल लेते। साधुसंत चोला-बाना पहनकर असलियत छिपा लेते हैं और कुछ भी करते हैं। वे कहते-आदमी की जिदंगी मिली है, आदमी की तरह ही मरूँगा। मौत संग-संग चल रही है तो मैं भी पीछे नहीं हट रहा।
नानी बताती हैं-सामने वाले घर के पिरथीसिंह ने कहा था-अमान, तुम हाजिर हो जाओ, केस चलेगा, हम मुकदमा लड़ेंगे। यार, माना कि तुम फौज में रहे हो, पर किसान भी ऐसे कमजोर नहीं कि भेंड़ों की तरह कोई हाँक ले, आजमा लो हमें भी। सैसन से हाईकोर्ट तक जाएँगे, हाईकोर्ट तक हौसला न हारेंगे।
नाना बोले-यह जंग कचहरी का मुकदमा नहीं, सच्ची लड़ाई है। वकीलों की बकवास के दम पर अपना विश्वास नहीं हारना चाहता। अपील पुकार तो बुन्देला तब करता है, जब खुद पर से हौसला हार जाता है। मेरा अरमान पूरा हुआ, बाकी सबक लेंगे।
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