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कितने शहरों में कितनी बार

ममता कालिया

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :212
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 8124
आईएसबीएन :9788126718764

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वे उन शहरों को याद कर रही हैं जहाँ वह रहीं और जहाँ की छवियों को कोई हस्ती मिटा नहीं सकी।

kitne sharon mein kitni baar by Mamta Kalia

‘बेघर’, ‘नरक-दर-नरक’, ‘दौड़’ जैसे अविस्मरणीय उपन्यासों एवं कई उत्कृष्ट कहानियों की रचनाकार ममता कालिया गद्य-लेखन की नई भूमिका में हैं वे उन शहरों को याद कर रही हैं जहाँ वह रहीं और जहाँ की छवियों को कोई हस्ती मिटा नहीं सकी। जाहिर है कि यह महज याद नहीं हैं, यह है - जीवन्त गद्य द्वारा अपने ही छिपे हुए जीवन की खोज और उसका उत्सव। इस गद्य श्रृंखला ने अपनी अगली हर किस्त में ज्यादा पाठक, सम्मान और लोकप्रियता अर्जित की है। ‘कितने शहरों में कितनी बार’ ने निश्चय ही गद्य की गरिमा को समृद्धि, गरिमा और ऊँचाई दी है।
-अखिलेश

हिंदी में इन दिनों संस्मरण विधा केंद्रस्थ होने की जद्दोजहद में है, पर बहुत धीरे-धीरे। ममता कालिया की कृति ‘कितने शहरों में कितनी बार’ पढ़कर मन में उथल-पुथल मच जाती है और कई सवाल सिर उठाने लगते हैं। कविता तो न जाने कब से साहित्य के केंद्र में है, लेकिन इधर उसने अपनी केंद्रीयता खो दी है। बीच के समय में उपन्यास और कहानी ने खुद को केंद्र में स्थापित किया। शोर व्यंग्य और लघुकथा का भी कम नहीं मचा, लेकिन किसी लघुकथा संग्रह को आज तक साहित्य अकादमी पुरस्कार नहीं मिला। व्यंग्य को सिर्फ एक बार तो कहानी को दो बार केंद्रीयता का ताज पहनने का सौभाग्य हासिल हुआ। आज भी ज्यादातर कवि और उपन्यासकार ही साहित्य अकादमी पुरस्कार पाते हैं। 2012 में उपन्यासकार काशीनाथ सिंह तो 2013 में कवि चंद्रकांत देवताले को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। अपने संस्मरणों में काशीनाथ सिंह श्रेष्ठतम सर्जक रूप में उपस्थित होते हैं, इसके बावजूद उनका काशी का अस्सी मोक्ष प्राप्त नहीं कर सका, लेकिन उनके ही रेहन पर रग्घू को मिल गया, क्योंकि वह उपन्यास है, जबकि काशी का अस्सी संस्मरण, जो आछे दिन पाछे गए के छपने के बाद छपा। काशी का अस्सी पुरस्कृत होता तो काशीनाथ सिंह की बांछें खिल जातीं, क्योंकि तब वह हरिशंकर परसाई के व्यंग्यकार के समक्ष संस्मरणकार के रूप में अपनी विधा के पहले सिंकदर होते। निर्मल वर्मा की तरह, जो हिंदी कहानी के पहले सिकंदर सिद्ध हुए। बहरहाल, काशी का उपन्यास रेहन पर रग्घू उन्हें पंक्तिपावन तो बना ही गया, जिसके लिए हल्की ही सही, उनके धवल चेहरे पर तिरछी मुस्कान तिर गई थी। आत्मकथा क्या भूलूं क्या याद करूं के लिए हरिवंश राय बच्चन और शरत की जीवनी आवारा मसीहा के लिए विष्णु प्रभाकर को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिलता, तो कुछ और बात होती। बच्चन के काव्य दो चट्टानें और विष्णु प्रभाकर के उपन्यास अ‌र्द्ध नारीश्वर को भले ही साहित्य अकादमी मिले, लेकिन उसके लिए उनकी योग्य कृतियां तो क्या भूलूं क्या याद करूं और आवारा मसीहा ही थीं, जिन पर विद्वान-सुधी पाठक सब एकमत थे, लेकिन पुरस्कारों में भारत तो क्या, दुनिया भर में बहुमत का सम्मान कहां होता है? इधर दलित और स्त्री-रचनाकारों ने आत्मकथा को लगभग केंद्रीय विधा की तरह अपना लिया है। मराठी में आत्मकथाओं की धूम है और जीवनियों की भी। आनंद यादव की आत्मकथा जूझ को मराठी खाते में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला, लेकिन हिंदी में आत्मकथा, जीवनी और संस्मरण के लिए दिल्ली अभी दूर लगती है, जबकि ‘कितने शहरों में कितनी बार’ की सर्जक ममता कालिया के लिए दिल्ली कभी भी दूर नहीं रही। वह उनके लिए मायके सरीखी है। दिल्ली से सटे गाजियाबाद में उनके माता-पिता देर तक रहते रहे और चाचा भारतभूषण अग्रवाल तो दिल्ली के ही बाशिंदे ठहर गए। ममता का जन्म वृंदावन (मथुरा) में हुआ, पर उनकी पढ़ाई-लिखाई नागपुर, मुंबई, पुणे, इंदौर और दिल्ली जैसे बड़े शहरों में हुई और पाकिस्तान का ऐबटाबाद उनका ननिहाल ठहर गया। ममता ने इलाहाबाद, मुंबई, कोलकाता और दिल्ली को न जाने कितनी बार रौंदा, कुछ इस तरह कि इन प्रमुख शहरों के सांस्कृतिक स्थल ही नहीं, चाट-पकौड़े की दुकानों के साइन बोर्ड तक कब-कब बदले गए, यह तक ममता को याद रह गए, जिसे उन्होंने ‘कितने शहरों में कितनी बार’ में हूबहू दर्ज कर दिया है। इसे पढ़कर उनकी याद्दाश्त का लोहा मानना पडेगा, वरना कहां किसी को याद रहते हैं वे लोग, जिन्होंने कभी मुग्ध नजरों से हमें निहारा होता है। कभी कुछ कहना चाहा होता है, लेकिन कहते-कहते होंठ सिल गए होते हैं। ममता के संस्मरण पढ़कर लगता है कि कोई कभी संस्मरण लिखे तो ऐसे डूबकर, जैसे ‘कितने शहरों में कितनी बार’ में ममता ने लिखे हैं। कितने शहरों में कितनी बार सिर्फ संस्मरण नहीं हैं, वे ममता के आत्मलेख जैसे हो गए हैं, जैसे राजेंद्र यादव के आत्मकथ्यांश मुड़-मु़ड़के देखता हूं। इसमें अगर ममता का ऊबड़-खाबड़ जीवन पथ झांक रहा है, तो मुड़-मुड़के देखता हूं में राजेंद्र यादव का, पर इन दोनों ने ही अपनी इन कृतियों को आत्मकथा कहने से परहेज किया और मन्नू भंडारी ने भी, जिन्होंने राजेंद्र यादव के आत्मकथ्यांश की प्रतिक्रया में लिखी थी एक कहानी यह भी। इसमें वह राजेंद्र से कहती हैं कि मुड़-मुड़के देखा था तो यह भी देखते। राजेंद्र ने अपनी किताब में जो नहीं देखा, मन्नू भंडारी ने सिर्फ वही नहीं और भी बहुत कुछ देखा व पाठकों को भी दिखाया, लेकिन उन्होंने भी एक कहानी यह भी को आत्मकथा मानने से मना कर दिया। कारण शायद यह है कि तीनों ने ही अपनी किताबें मुकम्मल आत्मकथा की तरह लिखी ही नहीं। ममता कालिया से तद्भव संपादक अखिलेश ने अपने जिये-भोगे शहरों पर संस्मरण लिखने का अनुरोध किया तो उन्होंने लिखे संस्मरण ही, जबकि नामवर सिंह से अखिलेश ने अपने बारे में लिखने का अनुरोध किया तो नामवर जी ने अपने बारे में कुछेक अंश लिखवाए भी, जो अद्भुत हैं, लेकिन लगता है कि नामवर सिंह की अद्भुत अपूर्व आत्मकथा हम शायद ही कभी पढ सकें, क्योंकि उन्होंने जीवन भर औरों का ही देखा-पढा और उन्हीं के बारे में लिखते-कहते रहे और जब अपने बारे में कुछ कहने के क्षण आए तो अक्सर शरमा गए, लेकिन ममता कालिया कहीं भी शर्मीली नहीं दिखीं, सिवा इसके कि राजेंद्र यादव और मन्नू भंडारी के साथ पहली बार घर आए रवींद्र कालिया को उन्होंने कनखियों से देखा तो जरूर था, लेकिन जब चंडीगढ से दोनों एक साथ बस में बैठकर दिल्ली लौटे और रवींद्र ने पूछा कि उस दिन उन्होंने उन्हें कैसे देखा था तो उस देखा-देखी को ममता सिरे से ही नकार गईं, जबकि वह सफेद झूठ बोल रही थीं और पकडी गईं। उसके बाद उन्होंने रवींद्र से कभी झूठ नहीं बोला, क्योंकि रवींद्र झूठ पकडने वालों के सरदार जो ठहर गए।


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